*
दर्पण नहीं
स्वयं को देख रही हूँ-
तुम्हारी आँखों से !
ऐसे देखा नहीं था कभी ,
नई-सी लग रही हूँ अपने आप को .
*
तुम्हारी दृष्टि से आभासित
मोहक सी उजास ,
धूप-छाँह का सलोनापन ,
स्निग्ध हो छा गया
झेंप-झिझक से भरे मुखमंडल पर !
*
ये आनन्द-दीप्त लोचन मेरे हैं क्या ?
नासिका, होंठ ,धुले बिखरे केश ?
मांग की सिन्दूरी रेख ,
बिंदिया पर विहँसती
माथे पर कुछ बहकी-सी .
ऐसी हूँ मैं !
*
जानती नहीं थी .
निहारना अपने आप को !
देखती थी शीशा
जैस कोई निरीक्षण कर रही होऊँ
सावधान सजग होकर .
पर आज अभिषेक पा रही हूँ
दो नयनों के नेह- जल का
पुलकित हो उठा रोम-रोम !
*
तुम्हारी आँखों से अपने को देखना ,
एक नया अनुभव ,
नई अनुभूति जगा गया .
लगा कि स्वयं को पहली बार देखा ,
उत्सुक नयन भर ,
लगा जैसे इस मुख की याद है ,
पर देख आज पा रही हूँ !
*
तुम्हारी दृष्टि ने
कोमलता का रेशमी आवरण
ओढ़ा दिया मुझे,
कुछ विस्मित सा वह कुतूहल
समा गया मेरे भीतर ,
स्वयं को देखा -
तुम्हारी निर्निमेष मुग्ध चितवन
चिर-पुनर्नवता रच गई मुझमें !
*
-प्रतिभा सक्सेना
प्रकाशित कृतियाँ :
1 सीमा के बंधन – कहानी संग्रह.
2 घर मेरा है – लघु-उपन्यासिकायें .
3 फ़ैसला सुरक्षित है – कुछ हास्य कुछ व्यंग्य.
4 उत्तर-कथा – खंड – काव्य.
