“बेटा ज़रा यहाँ आ तो”, माँ ने आवाज़ लगाई तो मीनू साधी-सी साड़ी में लिपटी, उनके पास आकर खड़ी हो गई।
“हमेशा बन-ठन कर रहने वाली मेरी बच्ची, ऐसे सादे लिबास और बिना श्रृंगार के…” उनका मन किया कि वे रो दें, “मैने कितनी कोशिश की कि ये दूसरी शादी के लिए मान जाए लेकिन पलाश की यादें….,” उन्होंने अपनी आंखों में आई पानी की लकीर को आंखों में ही समेटते हुए कहा, “बेटा, ज़रा ये गद्दियां जुलाहे के पास देकर आने में मेरी मदद तो कर। देख तो, इनके अंदर रुई ने कैसे गाँठे बना दी हैं। जब ये गद्दियां नई-नई आईं थीं तो कितनी नरम-सी थीं लेकिन वक्त के साथ ये कितनी कडी और बेजान हो गईं हैं। जुलाहे के पास जाएंगी तो वह इन्हें धुन कर, इनकी रुई में पड़ी पुरानी गांठे खोल देगा और इन्हें नए रूप में भी ढाल देगा। आखिर कब तक ये रुई यूँ ही उलझी पड़ी रहेगी। भई इसे भी तो मुक्त होकर खुलने का अधिकार है न?” माँ ने आंखों में उम्मीद भर, मुस्कुराते हुए कहा।
मीनू बिना कुछ कहे गद्दियां उठाने लगी लेकिन माँ की बातों से उसके अंदर अब कहीं कुछ बदलने लगा था।
- अनघा जोगलेकर
मैं, अनघा जोगलेकर, व्यवसाय से इंजीनियर होने के साथ ही एक उपन्यासकार व लघुकथाकार भी हूँ।
मेरे 3 लघुउपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं और तीनों ही amazon पर उपलब्ध हैं।
मैंने 1 वर्ष पूर्व ही लघुकथा लिखना आरम्भ किया है। मेरी लघुकथाएँ प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में छपने लगी हैं। जिसमें से एक सेतु पत्रिका भी है जो पिट्सबर्ग अमेरिका से छपती है।
मेरी अन्य रुचियों में चित्रकारी भी शामिल है।