नदियों की धारा

नदियों की धारा है अविरल और निश्चल|

कहती है ऐ राही, तू चला चल चला चल|

मैं चलती हूँ चलती जाती हूँ,

दुसरो के पाप को समेटते जाती हूँ,

ना थकती हूँ, ना कहरती हूँ,

पत्थर से भी टकराती हूँ,

और कहीं दूर जा के सागर से मिल जाती हूँ|

कहीं पर मैं गंगा तो कहीं पर अम्स्टेल,

तू भी बन ऐ राही मेरे जैसा, अविरल और निश्चल|

 

-स्वाति सिंह देव , कुवैत

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