तिरस्कार

शब्दों के कारीगर…
खेती के औज़ार उठाए…
चले एक भाषा की खेती करने…
कुछ ने मानसिक उर्वरता की शिकायत की,
कुछ ने आर्थिक निर्भरता की हिदायत दी,
कुछ ने खुद के जुगत जोड़े,
कुछ ईमानदारों ने अपने माथे फोड़े,
कुछ ने कहा-

इस भाषा से से व्यवसाय में हुआ मुनाफा.
कुछ ने कहा-
नहीं हुजूर, इस बिंदी से आय में भी हुआ इजाफा.
कुछ..कुछ भी न कह पाए
भयातुर रहे मूक निर्विकार
शब्दों के कारीगर मारते रहे-
इस भाषा की बदहज़मी के डकार
भाषा बेचारी,
तकती रही, कराहती रही, तकती रही, कराहती रही,
अबूझ पहेली है यह तिरस्कार
कि बाध्य ढूँढने को अपनों में ही अपना उपचार.

-डॉ अनुज कुमार


हिंदी ऑफिसर
नागालैंड विश्वविद्यालय

 

Leave a Reply