टीस

दरवाज़े की घंटी लगातार बजती जा रही थी….चौके से हाथ पोंछती हुई मैं दौड़ी
- “आ रही हूँ , आ रही हूँ ”
दरवाज़ा खोला . सामने एक अधेड़ महिला खड़ीं थीं . उम्र यह कोई ४०, ४५ वर्ष, लेकिन…. शायद परिस्तिथियों  उम्र पर हावी हो रही थीं.
“जी हाँ कहिये” . मैंने पहचानने की कोशिश करते हुए कहा .
“पहचाना नहीं ना”…उसने मुस्कुराते हुए कहा . मैं कोशिश कर रही थी .
“पहचाना नहीं ना ”..अब उस मुस्कराहट में एक वेदना साफ़ झलक रही थी . कोशिश अब भी ज़ारी थी . न पहचान पाने की झेंप चेहरे पर साफ़ दिखाई दे रही थी .
“ पहचाना नहीं ना ”…और वह फपक  फफककर  रो पड़ीं
मेन डोर सीधे ड्राइंग रूम में खुलता था . मम्मी वहीँ बैठी कोई किताब पढ़ रही थीं .वह स्त्री मम्मी को देख बेतहाशा उनकी और बढ़ी . तब तक मैं वहीँ दरवाज़े पर खड़ी उस औरत को पहचानने की कोशिश  करती रही .
“कौन”…मम्मी ने पूछा. “कुसुम तुम !”
उनकी आवाज़ में आश्चर्य और विस्मय का पुट था .
“कुसुम तुम तो …”
“ हाँ भाभी, पहचान में ही नहीं आ रही न, देखिये भाभी क्या हालत हो गयी है मेरी. क्या से क्या हो गयी हूँ. अब तो मेरी सूरत भी पहचान में नहीं आती ”…और उसकी हिचकियाँ बंध गयीं.
मैं आश्चर्य से यह सब देख रही थी . विश्वास नहीं हो रहा था की यह वही सुमन आंटी हैं !

तब मैं सातवीं में पढ़ती थी. पापाके एक पुराने मित्र थे , पुनीत पुरोहित . उनका घर पर अक्सर आना जाना था. वे जाने माने अस्ट्रोलोजर थे. वैध्की भी करते थे. पता नहीं क्यों लेकिन मुझे हमेशा ही उनसे डर लगता था. वे बिलकुल काले ,दुबले और लम्बे से थे , शरीर तना हुआ जैसे कभी झुकना सीखा ही न हो. एक मेल शोविनिस्ट का जीता जागता रूप. लेकिन पापा के परिचित थे इसलिए शिष्टाचार तो निभाना था .
एक दिन बहुत ही स्मार्ट युवती को लेकर घर आये. ऊंची एड़ी की आधुनिक कीमती सेंडल, सुन्दर डीलडौल, चमकदार रंग , गालों पर सेहत का निखार, आत्मा विश्वास से भरपूर .  बड़ा कौतुहल हुआ , ऐसे इंसान के साथ यह कैसे .?
वह कुछ तीखे स्वर में उनसे कह रही थी .
“पुनीत ! उस आदमी की इतनी मजाल, वह दो कौड़ी का इंसान अपने आप को समझता क्या है …” वह गुस्से से बोलती जा रहीं थी और अंकल उन्हें शांत कराये जा रहे थे . फिर पता चला , अंकल ने उनसे शादी कर ली थी .सुनकर और आश्चर्य हुआ.
अंकल तो शादी शुदा थे , गाँव में उनका एक बेटा भी था …फिर यह कैसे ?
उस उम्र में कौतुहल इसके आगे कभी बढ़ा ही नहीं .
धीरे धीरे उनका आना जाना बढ़ गया . वह घर की एक सदस्या बन गयीं. फिर तो अक्सर ही दोनों हमारे घर आते, रात का खाना पीना साथ होता और वह लोग वहीँ सो जाते.
आंटी से पता चला की वे एक बहुत ही कट्टर ईरानी परिवार से थीं . इतने  कट्टर की अगर उनके भाइयों को पता चल जाता की वे कहाँ हैं तो उनके टुकड़े टुकड़े कर देते .वे अक्सर कहतीं ”अगर मैं अपने बिरादरी वालों के हाथ लग गयी तो वे मेरा संगसार कर देंगे …मुझे पत्थरोंसे मार मारकर ख़त्म कर देंगे ”.सुनकर दहशत होती . अचानक वह पूरा दृश्य , उसकी बर्बरता आँखों के सामने नाच जाती …बड़ा भयानक लगता . लेकिन उनकी मुस्कराहट देखकर लगता  वह ऐसे की ठौलबाज़ी कर रही हैं …मज़ाक कर रही हैं . अगर ऐसा होता तो इतने आराम से थोड़ी बता रही होतीं
फिर उनके एक बेटा हुआ. बहुत ही प्यारा ,बहुत ही सुन्दर . इतना सुन्दर बच्चा हमने पहले कभी नहीं देखा था. सुंदर ,गोरा, हृष्टपुष्ट . जब वह मुस्कुराता तो देखनेवालों की ऑंखें उसके गालों के गढ़हों में धंस जातीं. किलकारियां मारता तो उस पर इतना प्यार आता की दांत  भींचें भींचें जबड़ा दुःख जाता. कभी रोते नहीं देखा उसे …बहुत ही खुशमिजाज़ …राह चलते अनजान लोग भी रूककर उसे पुचकारने से अपने को न रोक पाते.

बस ऐसे ही समय बीतता गया . कभी कभी आंटी  मजाक करतीं , “ पता नहीं इस कलुए के चक्कर में कैसे पड़ गयी. मेरे लिए तो इतने सुन्दर सुन्दर लड़कों के रिश्ते आ रहे थे  ज़रूर जादू टोना करके मुझको फाँसा है”.
धीरे धीरे हंसी में कही गयी बातों में अब तल्ख़ी नज़र आने लगी. बातें अब भी वही थीं लेकिन सुर बदला हुआ था .” मैंने तो अपनी जिंदगी बर्बाद कर दी इस आदमी के चक्कर में . पता नहीं मेरा ही दिमाग ख़राब हो गया था . इसने मुझपर जादू टोना किया था वरना मुझे क्या दिखा इसमें .मैंने अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की इससे शादी करके …..”. और समय के साथ साथ शिकायतों का दौर बढ़ता गया .
उन्ही दिनों हम लोगों ने एक नया फ्लैट ले लिया और हम लोग गोरेगांव से बांद्रा शिफ्ट हो गए . अंकल आंटी कुछ समय तक आते रहे फिर धीरे धेरे उनका भी आना कम हो गया . वर्ष बीतते गए और नई स्मृतियों ने विगत स्मृतियों को पीछे धकेल दिया.
आज अचानक वे सारी स्मृतियाँ कतारबद्ध सी आँखों के सामने से गुज़र गयीं .

दरवाज़ा बंद कर मैं भी मम्मी और आंटी के पास जा बैठी . आंटी लगातार रोये जा रही थीं ..”भाभी मैंने तो अपनी ज़िन्दगी किसी तरह घिसट घिसट कर , मार खा खा कर , उसके ज़ुल्म सह सहकर काट दी . लेकिन जब उस बच्चे को देखती हूँ तो कलेजा मुँह को आता है . अभी उसकी उम्र ही क्या है . ९ साल का बच्चा , मोहल्ले की सारी शराब की दुकानें पहचानता है…गन्दी गन्दी हौलीयों के चक्कर काटता है
वह उसे मार मारकर भेजता है ..मेरे लिए शराब ला …”
“वह मासूम बच्चा मार के डर से उन गन्दी गन्दी जगहों से उसके लिए शराब की बोतलें लाता है . वह पढ़ने बैठता है , तो उसे मार मारकर उसकी किताबें फ़ेंक देता है . उस बच्चे के चेहरे पर डर जैसे छप सा गया है…आँखों की खोह में दहशत तैरती रहती है . नींद में चौंक चौंककर उठ जाता है ..उस वहशी ने मेरे बच्चे को डर का एक जीता जागता रूप बना दिया है …आँखों के नीचे काले गड्ढे …
हमेशा सहमा सहमा सा रहता है वह घर में ….मैं क्या करूँ भाभी मुझसे नहीं देखा जाता …मुझसे मेरे बच्चे की यह हालत नहीं देखी जाती . वह फूल सा बच्चा कुम्हला गया है . मैं क्या करूँ भाभी , सोचती हूँ उसे ज़हर दे दूं और खुद भी ज़हर खा लूं . लेकिन उसकी मासूमियत देखकर लगता है , मैं माँ हूँ उसकी …ऐसा सोच भी कैसे सकती हूँ …भाभी लेकिन मैं क्या करूँ …वह ऐसे नहीं तो वैसे मर जायेगा , भाभी  उसे बचा लीजिये ”.
“मैं सेल्स्वोमन की तरह घर घर जाती हूँ , दो पैसे कमाती हूँ , अपने बच्चे को पढ़ा सकूं - लेकिन वह सारे पैसे छीनकर शराब पी जाता है ”.

यह सब देख दिल द्रवित हो गया . अपने सुरक्षित परिवार में रहते कभी नहीं जाना था की परिवार ऐसा भी हो सकता है . पिता इतना वीभत्स इतना घृणित कैसे हो सकता है ..क्या बच्चे का संरक्षण माँ का ही जिम्मा है ……क्यों सिर्फ उसका जी दुखता है अपने बच्चे के लिए ..क्यों उसकी आँखें टीसती हैं उसके आँसूओंसे ……बहुत कुछ घुमड़ता रहा भीतर .

वह विलाप करतीं रहीं . कहीं मम्मी भी असमर्थ लगीं . वह भी पापा के अधीन थीं. यह तो एक ऐसा कुचक्र है जो अविरत चलता आया है , चलता रहेगा . वह जानती थीं वह कुछ नहीं कर सकतीं . बस उनकी पीठ सहलाकर उन्हें चुप करा सकतीं थीं …और  यही वह कर रही थीं.

 

-सरस दरबारी

मुंबई विश्व विद्यालय से राजनितिक विज्ञान में स्नातक की डिग्री l

विद्यार्थी जीवन में कई कवितायेँ लिखीं और अंतर महाविद्यालय कहानी लेखन, कविता लेखन प्रतियोगिताओ में कई पदक और ट्राफी प्राप्त कीं .

प्रखर साहित्यिक पत्रिका ‘दीर्घा’ में ‘विशेष फोकस ‘ के अंतर्गत ११ कविताओं का प्रकाशन.

नवभारत टाइम्स में कविताओं का प्रकाशन

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