जूले

कोई-कोई सुबह जीवन में पीछे बीत चुके रात-दिन की पुनरावृत्ति मात्र नहीं होती और न ही उसकी निरन्तरता की कोई कड़ी ही होती है। यह बिल्कुल नई अनोखी, एक नए जीवन जैसी होती है, जो एक रात की गहन निद्रा में आई मृत्यु के बाद प्राप्त होती है। ऐसी सुबह में, एक पुराने शरीर में एक नया उत्साह लबालब भरा होता है। ऐसे समय में पेड़, पौधे, नदी, पहाड़, घाटियाँ, झरनें और सूरज की किरणें, सब एकदम नए लगते हैं, जैसे किसी ने उन्हें बहुत चटक रंगों से, बड़े रूच-रूच के बनाया हो और उन्हें किसी मनुष्य की आँखें पहली बार देख रही हों।

नूब्रा वैली में हुई थी ऐसी ही एक सुबह।

लद्दाख में विश्व की सबसे ऊँची सड़क, जो खरडुंग्ला पास से होकर नूब्रा वैली पहुँचती है, से होते जब हम वैली में पहुँचे तो शाम हो चुकी थी। डूबते सूरज ने विशाल पहाड़ों की परछाइयों को घाटियों और खाइयों में उतार दिया था। मीलों दूर खड़े इन पहाड़ों को देखकर लगता मानो कोई ध्यान में निमग्न बैठा तप कर रहा हो, किसी देवता के प्रकट होने के इंतज़ार में और फिर सदियों तक किसी के प्रकट न होने पर, एक दिन लम्बे इंतज़ार के बाद, वह पाषाण का हो गया हो।

नूब्रा वैली का वह गेस्ट हाउस, जिसमें हम ठहरे थे, हज़ारों फ़ीट ऊँचे पहाड़ों के बीच मानवीय सभ्यता के एक मात्र द्वीप के भाँति नितान्त सन्नाटे में अकेला खड़ा था। इस गेस्ट हाउस तक आती मीलों-मील वीरान पड़ी, एक पतली सड़क थी, जो सर्दियों के मौसम में बर्फ़ की चादर ओढ़कर सो जाती थी। गेस्ट हाउस की छोटी सी कच्ची छत से दूर पहाड़ी पर बना एक बहुत पुराना बौद्ध गोंग्पा दिखता था, जिसके पास ही एक विराट बौद्ध की प्रतिमा बनी थी। गोंग्पा के एक मंडप की सुरई पर झण्डा लहरा रहा था, जो अपना रंग खो देने के बाद, बर्फ़ की तरह सफ़ेद हो गया था।

उस रात ठंड और थकान के कारण हम सभी जल्दी ही सो गए थे। जून के महीने में भी हाड़ गला देने वाली ठंड थी। तापमान शून्य से भी पाँच डिग्री कम था। उस रात मैं सोया नहीं था, उस रात जैसे मुझे नींद नहीं मृत्यु आई थी और उसने मुझे सुबह फिर जीवन को लौटा दिया था।

नूब्रा वैली में हुई उस सुबह, मैं दिल्ली से अपने साथ आए सभी मित्रों को सोता हुआ छोड़कर, गेस्ट हाउस तक आने वाली सड़क से लगी घाटी में उतरती हुई एक पगडंडी पर चल दिया था। उस पगडंडी पर पैर रखते हुए लगता था जैसे सालों से वहाँ से कोई नहीं गुज़रा। घाटी की ढलान ने मेरे पैरों की रफ़्तार बढ़ा दी थी। तभी मुझे पगडंडी के दांई ओर बड़े-बड़े पत्थरों और मिट्टी से बना एक छोटा सा घर दिखाई दिया था। मैं उसके पास पहुँच कर अभी उसके आस-पास का जायज़ा ले ही रहा था कि धड़ाक से घर का दरवाज़ा खुल गया था। नाटे क़द का, एक चौड़ी नाक वाला अधेड़ आदमी मेरे सामने खड़ा था। मैं असहज हो रहा था पर तभी उसने पर्वत सी विराट मुस्कान के साथ कहा ‘जूले’। ऊँचे-ऊँचे पहाड़ जिनके सामने आदमी चींटी की तरह छोटा प्रतीत होता हो, उनके बीच एक घाटी की ढलान पर बने उस मकान से निकले आदमी के चेहरे पर पर्वत सी विराट मुस्कान थी, उसके चेहरे के भाव, माथे और गालों पर बनी गहरी लक़ीरें, सब कुछ पर्वत  की तरह शान्त और स्थिर थीं। उसकी आँखों में जीवन का गाढ़ा चटक रंग चमक रहा था। उस घर के दरवाज़े खुलते ही जैसे एक पूरी संस्कृति के दरवाज़े मेरे सामने खुल गए थे। भीतर ज़मीन से आधा फ़ुट ऊपर लगे बिस्तर पर एक स्त्री सो रही थी। उस आदमी ने दरवाज़े से टिका लकड़ी का हल उठा कर ज़मीन पर लिटा दिया। उसने एक साथ दो बीड़ियां सुलगा लीं और मेरी तरफ़ देखा, मैं मुस्कुरा दिया। उसने भीतर जाकर बिस्तर पर सोई स्त्री को हिलाकर उठाया और उसे एक बीड़ी थमा दी। बिना कुछ कहे आदमी ने बाहर आकर हल उठा कर अपने कंधे पर रख लिया और धीरे-धीरे घाटी में उतरने लगा। बीड़ी का धुँआ उसके पीछे छूटता जा रहा था। स्त्री बिस्तर से उठकर बाहर आ गई। उसके होठों पर भी वही शब्द था ‘जूले’। उसकी आंखों में पहाड़ों की चोटियों पर पड़ी बर्फ़ चमक रही थी। उसने अपनी झुकी हुई कमर को सीधा करते हुए घर के बाहर दाँई ओर बँधे याक, पहाड़ी बैल को खोल दिया। याक अपने भारी शरीर और छोटी टाँगों के साथ उस अधेड़ आदमी के पीछे –पीछे घाटी में उतरने लगा। बर्फ़ की चोटियों पर सूरज की किरनें चमकने लगी थीं। हवाएँ चोटियों से घाटियों में उतर रही थी।

पूरी घाटी में सिवाय उस याक के, जो आँखों से ओझल हो चुके आदमी के पीछे जा रहा था, कुछ भी नहीं दिख रहा था। मीलों दूर एक पतली सी नीले पानी की नदी बह रही थी। शायद वहीं कहीं एक छोटे से ज़मीन के टुकड़े पर होगा एक खेत, जहाँ पहुँचने के लिए हल कंधे पर रखे हुए वह अधेड़ आदमी आँखों से ओझल हो गया था।

मैं अपने हज़ारों शब्दों और उनकी निर्रथकता के साथ, अपनी नगण्य सी मानवीय सभ्यता और प्रकृति के संबंध की समझ के साथ, आँखों से ओझल होते उस याक को देख रहा था, जो अब एक छोटे, धीरे-धीरे खिसकते काले धब्बे की तरह, बड़े-बड़े पत्थरों के बीच खोता जा रहा था।

दूर-दूर तक कोई पेड़, कोई पक्षी, कोई मनुष्य नहीं दिख रहा था, पर पहाड़ों की बर्फ़ से ढकी चोटियों से लेकर, घाटी की गहराइयों तक एक शब्द गूँज रहा था ‘जूले’ …………… ‘जूले’।

 

- विवेक मिश्र

विज्ञान में स्नातक, दन्त स्वास्थ विज्ञान में विशेष शिक्षा, पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नात्कोत्तर। एक कहानी संग्रह-‘हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ’ प्रकाशित। ‘हनियां’, ‘तितली’, ‘घड़ा’, ‘ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ?’ तथा ‘गुब्बारा’ आदि चर्चित कहानियाँ। लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं व कहानियाँ प्रकाशित। साठ से अधिक वृत्तचित्रों की संकल्पना एवं पटकथा लेखन। ‘light though a labrynth’ शीर्षक से कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद राईटर्स वर्कशाप, कलकत्ता से तथा कहानिओं का बंगला अनुवाद डाना पब्लिकेशन, कलकत्ता से प्रकाशित।

संपर्क- मयूर विहार फेज़-2, दिल्ली-91

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