मुझे अब पाने को कुछ भी नहीं चाहिए। मैंने सब कुछ पा लिया है। अब मेरे पास खोने को है। जो मैं खो देना चाहता हूं। पाते-पाते इतना पा लिया कि जी ऊब गया। क्या नहीं मिला मुझे? दुख मिला, तकलीफ मिली, गम मिला, अफसोस मिला, धोखे मिले, आंसू मिले… और जीवन के अंदर एक जीवन भी मिल चुका। अब क्या जरूरत है मुझको…? दुनियां ने देख ली, दुनियावाले को देख लिया।
मैं तुम्हें इसलिए नहीं चाहता कि तुम मुझे चाहो, इसलिए नहीं प्यार करता कि तुम भी प्यार करो ,बल्कि इसलिए चाहता हूं कि मेरे अंदर चाहत का एहसास हो, इसलिए प्यार करता हूँ कि प्यार की अनुभूति हो, एक अंदाज हो, एक तड़प हो और मुझे भी किसी की बेचैनी का महसूस हो। हाँ…,
इंसान को क्या चाहिए और? क्या…? जीने को चाहत चाहिए। चाहत। जी, चाहत ही सब कुछ है। इसके अंदर जीवन भी है और जीने का अंदाज भी। जीवन जीने की तमन्ना है, जिसके अंदर बहुत सारी चीजें दफन हुई होती हैं -अरमान, इच्छा, तमन्ना, हसरतें और न जाने क्या क्या-क्या? और सच भी यही है कि इन्हीं हसरतों के बीच हम अपने आप को खोए पाते हैं और खो भी देना चाहते।
लेकिन, बावजूद इस कदर की बातों से तुम्हें क्या मिलेगा साहिल…?
तसल्ली, इत्मीनान, सुकून…
इस तसल्ली, इत्मीनान और सुकून से क्या होने-जाने को है?
क्या होना, क्या जाना से मुझको कोई लेना-देना नहीं। मुझे तो इतना ही चाहिए… बस, सिवा इसके मुझे किसी की जरूरत ही नहीं।
बट, तुम जो इस कदर मुझको समझा रही हो, इसके पीछे भी कोई किंतु-परन्तु या फिर जीवन नहीं न है?
है, बिल्कुल ही है। इस बात का एहसास तुम्हें हुआ क्या?
जी, न। एहसास नहीं अंदाज है, अंदेशा हुआ।
देखो साहिल अंदाज कुछ और भी हो सकता है, लेकिन अंदेशा का होना अलग है।
देखो, हर वक्त सवाल और जवाब ठीक नहीं होता।
अरे, बाबा। ये न कोई सवाल है और न ही कोई जवाब। ये तो सिर्फ कन्वर्सेशन है। और जीने के लिए यह जरूरी है। बिना कन्वर्सेशन के एक दूसरे को समझना या खुद को समझाना बड़ी मुश्किल है।
हर वक्त नेगेटिव बातें इंसान को डिप्रेस्ड कर देता है साहिल। कभी-कभी इंसान को जीने के लिए न चाहते हुए भी चाहना पड़ता है।
लेकिन, उस चाहत को जीना नहीं कहते।
फिर क्या कहते हैं?
बस…, यूँ ही मौत की भांति जीना।
नहीं, इसे भी जीना ही कहते हैं। केवल चाहत भरा जीवन ही जीना नहीं है। जीने का मतलब ही किसी और की खातिर जीना। चाहे वह किसी का भी क्यों न हो?
किसी का मतलब?
जी, किसी के लिए भी। कभी -कभी कोई अपने औलाद की खातिर जी लेता है, तो कभी-कभी अपने परिवार के लिए तो कभी खुद के लिए भी इंसान जी लेता है। मकसद केवल जीना होता है।
फिर भी मगर तुम मुझे कहीं अलग जगह ले जा रही हो, ऐसा लगता है।
यही चीज मुझको भी लग सकता है, लेकिन मैं कहाँ सोचती? अरे, बिना वजह की ज्यादा सोचना वेवकूफी है।
और वजह की ज्यादा सोचें तो?
नादानी…
क्यों…?
इसलिए, क्योंकि ‘सोचने से कोई राह मिलती नहीं यारो, चल दिये तो रास्ते निकलते गये’।
अच्छा जी, एक चीज तुम बताओगी?
क्यों…?
यूँ ही जानना चाह रहा था।
क्या…? कौन सी चीज जानने की जरूरत पड़ गयी और वह भी इजाजत लेने के बाद पूछने की?
जी, कभी-कभी जरूरत पड़ जाती है कि इजाजत ले लूं।
जी, अगर इतिहास बनाना हो तो पहाड़ों को काटना ही पड़ेगा और अगर इतिहास दुहराना हो तो नक्शे-कदम पर चलना ही पड़ेगा और अगर इतिहास पढ़ना हो तो रोमिला थोपर की पुस्तकें लेनी ही पड़ेगी। बावजूद इसके इतिहास का भी अपना खुद का इतिहास होता, इनसे इनकार नहीं किया जा सकता।
देखो साहिल, इंसान की जिंदगी में जाने-अनजाने कम से कम दो रास्ते आते हैं जब उसे खुद-ब-खुद एक रास्ता चुनना पड़ता है। थोड़ी-सी चूक अगर उस रास्ते को चुनने में होती है तो उसे उस मुकाम तक पंहुचा देता है, जिसकी वह कभी कल्पना भी नहीं कर चुका होता। इसके विपरीत अगर सही रास्ता चुन लेते तो उसे उसकी मनचाही मंजिल तक पहुंचा देता, जिसकी उसे तमन्ना बरसों से हो चुकी होती है।
लेकिन यह कैसे पता चलेगा कि कौन-सा रास्ता सही है?
जी, बिल्कुल…। वे रास्ते जिसपे कदमों के निशान हों, साफ सुथरा हों और दूर-दूर तल्क दिखाई पड़े, साधुजन कहते हैं सामान्य होते हैं। और वे रास्ते जिसपे किसी के कदमों के निशान नहीं होते, संकीर्ण और दूर तल्क दिखाई न पड़े, असामान्य और दुर्गम होते हैं। अब चुनना पथिक को होता है कि वे किस रास्ते अपनी मंजिल तय करना चाहते, किसी के बनाये रास्ते पर या फिर खुद के बनाये रास्ते पर?
ओह, फिर तो जीतन मांझी बनना पड़ेगा।
ओह, ऐसी भी जरूरत पड़ने लगी?
हाँ जी…, जरूरत को भी कभी जरूरत पड़ जाती है, जैसे नदी को भी कभी प्यास।
और हाँ, यह भी कह दो कि महासागर को भी…
जी, हो सकता है, उसे भी प्यास लगे, जिसकी जानकारी हमें न हो।
जी, अब समझ में आया कि तुम क्या हो? तुम्हारे अंदर कौन सी प्रतिभा है?
ओह! इतनी देर बाद? अरे इतनी देर में तो हम बहुत दूर तल्क निकल चुके होते।
मतलब?
जी, मतलब ये कि तुम दिमाग से पैदल हो। कभी-कभी समझकर भी नहीं समझ सकते।
फिर तुम ही समझा देती तो क्या हो जाता?
बहुत कुछ….
क्या बहुत कुछ?
यही कि इंसान को अपने लक्ष्य के प्रति संकल्पबद्ध होने चाहिए। और हर हाल में अपनी जीवन-शैली के साथ जीने का तसव्वुर होना चाहिए।
तुम इस कदर बातें कर लेती हो, फिर एक प्रोफेसर क्यूं नहीं बन जाते?
इतने आसान नहीं होते प्यारे…
पता है, आसान नहीं होता। बट, यह भी मालूम है कि कोई भी काम मुश्किल भी नहीं होता सिर्फ और सिर्फ लग्न, मिहनत और समर्पण जरूरी होता है। और यह जज़्बा इंसान को मनचाहे मंजिल तक पहुंचा देता है।
और यह जज़्बा तुम्हारे अंदर है। मैं देख भी पा रही हूं।
ओह! तुम्हारी आंखों में इलेक्ट्रोमिक्रोस्कोप है, पता ही न था।
पता तो तुम्हें और भी कुछ नहीं है।
मिन्स…?
मिन्स साफ है। दिल एक दरिया के समान होता और इसकी गहराई काफी अधिक होती।
फिर भी समंदर नहीं न कह सकते इसे?
बिल्कुल नहीं। अच्छा, इसका मतलब दरिया और समंदर अलग होता।
हद हो यार। ये भी नहीं मालूम, ओहो। सुन…। निदा फाजली को….
“मंजिल के आगे की मंजिल तलाश कर
मिल जाये तो समंदर तलाश कर”
थैंक्स डियर, समझ गई।
बावजूद इसके एक बात हमेशा माइंड में हंट करते रहता है कि आखिर तुम चाहते क्या हो?
क्यों कह देने से तुम पूरी कर दोगे?
देखो, यह कहना तुम्हारा ठीक नहीं है। यह तो एक तरह का प्रॉमिस हो गया और दोस्तों में प्रॉमिस नहीं होता।
फिर क्या होता है?
दोस्ती में यकीन होता है जो भरोसे पर टिका होता है। प्रॉमिस तो तुच्छ होती है, जो सन्देह और अविश्वास के बीच होता है। दोस्ती में सभी बड़ी बात होती है और वह है डेडिकेशन, यानी समर्पण।
एक बात कहूँ सलेहा?
बिल्कुल कहो, एक से ज्यादा ही कहो।
क्यों…?
इसलिए, ताकि बाद में न कह पाने का कोई मलाल न रह जाये।
तुम भी न….
क्या?
कुछ नहीं।
कुछ अगर है तो कह दो। आई हेव नो एनी ऑब्जेक्शन।
या, आई नो, इट मोर देन एनफ।
माई गॉड…, यू बिगन टू…
नो माई डियर।
देखो सलेहा, मैं तुमसे एक बात शेयर कर रहा हूँ, उम्मीद है तुमको पसन्द आ जाये और मुझे इत्मीनान।
अच्छा जी, बिल्कुल बोलो।
जी, कहते उसने शुरू कर दिया था।
जिंदगी क्या है, नहीं मालूम, लेकिन मेरा मानना है कि जिंदगी एक उलझन का नाम है। इस उलझन में जाने-अनजाने इंसान को उलझना ही पड़ता है। यह उलझन इतनी बड़ी और इतनी महीन धागों से बनी होती है कि थोड़ी-सी चूक से धागे नहीं खुलते और किसी काम के नहीं रह जाते।
जिंदगी एक अजीब किस्सा भी है, जिसे हर कोई अलग-अलग तरह से इसे पेश करते हैं। जिन्होंने जिंदगी को एक खुशी के रूप में पाई या गुजारी उनके लिए जिंदगी की परिभाषा या जिंदगी के प्रति नजरिया अलग होता है वनिस्पत उनके, जिन्होंने जिंदगी को गम में पाया और इसे आंसुओं में गुजारा। हर सामने वाला एक-दूसरे को देखकर यह सोच बैठता है कि वह उनसे बेहतर है, हो सकता है उनकी सोच बहुत दूर तक सही भी हों, लेकिन यह हमेशा सही भी नहीं होता। कभी-कभी आग को भी गर्मी और ताप की जरूरत पड़ सकती है और पानी को भी ठंढक और नमी की।
बट, ऐसा भी है न कभी-कभी तुम्हारी बात मुझको नहीं पचता।
क्यूं…? कौन सी बात अपच हो गई?
यही कि आग को भी गर्मी और पानी को भी ठंढक की जरूरत पड़ती है।
जी, सलेहा, मैंने ऐसा नहीं कहा।
हद हो यार। ऐसा ही तो कहा।
नहीं, मैंने यह कहा कि कभी-कभी जरूरत पड़ सकती है।
हां बाबा, तो इसी को क्लीयर कर दो न।
जी, जब आग की तपिश कम होने लगती और उसे हल्की हवा भी उड़ाने लगती तो उसे गर्मी और ताप की कमी महसूस होने लगती है और हां उसी तरह जब पानी में ठंढक घटने लगती तो उसके अंदर की जंतुएँ घुटन महसूस करने लगती तब उसे भी नमी की जरूरत पड़ने लगती है।
हां, ये तो है। बट, यह तो दर्शन से रिलेटेड है।
कोई दर्शन-वर्शन नहीं होता या फिर किसी भी चीज की गम्भीर चिंतन ही दर्शन है, जो नेचुरल भी है और यूनिवर्सल भी।
तुमसे बातों में सकना मुश्किल है।
सो क्यों?
ऐसा इसलिए क्योंकि तुम तो तुम हो।
मतलब…?
सब का मतलब नहीं पूछा जाता।
ओहो… कुछ ज्यादा ही स्मार्ट बनने लगे।
तो, तुमको ब्यूटीफुल कह दूं?
नहीं… बिल्कुल नहीं।
क्यों…?
जो ब्यूटीफुल है नहीं उसे क्या कहना।
इट मिन्स यू आर नॉट ब्यूटीफुल?
नो… आई एम नॉट।
बट, व्हाई?
इट्स सो कि मैं हर कार्नर से एट्रेक्टिव नहीं हूं।
तो ब्यूटीफुल किसे कहेंगे?
एट्रेक्टिव फ्रॉम आल कॉर्नर।
और एट्रेक्टिव फ्रॉम वन कॉर्नर?
जी, उसे स्मार्ट कहेंगे।
थैंक्स…
जी, अच्छा लगा।
अच्छा सुहेल कुछ अच्छी बात, आई मीन लाइफ के इवेंट्स सुनाओ न।
कहाँ से शुरू करूँ…? समझ में नहीं आता।
मैं बोलूं? तुम मान जाओगे?
कोशिश तो जरूर करूँगा।
प्रोमिस…
अरे प्रोमिस तो कमजोर किया करते हैं।
और तब इंटेलेक्ट क्या करते हैं?
भरोसा, यकीन, कर्म और …
और क्या…?
उम्मीद।
तो फिर चलो भरोसा भी किया और यकीन भी।
सच…
कभी झूठ भी बोला क्या?
पता नहीं…
मिन्स…?
मुझको नहीं पता …
व्हाई सो…?
जो इंटेलेक्ट होते हैं, इतने इंटेलीजेंट होते हैं कि पता ही नहीं चलने देते कि क्या सच है और क्या सच नहीं है।
इसका मतलब मैं झूठ भी बोलता हूं…
ये मैंने कहाँ कहा।
फिर क्या बोली?
मैंने तो ये कहा कि सच भी नहीं…
इसका तो यही मीनिंग हुआ न…?
हाऊ…?
अगर मैं यह कहूँ कि दिन नहीं है तो इसका मीनिंग यही हुआ न कि रात है…?
बिल्कुल नहीं।
क्यूँ…?
दिन नहीं का मतलब शाम भी हो सकती है, अंधेरा भी हो सकता है।
देखो सलेहा, मुझको डायलॉग अच्छा नहीं लगता। मैं सुनकर बहुत भावुक हो जाता हूँ। और फिर न चाहते हुए भी वहीं पहुंच जाता हूं, जिससे उबरने के लिए मैंने क्या-क्या नहीं किया। मंदिर, मस्जिद, गिरजा, दरगाह तक में अपनी हाजिरी दी। सच कहूं सुहेल, आज मैं तुम्हें पाकर बहुत खुश हूं… बहुत ही। तुम मुझे कुछ देर के लिए बुरा और जिद्दी भी समझ सकती हो, बट मैं बुरा नहीं हूं। तनिक भी नहीं।
ऐसा तुमने कैसे सोच लिया कि मैं तुमको बुरा समझता हूं।
अरे यार, ऐसा है न, जब इंसान की जिंदगी में कोई बड़ी घटना, बड़ा हादसा हो चुका होता है तो सामने वाले को देखने पर फिर वही घटना आंखों के सामने नाचने लगती है और वह अपने आप को काबू में नहीं रख पाता।
लेकिन, साहिल तुम तो ऐसे लगते नहीं हो।
जी, सलेहा, हर चेहरे की मुस्कुराहट सच नहीं होती।
हां, सच नहीं होती…
तो क्या, तुम सुनना चाहोगी, चाहत बनती है?
जी, ऑफकोर्स।
बट, एक इल्तिजा होगी। अगर मान जाओ तो मेहरबानी और न मानो तो शुक्रिया।
मुकम्मल कोशिश करूंगी, मान जाने की।
हूं कहते साहिल ने कहना शुरू कर दिया था –
यह मेरी जिंदगी की पहली इम्तेहान थी। अभी-अभी ग्रेजुएशन पास आउट हुआ था और सिविल सर्विसेज का पहला एक्जाम देने इलाहाबाद जा रहा था। ट्रेन में बेतहाशा भीड़ थी। सभी बोगी में लड़कों के होने की आवाज आ रही थी। कभी कॉमेंट तो कभी रिजर्व सीट पर बैठ जाने की बहस। किसी की परवाह किये बिना यत्र-तत्र बैठे सोये थे प्रायः परीक्षार्थी। मैं भी उस भीड़तंत्र से अलग नहीं था। यकायक देखा कि एक लड़की जो मेरे ही बर्थ की बाईं ओर बैठी थी रह-रहकर ऊपर की लाईट की ओर देख रही थी।
वह कुछ कह नहीं पा रही थी, बट मुझको लग रहा था कि उसे ऊपर की लाइट से आंख में रिफ्लेक्शन हो रहा था और वह अन-ईजी फील कर रही थी। मैंने अपनी आंखों की पलकों को ऊपर करके देखा, फिर उनकी आंखों की तरफ देखा तो महसूस हुआ कि वह लाइट को ही ऑफ करने को कह रही हो। मैंने ऑफ कर दी और फिर पहले की ही तरह खड़ा रहा। हर इंसान एक जैसा नहीं होता और न ही हर सिचुएशन एक सा। कभी कभी छोटी छोटी चीजें भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती हैं। वह अनजान लड़की मुझे एक बार फिर देखी, शायद मेरी मजबूरी समझ पा रही थी। अपनी सीट पर बैठी कुछ जगह बनाई और मेरी ओर देखकर बनाई जगह की तरफ आंखें तिरछी कर दी। मैंने अपना बैग कंधे से उतारा और बैठना चाहा, तो देखा कि वह और भी अधिक जगह दे दी। मैं औपचारिकता को भूल गया और थैंक्स भी नहीं बोल पाया।
मैंने महसूस किया कि वह अनजान लड़की एक शालीन स्वभाव की थी और संस्कार उनके अंदर था। मेरे मन में अनेक प्रकार की बातें आ-जा रही थीं और मन और ह्रदय के बीच अंदर ही अंदर डिबेट चल रहा था। कौन है, कहाँ से है, क्या करती है, कहाँ जा रही है। और भी बहुत कुछ…।
कहते हैं माँ के गर्भ से पैदा लेनेवाले रिश्ते औपचारिक होते हैं और धरती पर पनपनेवाले रिश्ते अमर हो जाते हैं, जो अनायास ही अपने व्यवहार, आचरण और समय की अनुकूलता से बंध जाते। आज यही सब और इसी तरह की बातें मेरे मानस-पटल पर प्रतिबिम्बित हो रही थीं। मुझे टी.एस. इलियट की प्रुफरोक वाली पोएम भी याद आने लगी थी, जिसमें रीयलिस्टिक सेल्फ और इमेजिनेटिव सेल्फ आपस में बातें कर रही होती है और कवि कल्पना के पंख लगाए बहुत दूर निकल चुके होते हैं। साथ ही “द स्कारलेट लेटर” की हेस्टर पराईन की वह स्थिति जिसमें जंगल की शाम के वक्त अपनी बांयी हाथ बढ़ाने के पूर्व की हो चुकी होती है। गाड़ी आहिस्ता-आहिस्ता अपनी गति की रफ्तार में थी। मैं सोचा उसे कम से कम थैंक्स कह देना चाहिये था, ताकि उसे भी सोलेस मिलती। बहुत साहस जुटाने के बाद मैंने हल्की आवाज में उनसे पूछा – मुझे जगह देने पर आपको दिक्कत तो नहीं हो गई?
नहीं, ऐसा कुछ नहीं। अरे ये तो सफर है, अपनी जगह थोड़े ही है।
फिर भी, आपका तो रिजर्वेशन है न?
जी, बिल्कुल। ये तो खुद व खुद सोचनी चाहिए। बट, लाचारी भी कोई चीज होती है।
जी…, आप बहुत समझदार हो।
न, न इसमें समझदारी और अक्लमंद की क्या बात।
जी, फिर भी…
नथिंग, ये सब ।
या, आई फील…
वैसे आप भी एक्ज़ाम दोगे?
जी…
क्या चीज का एक्जाम है?
नेट जे आर एफ
ओह, विशिंग यू द बेस्ट।
थैंक्स अ लॉट – कहते मैं हल्का महसूस किया।
क्या?
मैं आपको जानता-पहचानता नहीं हूं। आप किस शहर से बिलोंग करती हैं। माफ कीजियेगा। मुझको अदब व एहतेराम से आपसे ये बात कहनी थी, लेकिन यूँ ही बोल गया।
जी, नहीं। फेस इज द इंडक्शन ऑफ मेन। एव्री थिंग इज ऑन द फेस। सब कुछ चेहरे पर लिखा होता है।
बट, चेहरे ने लाखों को लूटा, यह भी तो एक बात है।
बिल्कुल है, लेकिन अपने-आप को किसी के सामने सही साबित करने का मात्र एक जुमला।
आप किस सब्जेक्ट से हो?
जी, इंग्लिश से।
जी, गुड। शेक्सपियर ने मैकबेथ में लिखा है – “एवेरी मैन्स फेस इज अ ओपन बुक, व्हिच मेन मे रीड”।
यस, मे बी।
जी, तो यह बात इसलिए कह रही थी क्योंकि इंसान की पेशानी बहुत कुछ बता देती है, फ़क़त जरूरत होती है, इसके अध्ययन की। कीरो ने ऐसा ही किया। विश्व के महान से महान लोगों की हस्तरेखा और क्रूर से क्रूर और हत्यारों के हाथों की वर्षों तक अध्ययन किया, फिर जो समानता और जो विभिन्नता उसने पाई, उसी को पुस्तक के रूप में लाया और फेमस हो गए।
इसकी जरूरत नहीं थी…
जी, मैंने सर झुकाते हूं कर दी।
कुछ देर बाद उन्होंने पूछा, अच्छा नेट के बाद क्या करेंगे आप?
अगर मिल गया तो जॉब…
और नहीं मिला तो?
देखूंगा, कोई ऑप्शन।
ओ, मेरी एक बात मानेंगे आप?
जी, बट…
जी, शुक्रिया फोर।
अरे, ये फोर कहाँ से आ गया?
पहले से दो तो था ही फिर स्टेट का एक और बिरादरी के एक कुलमकुल तो फोर ही हुआ न?
तब तो और एक कह ही देना था।
क्या…?
दिमाग पे जोर लगाओ क्या छूट गया।
वन मोर, यस… तुम भी और मैं भी।
हंड्रेड। समझदार हो।
जी, इंटेलिजेंट भी।
सो कैसे…?
बोथ आर अनमैरिड।
ऑफ कोर्स।
बट…,
जी, मुझको मालूम है कि आप मेरे बारे में जानना चाह रहे होंगे। तो मैं एक सिंपल गर्ल हूं। सोसिओ से जे आर एफ हूं। फिलवक्त वैकेंसीज नहीं आने की वजह से अपना एक कॉलेज चलाती हूं। बस, यही मेरा परिचय है। बाकी मेरा नाम शबनम आरा है। बट, आरा से बिलोंग नहीं करता हूँ। मैं सिमडेगा, झारखण्ड की रहनेवाली हूँ।
शुक्रिया।
शुक्रिया किस बात की?
दो बातों की… पहला तो ये कि आपने मुझको जगह दी, उसका शुक्रिया, फिर आपने अपना डिटेल्स दिया, उसका शुक्रिया।
फिर तो आपने ग़लत कर दी। आपको शुक्रिया, शुक्रिया कहना चाहिए था या फिर शुक्रिया स्क्वायर।
जी, लर्निंग में हूं। सीख जाऊंगा।
ओहो, तब तो ठीक है। कुछ अपने बारे में बताना चाहेंगे आप?
जी, मेरे पास बताने का कुछ भी नहीं है सिवाय मेरे नाम के।
हद हैं… फिर पता तो होगा ही न?
जी, मैं साहिल के नाम से जाना जाता हूँ। झारखंडी हूं। देवघर डिस्ट्रिक्ट के मधुपुर सबडिवीजन का रहनेवाला हूं।
चलो तब तो ठीक है। अल्लाह का शुक्र है कि दोनों एक ही स्टेट और एक ही बिरादरी के हैं।
कहते हैं दोस्ती खुदा के घर से तय होकर आती है, जिसकी जानकारी किसी को नहीं होती और न ही किसी का किसी पर थोंपी जा सकती है। यह तो नेचुरल होती है। आज साहिल को यह बात यकीन होने लगा था कि इंसान की किस्मत भी कोई चीज होती है, इन हाथों की लकीरें भी कुछ अजीब होती। पता नहीं, कब किसे किससे रिश्ते बना देते, यही सोच आंखें नीची किये दूर तल्क सोचता जा रहा था कि शबनम ने कहना शुरू कर दिया – जानते हैं साहिल जी, इंसान को कभी भी निराश नहीं होना चाहिए। क्या पता निराशा के बाद ही आशा का जन्म हों। फिर रिज्क तो अल्लाह के हाथ है।
जी, शब्बू….
अरे, तूने यह क्या कह दिया?
कोई भूल हुई क्या? और आपने भी क्या कह दी…
पहले तुम बताओ कि मैंने क्या कह दिया।
कुछ नहीं, यही शब्बू… पता है घर में सभी मुझे शब्बू ही कहके पुकारते हैं। सुनकर अपनेपन का एहसास हुआ। और अब तुम बताओ मैंने क्या कह दिया।
नहीं, कुछ नहीं। नथिंग….
बट, तुमने तो कहा था
जी, आपका जवाब मिल गया।
सो कैसे?
जी, आई गोट माई आंसर।
ओह…, तो तुमको भी…?
जी, पता है, क्या बोलेंगी?
क्या…?
यही कि मुझे भी आपको तुम ही कहना चाहिए यही न?
यस, हंड्रेड परसेंट, एबसूलटली…
गाड़ी रफ्ता-रफ्ता बढ़ती जा रही थी, और शाम भी अपनी चादर फैला रही थी जैसे उसे भी ऊंघ आ रही हों। बाहर खिड़की के छेद से रह-रहकर हवा अंदर आ-जा रही थी, मानो अंदर की भीड़ भरी दृश्य को झांकना चाह रही हों। ठंडे का मौसम। दिसम्बर का महीना। वाकई एक सुहावना, बट ठंड के यौवन का महीना। शब्बू की सीट खिड़की के किनारे की थी, जहां से हवा आ रही थी। कई बार ऊपर करके फिर से लगाने की कोशिश करने के बावजूद भी ठीक से नहीं लग पाई थी। साहिल ने धीरे से कहा – शब्बू जी, तुम थोड़ा इस पार आ जाओ।
क्यों…?
यूँ ही…
शब्बू अब खिड़की के इस पार थी। साहिल ने अपनी दाईं हाथ को खिड़की में टेक लगाकर बैठ गया। अब हवा अंदर नहीं के बराबर आ पा रही थी। धीरे-धीरे शीशे पर माथा को रखते साहिल को नींद आ गई। बीच-बीच में गाड़ी के रुकने पर आंखें खुल जाती। देखता, शब्बू भी गहरी नींद में सो गई थी। एक अजीब किस्म का सिहरन साहिल महसूस करता जब कभी उनकी आंखें बीच-बीच में खुल जाती और शब्बू का दुपट्टा उनके पैरों से स्पर्श कर जाता। सुबह के अजान की आवाज सुन शब्बू नींद से बेज़ार हुई और मुंह-हाथ धोकर फ्रेश हो गई और अपनी ही जगह में बैठकर अल्लाह की नियामत और शुक्र की तारीफ दुवा के रूप में करने लगी। फिर फ़ारिक होकर धीरे से साहिल की पीठ को सहलाते बोली – उठो, साहिल, सुबह की अज़ान हो गई। देखो, बाहर देखो। साफ हो गया। जाओ, थोड़ा फ्रेश हो जाओ। हूं, मैं थोड़ी तैयारी कर लेती हूं। साहिल ने जब प्यार भरी बातों को सुना तो उसकी आत्मा के अंदर एक अनोखेपन का एहसास हुआ जाने लगा। बोली में इतनी मिठास वह बीमार पड़ने पर मां के मुंह से ही सुना था। कहते हैं अगर आज की मां बहनों की बोली में मिठास कायम हो जाये तो फिर जन्नत की तमन्ना बेकार है। साहिल अब फ्रेश होकर अपनी जगह था।
साहिल, तुम न बहुत ही अच्छे हो।
सो कैसे?
जी, बस वैसे ही।
फिर भी, कुछ तो रीजन होगी न?
हद हो यार, मैं तो यूँ ही बक दी। कभी-कभी ऐसा है न दिल को कुछ भा जाता है और बस बक देती हूं।
बट, तुम सच में बहुत ही नेकदिल और पाकीजा हो।
हूं, सच में। सच्ची।
तो…
फिर लो मुंह मीठा कर लो।
बस, इतनी थोड़ी सी… इससे काम चलने को नहीं है।
फिर, क्या चाहिए मेरे यार। बोल तो सही, सब कुछ हाजिर कर दूंगी।
सच में। सच्ची…
शब्बू झूठ नहीं बोलती और जब बोलती है तो इतनी बोलती है कि झूठ की भी बोलती बन्द हो जाती है।
हाँ, तो बोलूं…?
बिल्कुल शौक से, बेपरवाह, जितनी बोल सको…
जी, शब्बू तुम न बहुत ओपन माइंडेड हो। दिल करता है…
क्या…?
बस यूं ही बक दिया। मैं न पागल हूं, जो मन में आता बक देता हूँ।
ओ, थोड़ा पागल तो होना भी चाहिए।
हूं…, क्यूँ?
अरे ऐसे करके क्यूँ करते हो लगता है पता नहीं कौन सी बात बोल दी। अरे डालडा तुम न माइंड से स्लो हो।
डालडा…? इसका क्या मीनिंग हुआ।
बस यूँ ही बक दी। दिल किया।
अजीब हो तुम भी।
और तुम न…
क्या…?
अजीबोगरीब हो।
चल कुछ खिलाओगे या बातें ही बनाओगे।
न जी, खिलाती हुं। ये लो हलवा, काजू, बर्फी, पुस्ता, बादाम…
और…?
जी, बोतल… ये तो मैं खुद हुं।
अच्छा शब्बू, अब तो कुछ ही पल के हम मेहमान हैं। फिर तुम कहाँ, मैं कहाँ? जिंदगी सच में एक सफर है, एक यात्रा है, एक अनजान राह है…
सच्ची, जिंदगी एक सफर है सुहाना, यहां कल क्या हो, किसने जाना”।
जी, ये भी – “जिंदगी का सफर, है ये कैसा सफर, कोई समझा नहीं, कोई जाना नहीं”…।
अरे साहिल, तुम्हारी तो आंखें भर आईं।
नहीं तो…?
जी, साहिल, तुम इमोशनल हो रहे।
अरे हाँ, सोचक …
क्या सोचकर?
यही कि इंसान को अकेले ही रहना चाहिए। पहचान ही दुखदायी होता है।
ऐसा भी नहीं है। जब इंसान में जन्म लिए हो तो निभाना ही पड़ेगा। सुने हो न, जिंदगी अगर ज़हर है तो पीना ही पड़ेगा।
हूँ, शब्बू किसी चीज को कह लेना तो बहुत आसान होता है, बट झेलना बहुत मुश्किल होता है।
कहते गाड़ी कानपुर स्टेशन में लग रही थी। साहिल को लग रहा था कि काश उसका एक्जाम नहीं होता या फिर शब्बू भी कानपुर ही उतर जाती। कितना अच्छा होता। कुछ बातें भी होती और कुछ….।
उनकी आंखें नम थी। वह बार-बार शब्बू को देखे जा रहा था। ऐसा करके वह शब्बू की तस्वीर को अपनी आंखों में कैद कर लेना चाहता था। वह चाहता कि उनकी आंखें सिर्फ और सिर्फ शब्बू को ही देखे, शब्बू ही शब्बू रहे उनके मष्तिष्क में।
उधर, शब्बू की आंखें भी बहुत दूर तल्क जाकर रुक गई थी। वह भी कहीं न कहीं साहिल के न रहने की कमी महसूस कर रही थी। वह सोच रही थी कि उसे भी साहिल के एक्जाम भर कानपुर में रुक जाना था। शायद बातें आगे बढ़ जाती और एक अलग संसार बना पातीं, ऐसा संसार, ऐसी दुनिया जहां, गम की कोई जगह न हो। जहां खुशियां ही खुशियां हो। मगर वक्त ही इस कदर था कि जिसे पिंजड़े में बंद करना नामुमकिन ही नहीं, अपितु असम्भव था।
साहिल अब अपने घर मधुपुर में था। उनकी जिंदगी की यह पहली अप्रत्याशित घटना थी कि आज उसे लगने लगा था कि यह दिल जो उसके सीने में है केवल उसके लिए ही नहीं धड़कते बल्कि इस धड़कन पर किसी और का भी हक़ है। उसे महसूस हुआ था कि एक छोटी-सी मुलाकात किस कदर किसी के दिल पर राज कर सकती है, तब फिर उसके जिम्मे कंट्रोल यूनिट नहीं काम करने लगता है।
एक दिन अचानक शब्बू का फोन आता है।
जी, अस्सलामोलेकुम। मैं सिमडेगा से शबनम आरा बोल रही हूं। हां, तुम साहिल बोल रहे हो न?
वालेकुम सलाम। तुम शब्बू बोल रही हो?
जी, हां साहिल, कुछ अद्भुत लग रहा है क्या? अरे आज का समय अब बदल गया। फेसबुक सर्च किया फिर फ्रेंड सर्किल और फिर मेसेंजर में जाकर तुम्हारा नम्बर ले लिया।
बट, हां कुछ कॉलेज के काम में फंस गई थी। कैसे हो तुम? फिर तो ये काम तुम भी कर सकते थे?
बिल्कुल, शब्बू। ये बॉय और गर्ल की दोस्ती ऐसी होती है न कि कोई भी बॉय पहले किसी गर्ल से बात करना नहीं चाहता। क्या पता, कौन कब, क्या सोच ले। ये तो बस उस भूत की तरह होता जो अपना हाथ पहले दफा नहीं बढ़ाता।
हूं, ऐसा भी है। आखिर क्यों?
क्योंकि उसे डर रहता है कि पता नहीं क्या कर दे, क्या हो जाये।
तो, बताओ मैं तुमसे मिलना चाहती हूं। बताओ कहाँ मिलूं? और तुम्हारे घर के मालिक कौन हैं?
क्यों…? आधार कार्ड मेल कर दूं क्या?
तुम न हर बात को हल्के में लेते हो। अरे, समझते क्यों नहीं। मैंने तुम्हारे बारे में अपनी माँ को बोल दिया है। उसने हां कर दी है। अब्बू ने भी रजामंदी जाहिर की है। अब तुम बताओ भूत समझकर बाएं हाथ को आगे करने की जरूरत नहीं है न?
ओहो, बेचारा। अच्छा सुनो साहिल तुम न बहुत सुंदर हो।
कहना क्या चाहती हो साफ-साफ बोलो न।
जी, यही कि तुम स्मार्ट भी हो।
ओहो बाबा… तो इससे क्या?
बस, मैं तुमको पसन्द करती हूं।
तो करो न, कौन मना करता है।
तुम न… इसे नार्मल समझ रहे हो।
हद है यार, एब्नार्मल की बात को नॉर्मली ही लेना होता है।
इट मिन्स, आई एम एब्नार्मल।
तो…?
हाऊ…?
इतने दिन बाद फोन ढूंढकर बात करोगे, इतनी छोटी बात के लिए तो इसे एब्नार्मल ही कहा जायेगा न।
तुम लड़के न भाव खा रहे हो।
सो कैसे…?
ऐसे ही। पता नहीं कितनों की नजर मुझ पर थी, बट मैं किसी को चाहा नहीं और न ही चाहत पैदा की और आज जब दिल आया है तो…?
क्या…?
नहीं प्यारे, ऐसे नहीं होता। चाहत होना और दिल आना और चीज होती है, और किसी को जिंदगी भर चाहते रहना अलग बात है। फिर हर बात फोन पर नहीं होती।
ठीक है, मैं कल इसी नंबर पर कॉल करके बता दूंगा।
ओके, शुक्रिया…
बस कितने बताई नहीं।
ओह माई लॉर्ड! अब तक याद ह न?
तुम क्या भूल गई?
पता नहीं, कहते शब्बू ने फोन काट दी थी।
बट, मुझे भी अपने घर में बातें करनी होगी।
गजब हो। एंसीएन्ट हिस्ट्री हो क्या जी?
जी नहीं, जिस पेरेंट्स ने पढ़ाया लिखाया, तालीम व तहजीब सिखाई, उनकी रजामंदी तो जरूरी है न?
बिल्कुल, सौ फीसदी। इसलिए तो कह रही हूं, कब मिलूं और कहाँ..?
साहिल आज पहले की तरह खुश नहीं था। उनकी पेशानी पर हल्की ओस की बूंदों की माफिक पसीने थे। इससे उनकी परेशानी को समझा जा सकता था। वह सोचता आखिर किस कदर अपनी माँ को शब्बू के लिए राजी करे। घर के सारे सदस्यों को साहिल की ईमानदारी और नेकदिली पर नाज था। आज तक किसी से खुलकर मजाक भी नहीं किया था। अजीब किस्म का था वह। उसने सोचा पहले अपनी भाभी से बात करे फिर धीरे-धीरे अपनी माँ को बोले। यही सोच उसने अपनी तरकीब निकाल ली और कहना शुरू किया – भाभी जी, मैं तुमसे कुछ बात शेयर करना चाहता हूं।
ओह, बड़ी फुर्सत से लगता है आज शेयर करना चाह रहे हो।
हां भाभी जी, कुछ ऐसी ही बातें है।
ठीक है तो बोलो।
जी भाभी ऐसा है न इलाहाबाद एक्जाम देने हेतु जाने क्रम में मुगलसराय से डायरेक्ट ट्रैन किसी कारणवश नहीं थी। फिर लड़कों ने सोचा कानपुर ही चल जाये और फिर वहां से इलाहाबाद चले जाएं। फिर थोड़ी भीड़ भी कम हो जाएगी। बट, ऐसा नहीं हो सका। भीड़ काफी हुई। फिर मैं बर्थ में था उसी बर्थ में एक अनजान लड़की ने मेरी परेशानी देखकर अपनी ही जगह में बैठने को दे दी। बहुत शालीन थी वह और देखने से लग रहा था कि अच्छे परिवार से बिलोंग करती है।
ओह, गजब है जी। बड़ी जल्दी समझ लिए कि शालीन है, संस्कारी है और दुनिया की सबसे खूबसूरत परी है, ये भी बोल ही दो।
तुम न भाभी जी, अरे कुछ कहने भी दो।
अच्छा बाबा, चलो बोलो, कैसी थी मेरी देवरानी जी।
जी, भाभी जी नेट क्वालिफाइड है। अपना कॉलेज चलाती है। शबनम आरा उसका नाम है। सिमडेगा की रहनेवाली है। बहुत तेज है। और…. भाभी वह मुझको पसन्द करती है।
अच्छा जी, वाह! पूरी कुंडली निकाल रखे हो। तुमको पसन्द भी करती है और तुम…? तुमको भी पसन्द है ?
हाँ भाभी, मुझको भी होने लगी है।
ओह, अभी तक हुई नहीं है।
जी, न भाभी जी, मुझको पसन्द है। वह आना चाहती है तुमसे मिलने।
कहाँ पे?
यहीं, अपने घर मधुपुर।
अम्मी से बात हो गई।
नहीं…
तो फिर अब्बू से?
जी, न।
तो फिर रिश्ते ख्यालों में नहीं होते देवर जी, समझे। इसका भी एक स्पेशल फॉर्मेट होता है, प्रोसेस होता है, एरेंज मेरिज का अपना अलग इम्पोर्टेंस होता है।
अरे बाबा, वो तो केवल आना चाहती है, फिर तो जो कायदे या प्रोसेस है, उसी हिसाब से होगा।
फिर भी आने की वजह भी तो होगी न?
बोल तो दिया न।
जी, अस्सलामो अलैकुम। मैं शबनम आरा सिमडेगा से हूँ। और साहिल से मिलने आई हूं। अम्मीजान, साहिल मेरा अच्छा दोस्त है। हम दोनों की मुलाकात इम्तेहान देने के दरम्यान ट्रेन में हुई थी। इधर कई दिनों से उनका फोन नहीं लग रहा था, तो सोचा कि जाके अम्मी से मिल आऊं और मुलाकात भी कर लूं।
जी, वालेकुम सलाम बेटा, बैठो। अरे ये तो मेरी किस्मत है बेटा कि तुम जैसी पाकीजा मेरे घर पे आई हो। और बताओ बेटा, आने में कोई दिक्कत तो नहीं हुई।
नहीं, अम्मीजान, जहां आप जैसी अम्मी की दुआ रहेगी, वहां क्या कभी दिक्कत भी हो सकती है? बिल्कुल नहीं, फिर तो आज ऐप्प में सब कुछ होता है, कोई भी कहीं भी जा सकता है, जा सकती है।
ओहो, बेटा, सच में तुम न बहुत सुंदर हो।
हूं, सच्ची।
बिल्कुल बेटे, सुंदर केवल लोग स्किन के व्हाइट कलर से तय नहीं होते। अरे, जिनकी भावना, जिनके विचार, व्यवहार, आचरण सुंदर होते, असल में सुंदर वही होते। तुम कितने अच्छे विचार वाले हो बेटा। और हाँ बेटा, बोलो तुम क्या लेना चाहोगी?
क्यों अम्मी, तुम दे दोगे न?
बेशक, क्यों नहीं।
अम्मीजान तुम मुझे सिर्फ दो चीज दे दो। बस, मैं इसी में अपने को धन्य समझूँगी।
ठीक है, तो बोलो बेटा।
जी, अम्मी। एक तुम्हारी दुआ और…
और दूसरा…?
थोड़ी महंगी है, बट, मुझको उम्मीद है कि तुम दे दोगे।
बोलो तो बेटा…
जी, दूसरा तुम्हारा साहिल…
ओह, उसे क्या करोगी बेटा, बेरोजगार है, पढ़ाई खत्म करके बिल्कुल अपाहिज हो गया है।
इसलिए तो आई हूं। मेरा अपना कॉलेज है और वहां इंग्लिश का कोई टीचर नहीं है। मैं चाहती हूं कि एक उचित पगार में साहिल को रख लूं। फिर जब स्टूडेंट्स की संख्या बढ़ेगी तो पगार भी बढ़ता चला जायेगा।
लेकिन…?
जी, मुझको पता है, कोई गवर्नमेंट जॉब होने पर छोड़ दे सकते हैं। कोई टर्म-कंडीशन नहीं।
ओहो, तब तो ठीक है। अरे जानती हो, मैं तो डर गई थी।
क्यों…?
यही सोचकर कि कहीं साहिल के….
ओहो, अम्मी। तुम भी न…।
सच्ची। मैं तो सोची कहीं हाथ तो नहीं मांग लोगी।
उहुँ। ही ही ही… अगर मांग भी लूं तो क्या? मैं भी तो मुस्लिम हूँ। बिरादरी भी हूँ। और… बालिग भी। फिर दिक्कत क्या?
जी, बेटे, तब तो मेरी किस्मत ही बदल जाएगी। बेटा को भी नोकरी, बहु की भी नौकरी…
अब काहे को उठाऊं टोकरी।
हूं, सच में अम्मी, तुम न बिल्कुल मॉडर्न हो। और ओपन माइंडेड भी। कितने खुले हैं तुम्हारे दिल।
ओह, इसलिए तो तुम जैसी बहु मिली हो।
जी, अम्मी। दीदी कहाँ है?
अरे, ओ बिंदी सुनती हो। अरे जरा इधर भी तो देखो। हूं, यह कहाँ से आ गई और तुम हो जो अभी तक आई नहीं।
लेकिन अम्मी…
हाँ, इसका निक नेम है बिंदी। ऐसे इसका नाम सायरा है। बट, शुरू से ही इतनी सज-धजकर रहती है न कि घरवाले इसे बिंदी कहना शुरू कर दिए और यह बिंदी के नाम से ही फेमस हो गई।
सच्ची अम्मी। मुझको भी यह नाम बहुत पसंद है।
देखो, कहते ही आ गई।
जी, स्लामो अलैकुम।
व आलेकुम सलाम। कैसी है?
बिल्कुल ठीक। अल्लाह का करम है। और तुम…?
बस अल्लाह की मेहरबानी है। आप जैसी मोहतरमा की दुआ है।
जजाक अल्लाह।
जाओ बेटा, बिंदी शब्बू को अपने कमरे ले जाओ।
जी, अम्मी।
चलो, शब्बू। बहुत प्यारा नाम है।
न, दीदी। आपसे कम।
क्यूँ…?
सच्ची, अगर नाम का म्यूच्यूअल होता तो बदल लेती।
क्या बात है!
जी, दी, बहुत प्यारा है – बिंदी।
अच्छा जी, तो फिर म्यूच्यूअल क्यों एकबारगी चेंज ही कर लो।
मुझको कोई एतराज नहीं दीदी।
अच्छा एक बात बोलूं, सच-सच बोलोगी न?
जी, कोशिश करूंगी। बट, पूरा वादा नहीं कर पा रही हूं।
ओहो, ऐसा भी है?
जी।
देखो शब्बू, साहिल मेरा देवर है। जी, बहुत ही सीधा और जेंटल। अभी कल परसों ही तुम्हारी चर्चा कर रहा था।
क्या?
यही कि तुम दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हो।
जी, उन्होंने सही कहा, दी। हम दोनों एक दूसरे को पसंद करते हैं, लेकिन इसका कोई गलत गुमान नहीं करना चाहिए। हम दोनों दोस्त हैं और दोस्ती को हमेशा-हमेशा के लिए सम्बन्ध में बदल देना चाहती हूँ, तो आप ही बताइए, कैसा रहेगा हम दोनों का यह डिसीजन?
बिल्कुल सही। अगर सच में एक दूसरे को समझने की सोच एकुव्ल है तो….
जी, दीदी। इकुव्ल है।
तो फिर इसमें कोई एब्स्ट्रकसन नहीं है।
क्या, अम्मी को मैं पसन्द हूं न?
जी, होना चाहिए। फिर जब साहिल को पसन्द है तो किसी की नापसन्द और ना-नुकुर करने का क्या महत्व है?
फिर भी दीदी, पेरेंट्स आखिर पेरेंट्स होते हैं। उनकी रजामंदी में ही बरक़त है।
जी, तुम्हारी यह सोच बहुत ऊपर की है शब्बू।
जी, दीदी। काइंडली आप कोपरेट करेंगी।
मुझे इसके बदले क्या मिलेगा शब्बू जी?
जी, दीदी। आप जिससे खुश हो जाएं।
सच्ची…
हां, सच्ची।
फिर भी, मैं तो खुश तब होऊँगी…
कब…?
जब तुम मेरी देवरानी बनकर मेरे घर आओगी।
क्यूँ दी? ऐसा कैसे बोल दीं?
जी, शब्बू, आज तो ऐसा हो गया है कि निकाह हुई बस घरवालों से रिश्ता खत्म। पता चला चौथे पांचवें दिन मियां बीबी किसी भाड़े घर में रहना शुरू कर दिया है। फिर मां-बाप का सपना चूर।
बट, ऐसी मैं नहीं हूं।
अच्छी बात है, लेकिन आज अक्सर ऐसा हो रहा है।
जी, दीदी। इंसान चाहे कितनी भी ऊंचाई पर पहुंच जाए पर इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि उसके आधार जमीन पर होते हैं। मैं इस बात पर यकीन करती हूं कि सब कुछ करने के बावजूद भी एक इंसान को अपने वजूद नहीं खोने चाहिए।
जी, शब्बू, तुम ठीक कह रही हो, बट देखो यह विचार कितनी दूर और कितनी देर तक अपने प्रभाव में रहती है।
कहते बिंदिया शब्बू के काफी करीब हो गई थी। मन ही मन सोचती अगर आज साहिल घर पर होते तो कुछ न कुछ हो ही जाता। कितने खुशनसीब हैं साहिल कि उनसे मिलने एक गर्ल होके कहाँ से कहाँ आ गई। उसने कई बार फोन भी मिलाया, बट हर बार उसे नॉट रिचेबल ही रेस्पॉन्स आया। पता नहीं यह तकदीर भी अजीब होती है, किसको, कहाँ कब छोड़ आती, कोई नहीं जानता।
देखो, शब्बू, तुम जिस कदर एक लड़की होकर कर रही हो, यह उसूल के खिलाफ है। ठीक है – तुम पढ़ी लिखी हो, ओपेन माइंडेड हो, बहुत ही एडवांस और मॉडर्न हो, बावजूद तुम्हें इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि तुम एक समाज के सदस्य हो, जिस पर हर व्यक्ति की नजर है, उम्मीद है।
फिर क्या हुआ अम्मी?
क्या हुआ, तुम ये मुझसे पूछती हो। तुम खुद से पूछ लो न…। तुम कल रात कहां थीं?
ओह, मां तुम इसके लिए परेशान हो! अरे, मैं कोई दूध पीती बच्ची नहीं हूँ। मैं समझती हूँ। मैं कॉलेज चलाती हूँ। एक जिम्मेदार पद पर हूँ।मेरी अपनी मर्यादा है, अपनी प्रतिष्ठा है। मेरा अपना वजूद है। कैसे जीना चाहिए, कैसे रहना चाहिए अच्छी तरह समझती हूँ। अम्मी, तुम यह तनिक भी मत सोचो कि शब्बू आपकी माथे को नीचा कराएगी। अरे, मैं ही हूँ, जो समाज को एक सन्देश, एक प्रेरणा देना चाहती हूँ कि समाज के अन्य की तरह एक गर्ल भी जी सकती है, कुछ कर सकती है। आज कोई भी गर्ल मानसिक रूप से विकलांग नहीं है। आज वे भी पंछी की तरह आजाद है, स्वच्छंद है, उसकी भी दुनियां है, विस्तृत नभ है, क्षितिज है…
बस बहुत सुन ली बेटा। यह पी जी का कोई लेक्चर रूम नहीं है, जहां तुम स्पीच देती रहो, देती रहो।
यह स्पीच नहीं है, सच है, ट्रुथ है।
फिर भी हर सच, हर ट्रुथ सच नहीं होता।
ये क्या बोल दी अम्मी?
जी, बेटे, हर सच, हर ट्रुथ सच नहीं होता। मसलन यह सच है कि हर पुरुष को जन्म देनेवाली नारी है, यह सच है, ट्रुथ है, लेकिन यह सच नहीं है। सच यह है कि नारी अंडे सेंकने वाली पक्षी की तरह है, जो सिर्फ बच्चे को जन्म के लायक गर्मी देती है, वातावरण के अनुकूल खुद को तैयार करती है, बट सच यह है कि उस अंडे की उत्पत्ति मेल के द्वारा ही है।
तुम कहना क्या चाहती हो?
यही कि तुम्हारा अकेले में किसी के घर वह भी किसी जेंट्स के घर रात को रहना ठीक नहीं है।
कैसी बात करती हो अम्मी? ओह, किसी होटल के किसी कमरे में रात को अकेले रहना ठीक है, किसी पार्टी में रात भर एन्जॉय करना ठीक है, किसी मजलिस, किसी जलसे में रातभर रहना ठीक है, और…
और किसी दोस्त के यहां उनकी मां, बहन के साथ रात बिताना दुरुस्त नहीं है। नहीं चाहिए इस तरह की रूढ़िवादी परम्परा में मुझे नहीं जीना। नहीं चाहिए मुझे ऐसे नीच ख्याल के ऐसी सोच के साथ रहना। अरे अम्मी, तुम क्यों नहीं समझती आज जो भी क्राइम हम होते देखते हैं, उसमे एट्टी से अबोव परसेंट हमारी सामाजिक व्यवस्था की है, नीची सोच की है।
देखो, शब्बू, मपझको पढ़ाने की जरूरत नहीं। मैं बस इतना ही जानती हूं कि हर किसी को अपने दायरे में रहना चाहिए। फल तब तक महत्वपूर्ण होता, जब तक वह छिलके के अंदर रहता, छिलके के बाहर रहने वाले फल किसी के द्वारा नहीं खाने के बावजूद भी वह किसी के खाने लायक नहीं रहता, समझी।
जी, बट फल से किसी गर्ल का कंपेयर नहीं किया जा सकता।
किया जा सकता है, किसी का भी किसी से, बशर्ते कि उस कॉम्पीरिजन में कितनी समानता है।
देखो अम्मी, मेरा यह मानना है कि किसी पर नाहक कोई शक-सुबहा करना दुरुस्त नहीं होता, जब तक कि सच्चाई को नहीं जान ले।
फिर भी… ताड़ के पेड़ के नीचे जेठ की दुपहरी में दूध पीते देख लोग क्या समझेंगे, यही न कि ताड़ी पी रहा है।
बट, खुदा तो सब देख रहा है न?
वो अलग बात है, बेटा। कुछ भी कह लो मैख़ाने के इर्द-गिर्द घूमनेवाले को शराबी ही कहा जाता।
तुम कहना क्या चाहती हो?
यही कि तुम शादी कर लो, उम्र भी हो गई।
तो फिर किससे कर लूं?
किसी से भी। कम से कम समाज के उलाहने, ताने से छुटकारा तो मिल जाएगी न?
लेकिन, अम्मी। जिस किसी से शादी कर क्या मैं खुश रह पाऊंगी?
हां, बेटा। धीरे-धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा।
मुझसे नहीं हो पायेगा, अम्मी। मैं यूँ ही रह जाऊंगी बट, जो कन्सस अलाव न करे उससे जीवन भर किस तरह रहा जा सकता है।
समय सभी घावों को भर देता है, शब्बू।
कुछ घाव ऐसे भी होते, जिसे समय नहीं भर सकता। जैसे दिल का जख्म।इसे कोई भी समय नहीं भर सकता।
बातें बनाना छोड़ो।कल तुम्हारी शादी करा देती हूं।
कहाँ…?
यहीं नेहाल के भतीजे से।
ये नेहाल कौन हैं? औऱ इनका भतीजा कौन है?
आज जिंदगी में पहली बार शब्बू इतनी घबराई हुई थी। उसे लगने लगा था कि एक गर्ल होना कितना बुरा है। उसे कोई भी आजादी नहीं। कोई फ्रीडम नहीं। न वह अपने ढंग से जी सकती है और न ही जीने के तौर तरीके बदल सकती है। आज भी गर्ल को कमजोर और बेवकूफ ही समझा जाता। आज वह महसूस कर रही थी कि एक गर्ल का कुँवारी रहना कितनी समस्या को जन्म दे सकती है और टेंशन भी। नहीं चाहते हुए भी वह कितनी मजबूर हो सकती है। वह सोचती – नेहाल जो काला कलूटा है उसी के भतीजे से शादी…। वह भी काला, नाटा और पेटू होगा। उम्र जाती होगी। हां कहीं वही तो नहीं, जिसे उसने खाला के घर चालीसवीं में देखी थी?
उधर जब साहिल घर पहुंचा तो देखा कि उनकी भाभी और मां बाहर आंगन में बैठे इंतजार कर रही थी। इत्मीनान होने पर कहने लगी – जानते हो साहिल कल से तुम्हें कॉल लगाते थक गई। कभी नेटवर्क क्षेत्र से बाहर तो कभी स्विच ऑफ बताता। हद्द हो गई, कम से कम कहीं जाओ तो ये बता के जाना चाहिए न कि वापस नहीं आओगे। पता है, चिंता कितनी बढ़ जाती है।
अच्छा भाभी जी, इसके लिए सॉरी। ऐसे दरअसल बैटरी डिस्चार्ज हो गया था और नेटवर्क प्रॉब्लम भी था।
और हाँ, चलो पहले कुछ नाश्ता कर लो फिर बताती हूं।
हूं… क्या सस्पेंस पैदा कर रही हो?
बिल्कुल ही नहीं राजा जी।
ये राजा जी कहाँ से ले आई?
अरे बाबा, मैं क्यों लाऊं? वो तो खुद लेकर आई थी।
कौन लेकर आई थी?
ओहो, इतना भी मत बनो। मुझको क्या बेवकूफ समझ रहै हो?
बेवकूफ, वो भी तुम…? अगले बार जन्म लेना होगा।
हूँ… फुसलाने में माहिर। कोई सीखे तो तुम से सीखे।
सच…
तो क्या झूठ…?
जी, भाभी जी, बोलो। क्या हुआ?
कुछ नहीं। नथिंग। यही सिर्फ…
क्या?
यही कि कल तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी शब्बू घर पे आई थी।
यहां आई थी?
जी, और बहुत देर तक बातें करते रही। रात को यहीं थी।
ओह… सच में।
जी, कह रही थी कि उनके कॉलेज में तुम्हारी जरूरत है। अच्छा पगार मिलेगा।
और कुछ बोल रही थी?
जी, मां से काफी बातें की। माँ को शब्बू बहुत पसन्द आई।
और तुमको…?
उहुँ… मुझको जरा भी नहीं।
क्यूं…?
यूँ ही, मेरा मन।
ये कोई बात हुई। अरे कुछ तो रीजन होने चाहिए।
कोई रीजन, विजन नहीं। पसन्द नहीं, तो पसन्द नहीं।
फिर भी, कोई तो वजह होगी न भाभी श्री।
जी हां, वजह है। बट तुमको सच बोलना होगा।
जी, बोलो तो सही।
अच्छा साहिल ये बताओ इतनी सुंदर परी को तुम पसन्द कर रक्खे और मुझसे बोला तक नहीं।
नहीं, भाभी जी, मैंने तो कहा ही था।
न जी, तुम तो केवल ये बताये कि ट्रेन में मुलाकात हुई और बस….
तो क्या कहता कि दीवाना हो गया।
नहीं, इतना तो कहा ही जा सकता था कि परी है।
चुप रहो, तुम तो बेवजह की वजह खोज रही हो।
अच्छा नहीं बाबा, बस ये बताओ कि कब तक देवरानी बन आएगी।
बहुत ही जल्द इंशाल्लाह।
रब्बा खैर।
अम्मी क्या बोल रही थी?
यही कि साहिल की आंखें धोखा नहीं खा सकतीं।
हूँ…
जी….,
और क्या कह रही थी शब्बू?
उसी से पूछ लो न… मैं तो सिर्फ इतना ही कहूंगी कि बहुत ही नेक और तेज है। अल्लाह की स्पेशल मेहरबानी है कि तुमको शब्बू जैसी गर्ल से नवाजा।
अभी तो बहुत लेट है भाभी श्री।
कुछ भी लेट नहीं। जब वह खुद से चलकर एक गर्ल होकर आ गई तो तुम समझ सकते हो कि उसकी चाहत में कितना जुनून है, कितनी तरंगे हैं उनकी इस चाहते दरिया में।
जी, यह तो है।
फिर सब से खुलकर बातें करना, रात को रुक जाना और वो भी अकेली, यह दिखाता है कि कितनी साहसी, मॉडर्न और डिजायर्ड है।
हूं… तो अब मुझे क्या करना चाहिए?
कुछ नहीं, उसकी एक तस्वीर लेकर अपने स्टडी रूम में रोज सुबह शाम अगरबत्ती दिखानी चाहिए और क्या?
तुम भी न…
बोलो कुछ अडजेक्टिव है तो ऐड कर दो।
नो, भाभी जी। सच में बोलो न मुझको क्या करना चाहिए।
एक कैंडिडेट से इंटरव्यू में पूछा जाता है कि अगर सुनसान घनघोर जंगल में आप अकेले एक सिंगल रस्ते जा रहे हों और अचानक सामने से बाघ आ जाये तो आप क्या करोगे?
अभ्यर्थी जवाब देता है, मुझे क्या करना है, अब जो कुछ करगा बाघ ही करेगा।
ओहो, जी। बट यहां न बाघ है, न घनघोर जंगल।
बावजूद यहां अभ्यर्थी तो हो न जी! वेट एंड वाच। फिर भी फिलवक्त उससे कांटेक्ट करो। मीठी-मीठी बातें करो। उसकी तारीफ करो। हाल जानो। अपने न रहने की मजबूरी बताओ और फिर कब आएगी, खोज-खबर लो।
ओ… क्या मेरा उनके घर जाना ठीक रहेगा?
नहीं, बिल्कुल ही नहीं।
क्यों?
इसलिए, क्योंकि गर्ल की कभी भी खुशामद मत करो। उनकी खुशामदी से उनके अंदर घमंड आ जाती है और वह अपने आप को ओभर स्मार्ट समझने लगती है।
हूं… अच्छा…
जी। तुम चुपचाप वेट करो और बहुत ही बेचैनी अगर दिल में हो तो सीधे उनके कॉलेज में अपनी पूरी कागजात लेकर चले जाओ।
और कुछ नहीं?
जी, न। तुमको क्या साथ में काजी साहब को ले जाने का मन है?
नहीं, भाभी तुमको को हर बात पे मजाक ही नजर आता है।
उहुँ जी। तुम ही ने पूछा कि क्या करूँ, तभी तो मैं बताई।
जी, जैसी तुम्हारी मर्जी – कहते साहिल अपने कमरे के अंदर था। सोचता, कितना अच्छा होता शब्बू से मुलाकात हो जाती। मैं कितना बेवकूफ घर आये, घर में रुके अपनी शब्बू से भेंट नहीं कर पाया। कम्बख़्त ये दिल भी न अजीब खटमल है। लाख धूप दिखाओ खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। अब क्या करूँ?
रातें गहरी होतीं। चुप साहिल उठकर बैठ जाता। शब्बू की तस्वीरें आंखों में लाता। उनके साथ बैठे ट्रेन की हर बात उनके दिल को घायल कर देता। बोलने की अदा, सलीके और रिस्पेक्ट के तौर-तरीके सब कुछ उनके मष्तिष्क में बार बार आती रहतीं। सच कहा जाता रहा है कि लगाव जब चाहत में बदल जाती है तो सम्बन्ध और भी प्रगाढ़ हो जाता है। यह महज शब्बू के प्रति एक चाहत ही थी जो साहिल को बेताब कर देता।
बहुत कोशिश करने के बावजूद भी अब साहिल शब्बू को अपने दिल से हटा नहीं सक पा रहा था। हर वक्त उसे शब्बू की याद सताती। कभी-कभी उसे लगता कि उनसे मुलाकात न ही होती तो अच्छा था। एक छोटी सी मुलाकात इतनी बड़ी सजा दे देगा इसका गुमान उसे कतई नहीं था। उसके मन में हमेशा अपने से ज्यादा ख्याल और चिंता शब्बू की होती। एक दिन उसके दिल में आया कि जब एक गर्ल होकर शब्बू मुझसे मिलने आ सकती है तो एक बॉय होकर मुझे भी हर हाल उनसे मिलने जरूर जाना चाहिए, चाहे इसके लिए कोई भी बहाना क्यों नहीं ढूंढना पड़े। हालांकि वह बराबर उनको कॉल लगाता, लेकिन उनसे बात ही नहीं हो पाती। अब तो ऐसा हो गया था कि जब भी कॉल करता स्विच ऑफ का ही रिप्लाई आता। इससे वह मन ही मन घबरा जाता। श्वासें फूलने लगतीं, वह पसीने से तर हो जाता और बेचैनी बढ़ती ही चली जाती।
आज वह घड़ी थी कि साहिल शब्बू के कॉलेज में पहुंच चुका था। कॉलेज का क्षेत्रफल बड़ा था और पेड़-पौधों और फूलों से पूरी तरह सुसज्जित था। बाहर के गेट से लेकर अंदर तक के झब्बूदार पेड़ काफी मनमोहक और सुंदर थे। साहिल जैसे ही कॉलेज के अंदर पहुंचा तो उसे एहसास हुआ कि सच में यह कॉलेज उसके मनोनुकूल था, कारण विद्यार्थियों की तादाद काफी अच्छी थी और हर जनों में डिसिप्लीन बाहर से ही बिहेवियर में झलक रहा था।
बरामदे पर पहुंचा तो उसे एक अजीब किस्म का सिहरन महसूस हुआ। ऐसा लगा मानों यकायक कोई भूकम्प का झटका लग गया हो। कल्पना अपना पंख फैलाने लगी। सोचने लगा कितने खुशनसीब हैं वे कि अब उनकी कोई बेरोजगारी की समस्या नहीं रहेगी। एक अलग रिस्पेक्ट और अलग पहचान के साथ-साथ अलग एनवायरनमेंट भी मिलेगा। उनके दुःख और चिंता का समय खत्म हो जाएगा। पूछते-पूछते वह अपने डिपार्टमेंट के कमरे में गया। रूम साफ-सुथरा और वेरी अप तू डेट था। दीवार पर टँगी शेक्सपियर, मिल्टन से लेकर टेगौर की तस्वीर करीने से सुंदर लग रही थी। सामने रिवॉल्विंग चेयर जिस पर नया टॉवेल काफी मनमोहक था। फर्श पर बिछी टाइल्स का रंग भी मनमोहक था। अभी तक कोई सर लोग नहीं पहुंच देख वह बार-बार घड़ी की सुई को देखता जा रहा था। कहते हैं इन्तजार की घड़ी लम्बी होती है, एहसास कर रहा था। इतने में लूज ड्रेस पहने एक कर्मी का प्रवेश हुआ। उनके दाएं में बन्चेज ऑफ कीज थी। साहिल आश्वस्त था कि यह कर्मी उसी कॉलेज के फोर्थ एम्प्लॉयर होंगे, जो कमरे में था। उसने धीरे से पूछा – क्या आप बता पायेंगे कि शबनम मेम कब तक आती हैं।
जी, वे तो हर दिन नियत समय से पहले ही आ जाती हैं, लेकिन इधर चार-पांच रोज से नहीं आ रही हैं। सुना है कि मेम की शादी होनेवाली है। अब हो गई है या हो रही है, मालूम नहीं। फिर तो हम छोटे कर्मी हैं। छोटी मुंह बड़ी बात हो जायेगी।
तत्क्षण तो साहिल को ऐसा लगा कि गश खाकर गिर जाये। चेहरे पर अचानक मुरझान आ गई। टेबल पर नजरें गई तो गुलदस्ते के बगल एक सुंदर कार्ड रखा था। बहुत हिम्मत जुटाकर उसने कार्ड को अपने हाथ उठाया। देखा यह कार्ड शबनम आरा की ही शादी का कार्ड था। उसके पांव की जमीन खिसकने लगी। आंखों में अचानक आसुओं की बाढ़ उतर आई। भारी मन से धीरे-धीरे रूम से बाहर आने लगे। उसे यह होश भी नहीं रहा कि वह कहाँ जा रहा है और कहां आया है।
सोचते -सोचते किसी तरह घर आया। काफी थका-थका महसूस कर रहा था। अपने स्टडी रूम में गया और चुपचाप टेबल से सटे तख्ते पर लेट गया। उनकी आंखों के ठीक सामने एक वाल घड़ी टँगी थी। उसी को एकटक देखता रहा। अपलक उनकी आंखों में गर्म -गर्म आंसू थे, जो दोनों कोनों से बहते हुए कान के पास से ससर रहे थे। उसे बार-बार उनके साथ हुई तमाम बातें याद आ रही थी। कभी पछताता तो कभी खुद की बदकिस्मती को कोसता। यह जीवन भी क्या है? अनायास किसी से सम्पर्क बनता और अनायास ही किसी से सम्बन्ध टूट जाता। इस बनने और टूटने का वक्त तो क्षणिक होता, लेकिन इसका प्रभाव, इसका इम्पेक्ट जीवनभर यूँ ही ताजा रह जाता। सच में किसी को चाहना केवल चाहत नहीं होता, अपितु किसी को खोकर पाने की लालसा भी चाहत होती है, साहिल आज समझने लगा था
सुबह हुई। आज साहिल देर से उठा, कारण रातभर ठीक से नींद नहीं आई। मुंह हाथ धोकर जैसे ही फ़ारिक हुआ कि भाभी श्री चाय लेते आ गई और पूछने लगी -
क्या जी, मेरी देवरानी ने कितना खिला दी एकबारगी उठते आठ बजा दिए। देख लिए न जादुई असर। अभी तो आई नहीं है तब इतनी देर फिर आने के बाद तो लगता है हींग ही खिला देगी। चलो कोई बात नहीं। होता है, एक उम्र में। फिर तो बताओ मुहूर्त कब है?
नहीं… भाभी जी, दुर्भाग्य कभी पीछा नहीं छोड़ता। मेरी किस्मत ही खराब है। शब्बू की शादी हो गई।
क्या बोल रहे हो?
जी, मेरे जाने में देर हो गई। मैंने कार्ड भी देखा। उनकी शादी कल ही हो गई। इंसान भी कैसे-कैसे होते हैं। किसी की चाहत की जरा भी परवाह नहीं करते। जब चाहा, जिससे चाहे कुछ भी कर लेते। बहुत ही बुरा वक्त आ गया भाभी जी। अब कोई किसी पर भरोसा और यकीन कैसे करे? कैसे… कहते आज पहली बार जिंदगी में साहिल अपनी भाभी के पास सुबक-सुबक कर बच्चे की तरह रो रहा था। वक्त गुजर जाते हैं, लेकिन दिल का ज़ख्म नही गुजरता, यह हमेशा स्थिर रहता है, अपनी ही जगह। इंसान भले ही लाख उन्नति कर ले, मंगल ग्रह पर आशियाँ बना ले, दुनियां को मुट्ठी में कर ले, लेकिन किसी के प्रति किसी की चाहत को अपने काबू नहीं कर सकता।
जी…. तुम ठीक ही कह रहे हो साहिल। आज के युवा दिल लगाने को भी मोबाईल का गेम समझते हैं। जब चाहा, जब तक चाहा, इंटरटेन किया और फिर बैक होकर इंटरनेट के इंस्टाग्राम में बिजी हो गया। दिल, प्रेम, अनुभूति, एहसास, करुणा, त्याग, समझ, चाहत सब कुछ मृत हो चुका। स्वार्थ और रुपये के पीछे भागते इंसान का ज़मीर भी खत्म हो गया।
क्या करोगे साहिल… तुम इस बेपनाह चाहत को चुनौती के रूप में स्वीकार करो। हो सकता है, यही चुनौती तुम्हारी जिंदगी के स्वरूप बदलने का एक नया आयाम साबित हो।
फिर भी भाभी जी। कोरे कागज की तरह मेरी आरजू, मेरी तमन्ना को नेस्तनाबूद कर देना ठीक नहीं हुआ। कुछ भी हो, जिंदगी है, जी ही लूंगा, लेकिन जिंदगी की पहली चाहत के नाते ताकयामत भूल नहीं पाऊंगा और न ही कभी किसी की बातों पर यकीन कर पाऊंगा, कहते साहिल आपे से बाहर था।
दिन गुजरते गए। लम्हों की खता सदियों की सजा बन गई। बहुत दिनों के बाद शब्बू का एक स्पीड-पोस्ट साहिल के नाम आया। अंदर खोला तो देखा शब्बू अपनी तहरीर में कुछ अपनी दर्द बयां कर गयी थी – “साहिल तुम मुझे बेवफा मत समझो। तुम्हारे घर से वापस आने पर मेरे घरवालों को मुझपर शक हो गया। बहुत कोशिश करने के बाद भी मैं अपने आप को बचा नहीं पाई। सारे कनेक्शन को डिलीट कर दिया गया। मैं तुम्हारा बहुत इन्तजार किया। सोचा, तुम जरूर आओगे, पर मेरे दोस्त तुम आ नहीं सके। कम से कम एक बार तो आकर मिल लेते। जिंदगी की आखिरी ख्वाहिश मेरी पूरी हो जाती। मैंने बुरा भी क्या किया था कि तुम मुझको देखने तक नहीं आया, और न ही कोई मेसेज किया। ठीक है, आज से मुझे भी यकीन हो गई कि पढ़े-लिखे दोस्त से बेहतर एक नादान परिंदा होता है। कम से कम सामने नहीं देख आवाज तो लगाता है… आवाज तो… लगाता है। फ़क़त खुदा हाफिज”
तुम्हारा ही तो… शब्बू ।
पूरा वाकया पढ़ साहिल अब गम के बीच दरिया में खड़ा था, जहां तरंगे बड़ी-बड़ी लहरों का रूप लेकर बहुत दूर निकल रही थी। बहुत ही दूर…. शायद अनन्त की ओर।
कहते आज एक बार फिर साहिल वहीं पहुंच गया था, जहां से चलना शुरू किया था और कहने लगा था – हां सलेहा, अब मेरे अंदर चाहत की कोई तमन्ना नहीं रही। अब मेरे पास पाने की कोई लालसा भी नहीं रही। मैं अपनी खोई चाहत में ही जीना चाहता हूं। अब और कुछ पाने की चाहत नहीं, कहते उसने सिर को झुका लिया था।
- दुर्गेश कुमार चौधरी
सम्पादक , हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘निनाद’
कवि, चिन्तक व समाजिक कार्यकर्ता