स्वर, पद और ताल से युक्त जो गान होता है वह गीत कहलाता है।
गीत, सहित्य की एक लोकप्रिय विधा है। इसमें एक मुखड़ा तथा कुछ अंतरे होते हैं। प्रत्येक अंतरे के बाद मुखड़े को दोहराया जाता है। गीत को गाया भी जाता है।
प्राचीन समय में जिस गान में सार्थक शब्दों के स्थान पर निरर्थक या शुष्काक्षरों का प्रयोग होता था वह निर्गीत या बहिर्गीत कहलाता था। तनोम, तननन या दाड़ा दिड़ दिड़ या दिग्ले झंटुं झंटुं इत्यादि निरर्थक अक्षरवला गान निर्गीत कहलाता था। आजकल का तराना निर्गीत की कोटि में आएगा।
भरत के समय में गीति के आधारभूत नियत पदसमूह को ध्रुवा कहते थे। नाटक में प्रयोग के अवसरों में भेद होने के कारण पाँच प्रकार के ध्रुवा होते थे- प्रावंशिकी, नैष्क्रामिकी, आक्षेपिकी, प्रासदिकी और अंतरा।
स्वर और ताल में जो बँधे हुए गीत होते थे वे लगभग 9वीं 10वीं सदी से प्रबंध कहलाने लगे। प्रबंध का प्रथम भाग, जिससे गीत का प्रारंभ होता था, उद्ग्राह कहलाता था, यह गीत का वह अंश होता था जिसे बार बार दुहराते थे और जो छोड़ा नहीं जा सकता था। ध्रुव शब्द का अर्थ ही है ‘निश्चित, स्थिर’। इस भाग को आजकल की भाषा में टेक कहते हैं।
अंतिम भाग को ‘आभोग’ कहते थे। कभी कभी ध्रुव और आभोग के बीच में भी पद होता था जिसे अंतरा कहते थे। अंतरा का पद प्राय: ‘सालगसूड’ नामक प्रबंध में ही होता था। जयदेव का गीतगोविंद प्रबंध में लिखा गया है। प्रबंध कई प्रकार के होते थे जिनमें थोड़ा थोड़ा भेद होता था। प्रबंध गीत का प्रचार लगभग चार सौ वर्ष तक रहा। अब भी कुछ मंदिरों में कभी कभी पुराने प्रबंध सुनने को मिल जाते हैं।
प्रबंध के अनंतर ध्रुवपद गीत का काल आया। यह प्रबंध का ही रूपांतर है। ध्रुवपद में उद्ग्राह के स्थान पर पहला पद स्थायी कहलाया। इसमें स्थायी का ही एक टुकड़ा बार बार दुहराया जाता है। दूसरे पद को अंतरा कहते हैं, तीसरे को संचारी और चौथे को आभोग। कभी कभी दो या तीन ही पद के ध्रुवपद मिलते हैं। ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर (15वीं सदी) के द्वारा ध्रुवपद को बहुत प्रोत्साहन मिला। तानसेन ध्रुवपद के ही गायक थे। ध्रुवपद प्राय: चौताल, आड़ा चौताल, सूलफाक, तीव्रा, रूपक इत्यादि तालों में गाया जाता है। धमार ताल में अधिकतर होरी गाई जाती है।
14वीं सदी में अमीर खुसरो ने खयाल या ख्याल गायकी का प्रारंभ किया। 15वीं सदी में जौनपुर के शर्की राजाओं के समय में खयाल की गायकी पनपी, किंतु १८वीं सदी में यह मुहम्मदशाह के काल में पुष्पित हुई। इनके दरबार के दो गायक अदारंग और सदारंग ने सैकड़ों खयालों की रचना की। खयाल में दो ही तुक होते हैं-स्थायी और अंतरा। खयाल अधिकतर एकताल, आड़ा चौताल, झूमरा और तिलवाड़ा में गाया जाता है। इसको अलाप, तान, बालतान, लयबाँट इत्यादि से सजाते हैं। आजकल यह गायकी बहुत लोकप्रिय है।