अभी कहाँ मंझा हूँ,
कितना खुरदुरा है मन,
अभी तो विभक्त होना है खुद से,
अपनी ही छाया से सीखना है होना नम्र,
कभी न ख़त्म होने वाले जद्दोजहद से सीखना है मांझना विवेक,
दूर जंगल में घाँस की बढ़ती जड़ों से सीखना है धैर्य,
रात भर बनते ओस से सीखनी है शांति,
तन्हाई से सीखना है होना साझीदार,
अधीरता से सीखना है होना ईमानदार,
मैं को जब कर आऊंगा दफन,
और कुछ न होने से कुछ होने के बूझ लूँगा अर्थ….
तब प्रेम बोलो तुम…
खुले दिल से गले मिलोगे ?
-डॉ अनुज कुमार
हिंदी ऑफिसर
नागालैंड विश्वविद्यालय