क्षणिकाएँ – नरपत वैतालिक

१कविता

कविता

कोलाहल नहीं,

प्रिय!

कविता

है मौन।

पर हम समझायें किसे?

औ’ समझेगा कौन?

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महज शब्द कविता

नहीं,

कविता है

उर भाव।

एक दुधारी तेग

जो

करती

गहरा घाव!

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कविता

है इक आईना

सदा

दिखाए

साँच।

खुद में खुद को देख ले,

खुद को

खुद ही

जाँच।

 

२ दु:ख- सुख

दु:ख की

भर दी

डायरी,

कोरा -

सुख का  पत्र।

निज मन

के किस्से,व्यथा,

कहाँ

लिखूं अन्यत्र?

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जब जब

पाया आप की

यादों का

परिपत्र।

छिड़ा तुमुल संघर्ष मन,

ज्यो

संसद का सत्र।

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अब तो

मेरा मन हुआ,

जैसे

तरु चलपत्र।

दिन

प्रति दिन  है डोलता,

यत्र -तत्र सर्वत्र।

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-मर्द

जाड़ों में

चलती जभी,

स_न_न

हवाएँ सर्द।

तब सुखे पत्ते झड़ै,

जो होते है,

जर्द।

उन पर हँसती कोंपलें,

बिलकुल,

बन बेदर्द।

विरले होते है  यहाँ,

बनते जो हमदर्द।

 

कभी अर्श

तो फर्श पर,

गिरती जीवन-गर्द।

सदा रहे

जो एक सा -

वो है

सच्चा मर्द।।

-इश्क

इश्क!

हमारी औषधी ,

इश्क हमारा मर्ज।

घाव कुरेदे  इश्क ही ,

और बड़ा

खुदगर्ज।

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ग़म आँसूं शिकवे गिले,

मायूसी है हर्ज।

वरना

हम तुम छेड़ते

प्यार इश्क की तर्ज।

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कहीं

शिकायत जा करू,

करूं रपट जा दर्ज।

पर

पल पल आगे खड़ा,

प्यार -इश्क

का फर्ज।।

 ५-आनंद

नज़्म ,गीत ,दोहे,

ग़ज़ल,

मुक्तक

कविता छंद ।

है  मेरी अभिव्यक्ति के,

अद्भुत भव्य प्रबंध।

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मैं कहता

इन में  सदा,

मन के अंतरद्वंद्व।

कभी तीव्र आवेग मय,

या मंथर गति-मंद।

 

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भाव

शिल्प

रस शब्द की-

सुंदर मलय सुगंध;

कविता कानन कुसुम में

भरता रस मकरंद।

रसिक-मधुप,

जब आ निकट,

करता है लघु स्पंद।

वही अमरता है मेरी

वही मेरा आनंद।

 

 

 

- नरपत वैतालिक

स्थाई पता: रांदेसन, गांधीनगर, गुजरात।

संप्रति:गुजरात गेस लिमिटेड में वरिष्ठ विपणन अधिकारी, गांधीनगर।

शौक:गुजराती,हिन्दी,उर्दू ,राजस्थानी और ब्रजभाषा में काव्य लेखन करना। कविताऐ शब्द सृष्टि(गुजरात साहित्य अकादमी),राजस्थानी गंगा(बीकानेर साहित्य अकादमी)माणक(प्रसिद्ध राजस्थानी पत्रिका)आदि में प्रकाशित। दोहा का स्थाई स्तंभ “रंग रे दोहा रंग”दैनिक युगपक्ष के रविवारीय परिशिष्ठ में हर हप्ते आता है।

 

 

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