बरसो से हाँथ लिए कलम कुछ बादलों पर खीचता था,
बस एक तस्वीर उगाने को, दिन भर स्याही से अम्बर सींचता था!
हर बार कहीं मिट जाती थी वो तस्वीर हवाओं में बह कर,
और ये भी संभव, वो रहती सिर्फ मस्तिष्क शिराओ में छुप कर !
बरसो से हाँथ लिए कलम कुछ बादलों पर खीचता था,
बस एक तस्वीर उगाने को, दिन भर स्याही से अम्बर सींचता था!
पर उसका कोई रूप न था, वो रंगों से भी मुक्त कहीं,
फिर कैसे ढालूँ कागज पर, वो अमूर्त कल्पना, स्वप्नपरी !
कोई खींच नहीं सकता ये मूरत, है ये सारांश कहानी का,
वो मुझमे ही थी, और मैं अम्बर पर खेल करू नादानी का,
वो मन में एक समय तक, यूँही छुप-छुप कर रहती है,
वो चादर ओढ विचारो की खुद को खुद से ही ढकती है,
जिस मूरत में ये विचार ये बसे, वो सजीव मूर्ती खोजता था,
बरसो से हाँथ लिए कलम कुछ बादलों पर खीचता था,
बस एक तस्वीर उगाने को, दिन भर स्याही से अम्बर सींचता था!
- रोहित सिन्हा
ये यूनिवर्सिटी ऑफ़ नेब्रास्का,लिंकन, अमेरिका में एक रिसर्च एसोसिएट हैं । इनकी रिसर्च बैक्टीरिया और ह्यूमन जीनोम के पारस्परिक सम्बन्ध के बारे में जानकारी से सम्बंधित है ।
तकनिकी से जुड़े होने के बावजूद इन्हें हिंदी साहित्य से प्रेम है और अपने इस प्रेम को ये अपनी रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं ।