कैसे डिग सकता है मेरा मैं ?

 

‘मैं’एक स्तंभ भावनाओं का,
जिसमें भरा है
कूट-कूट कर जीवन का अनुभव
ज़र्रे-ज़र्रे में श्रम का पसीना
अविचल औ’ अडिग रहा
हर परीस्थिति में मेरा विश्वास
फिर भी परखता कोई
मेरे ही मैं को कसौटियों पर जब
लगता छल हो रहा है
मेरे ही मैं के साथ !

 

तपस्वी नहीं कोई था मेरा मैं
पर फिर भी बुनियाद था
अपने ही आपका मैं
एक मान का दिया मैं
सम्मान की बाती संग
हर बार तम से लड़ता रहा
परछाईं मेरे ‘मैं’ की बनता जब उजाला
मिट जाता अँधकार जीवन का सारा !!

 

एक चट्टान था मेरा मैं
जिसको टुकड़ों में तब्दील करना
मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं था
हथेलियों में उभरेंगे छाले
ये सोचकर वार करना
मैं तूफ़ानों के वार में था अडिग
जल की धार से पाया मेरे मैं ने संबल
सोचकर तुम बतलाओ
कैसे डिग सकता है मेरा मैं ?

 

 

- सीमा सिंघल ‘सदा’

*जन्म स्थान :* रीवा (मध्यप्रदेश)

*शिक्षा :* एम.ए. (राजनीति शास्त्र)

*लेखन : *आकाशवाणी रीवा से प्रसारण तो कभी पत्र-पत्रिकाओ में प्रकाशित होते
हुए मेरी कवितायेँ आप तक पहुचती रहीं..सन 2009 से ब्लॉग जगत में *‘**सदा**’* के
नाम से सक्रिय

*काव्य संग्रह :*
*अर्पितासाझा काव्य संकलन* अनुगूंज, शब्दों के अरण्य में, हमारा शहर,
बालार्क

*मेरी कलम :* सन्नाटा बोलता है जब शब्द जन्म लेते हैं
कुछ शब्द उतरते हैं उंगलियों का सहारा लेकर
कागज़ की कश्ती में नन्हें कदमों से *सदा *के लिए …

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