कुर्सी अभी भी खाली है

यह अभय भी एक अजीब शख्‍स़ हैं। एक ही इंसान के इतने मुखौटे, उसके व्‍यक्‍तित्‍व की इतनी पर्तें कैसे हो सकती हैं? उसका अच्‍छा ख़ासा क़द याने छ: फुट। उम्र पैंतीस साल पर बाल सफ़ेद होने लगे हैं और साथ ही झड़ने भी लगे हैं। क्‍यों न हो यह सब? हमेशा निन्‍यानवे के फ़ेर में पड़े रहते हैं जनाब। इस अजब-ग़ज़ब इंसान की बॉडी लेंग्‍वेज हमेशा सक्रिय रहती है।

 

वे ज्‍य़ादा बोलने में विश्‍वास नहीं रखते, बस जो करना होता है, कर गुजरते हैं और सामनेवाला उनकी करतूतें देखकर हक्‍का-बक्‍का रह जाता है। हमेशा कुछ खोजती सी आंखें। हमेशा सतर्क नज़रें कि बगल की सीट पर बैठी रंजना इधर-उधर हो तो वह कंप्‍यूटर पर अपनी पर्सनल फाइलें खोलें। उन्‍हें रंजना से एलर्जी सी है। उसे देखते ही उनके होंठ सिल से जाते हैं।

 

वे काम करने में इतनी लापरवाही बरतते कि उन्‍हें अपने से सीनियर रंजना से आये दिन डांट सुननी पड़ती है। एक महिला डांटे या काम करने के लिये कहे, इसमें उन्‍हें अपनी बेइज्‍ज़ती लगती है। वे अपनी ओर सेउसकी बात अनसुनी कर देते हैं या सिरदर्द का बहाना बनाकर काम टाल देने में उन्‍हें महारत हासिल है। उन्‍हें रंजना के साथ कोई वास्‍ता ही नहीं रखना, पर रंजना को तो ऑफिशियली वास्‍ता रखना है उनसे।

 

वे यह भूल जाते हैं कि यह ऑफिस है, उनका घर नहीं जहां उनकी मनमानी चलेगी। परन्‍तु उनकी भरसक कोशिश रहती है कि वे मनमानी करें और कोई उन्‍हें रोके नहीं। इसके लिये उन्‍होंने सीनियर बॉस को अपने विश्‍वास में ले लिया है। याने दो पुरुष एक ओर और रंजना एक ओर। दो वज्र मूर्खों के साथ काम करना हंसी-खेल नहीं है।

 

चापलूसी एक ऐसा हथियार है जो कई बार क़ारगर सिद्ध होता है। साथ में तारीफ़ भी कर दी जाये तो फिर तो कोई बात ही नहीं है। सोने पर सुहागा। बॉस को चूतिया बनाने का यह नुस्‍ख़ा है जिसमें बॉस आ जाते हैं। सो रंजना के बॉस कौन से अलग हैं। वे भी अपनी तारीफ़ सुनने के चक्‍कर में अभय के फंदे में फंस गये हैं।

 

वैसे अभय रंजना को मूर्ख़ समझते हैं। उन्‍हें लगता है कि सारी ख़ुराफातें वे करें और किसीको समझ में न आये। उनकी बदनसीबी कि उनको रंजना के बगल में ही सीट मिली है बैठने को और उसे पता रहता है कि अभय की निजी काम की फाइलें कौन सी डिस्‍क में सुरक्षित हैं और यही उनके दुख का कारण भी है। साथ में वह सीनियर भी है तो दुख दुगुना होना ही था।

 

उन्‍हें ऑफिस का वही काम रास आता है जिसमें वेतन के अलावा और नांवा अतिरिक्‍त मिले। उन्‍होने संस्‍थान को दुहनी गाय समझ लिया है जिसे दुहते रहने के लिये उन्‍हें नियुक्‍त किया गया है। रंजना कभी कभी खीझकर कह भी देती, पैसे की इतनी हवस भी ठीक नहीं है। आप कितना काम करते हैं, यह आपको भी पता है और मुझे भी पता है।

 

इस पर वे कुछ कहते नहीं, पर अपने कंधे उचका देते हैं और वह बॉडी लेंग्‍वेज मानो कहती, आप अपने काम से काम रखिये। मेरे बीच में न बोलें तो बेहतर। कई बार तो वे सुबह आठ बजे ही ऑफिस आ जाते। यह सब चपरासी के मार्फ़त पता चलता है। वह बताता, आज अभय साहेब आठ बजेइच आ गया।

 

…आप लोग के लिये पानी लाने को गया था। था। वापिस आया तो साहेब प्रिंटआउट ले रहा था। साथ में लैण्‍डलाइन पर किसीसे जल्‍दी जल्‍दी बात भी कर रहे थे। साहेब तो लफड़ेबाज दिखते हैं मैडम। रंजना कहती, अब मैं आ गई हूं न। अब ये जनाब कुछ नहीं करेंगे। सिर्फ़ तिरछी आंख से देखेंगे। चपरासी भेदभरी हंसी हंसकर मेज पर कटका मारने लगता।

 

ऐसा नहीं है कि रंजना ऑफिस जल्‍दी नहीं आती, पर उसके जल्‍दी आ जाने का कारण ऑटो का न मिलना होता है। सुबह पहचानवाले ऑटो भी ऐसे फर्राटे से बिना देखे गुज़र जाते मानो देखा ही नहीं। ऐसे में वह अपनी कॉलॉनी के मि. वर्मा से उनकी कार में लिफ्ट ले लेती है जो उसके ऑफिस के रास्‍ते होकर जाती है। वे उसे एक कॉर्नर पर छोड़ देते हैं।

 

यदि उस समय अभय दफ्तर में होते तो आश्‍चर्य तो करते और ये सवाल भी ज़रूर पूछते हैं, आप आज जल्‍दी आ गईं? आपकी बस आ गई क्‍या? साहब नहीं आये? नाश्‍ता करने जायेंगी? कंप्‍यूटर पर कोई काम तो नहीं है?’ याने वे रंजना के कंप्‍यूटर पर अपना काम करते हैं तो अंदर से डर तो बना ही रहता होगा।

 

दिक्‍कत यह है कि उस अनुभाग में एक ही कंप्‍यूटर है जो पद के हिसाब से रंजना को दिया है पर चूंकि पत्राचार का काम अभय के पास है, इसलिये उसने अपना कंप्‍यूटर अभय को दे दिया है ताकि काम में देरी न हो। इसका असर यह हुआ कि अभय ने एक तरह से वह कंप्‍यूटर हथिया लिया है। उस कुर्सी को छोड़ते ही नहीं जहां कंप्‍यूटर रखा है।

 

वह अपनी हर बात को गोपनीय रखने का भरसक यत्‍न करते हैं। उसकी कोशिश रहती है कि वह पकड़ा न जायें। सो ऑफिस से ही एक पैन ड्राइव ले ली क्‍योंकि वह इस कंप्‍यूटर से अपने कई मित्रों का भला भी कर रहे हैं। उनके प्रोजक्‍ट इसी कंप्‍यूटर पर बनते हैं और वह सारा मैटर शाम को पैन ड्राइव में लेकर फाइलें डिलीट कर देते और दूसरे दिन फिर अपलोड कर लेते।

 

सारा गोरखधंधा चल रहा है। रंजना सबकुछ देखकर भी चुप रहती । बॉस ही जब ढीले हैं तो वह क्‍योंकर बुरी बने हर समय बोलकर या टोककर। दरअसल इस ऑैफिस में फिर से आने का अभय का एक ही मक़सद था कि यहां कंप्‍यूटर, इंटरनेट, पेनड्राइव, प्रिंटर की सुविधा मुफ्त़ में मिल जाती थीं। इतने बड़े संस्‍थान में आरामदायक कुर्सी और ये सुविधाएं कहां मिलतीं।

 

एक दिन अभय ज़रा ज्‍़यादा ही बड़बोले बन गये। बोले, रंजनाजी, जब आप रिटायर हो जायेंगी और यदि आपको काम की ज़रूरत हो तो मुझे कहियेगा। दस हज़ार की नौकरी तो दिलवा ही सकता हूं।‘ इसके उत्‍तर में वह सिर्फ़ इतना ही बोली, ‘मेरे इतने बुरे दिन कभी नहीं आयेंगे कि आपकी ज़रूरत पड़े। मेरे हाथ में सरस्‍वती का वास है।‘

 

इस तरह के उत्‍तर की शायद उसे अपेक्षा नहीं थी। अकबका गये हैं वह। रंजना ने उनको आड़े हाथों लेते हुए कहा, ‘मि. अभय, तुम्‍हें याद है पिछले साल तुम ऑफिस को बताये बिना नौकरी छोड़कर चले गये थे और अपना मोबाइल भी बंद कर दिया था। कितने ढुंढेरे पड़े थे तुम्‍हारे।‘ अब वह अभय को आप की जगह तुम कहने लगी है।

 

यह अभय की कमज़ोर नस है जिसे दबाकर उसे यह अहसास दिलवा देती है कि वह भरोसे का आदमी नहीं है। कभी भी धोखा दे सकता है। इसके बाद वह और सतर्क हो गये हैं। ऊपर के अधिकारियों को अपने विश्‍वास में लेने के लिये तरीके सोचने लगे हैं और बॉस तथा उनके मित्र भी सहायता करते हैं।

 

धीरे-धीरे वे इस काम में माहिर हो चले हैं कि अपने सीनियर्स को कैसे हाथ में लेना है। ले मक्‍खन पर मक्‍खन। बॉस से अक्‍सर कहते हैं, ‘साहब, आप तो इंटलीजेंट हैं। आपको अधिकारी होने के नाते यह सुविधा मिलनी चाहिये, वह मिलनी चाहिये।‘ दरअसल वह तो उन सुविधाओं को पा नहीं सकते तो अधिकारी को उकसाते रहते हैं। वे मान भी जाते हैं।

 

ये सारी बातें केबिन में होती हैं। जब बॉस उसकी बात से सहमत हो जाते तो वह बाहर आकर उन सुविधाओं की मांग से संबंधित नोट टाइप करने लगते हैं। उन्‍हें पता है कि ग़र्म तवे पर रोटियां कैसे सेंकनी हैं और कब सेंकनी है। यही तो उनका मुख्‍य काम है। बहुत ही शातिर किस्‍म का बंदा है यह।

 

बॉस को भी पराई बुद्धि के वडे खाना पसंद है। अपने दिमाग़ का इस्‍तेमाल वे टूर बनाने में करते हैं। उन दोनों का मन ऑफिस के उस काम में बिल्‍कुल नहीं लगता जिस काम का उन्‍हें वेतन मिलता है। अभय रंजना से जूनियर होने के बावजू़द इस कोशिश में रहते हैं कि जितना हो सके, रंजना काम करे। खाली होने पर वह बॉस के केबिन को आबाद करते हैं।

 

एक दिन वह बॉस के कमरे से ढेर सारे पेपर लाये और बोले, ‘साहब ने ये पेपर आपके लिये दिये हैं। कल तक क्‍लीयर करना है।‘ उन्‍होंने जिस तरीके से कहा, रंजना को गुस्‍सा आना ही था। बोली, ‘ये पेपर साहब को ही दे दीजिये। वे जब मुझे बुलाकर कहेंगे तब देखूंगी। सारे काम मुझको ही करने हैं तो आपकी क्‍या ज़रूरत है?’

 

इस पर दोनों में ख़ासी बहस हो गई थी। इस पर अभय चिल्‍लाकर बोले, ‘मुझे पता है, मैं नया हूं। इसलिये आप मुझे सता रही हैं। मैं चाहूं तो लिखित रूप में आपकी शिकायत कर सकता हूं।‘ यह कहते समय गुस्‍से से उसका मुंह तांबई रंग का हो गया है। रंजना को भी ताव आ गया। कामचोरी की भी हद होती है।

 

वह भी अपनी सीट से खड़ी हो गई और ठंडे स्‍वर में बोली, ‘’मि. अभय, ज़ुबान को लग़ाम दो। पेपर क्‍लीयर करना तुम्‍हारी टेबल का काम है। आवाज़ नीची रखो। मुझे ऊंची आवाज़ सुनने की आदत नहीं है। वैसे कहो तो तुम्‍हारा कंप्‍यूटर चेक करवा दूं? मेरे एक फोन करने की ज़रूरत है सिर्फ़।‘

 

इस पर वह हड़बड़ा गये हैं और वे सारे पेपर लेकर बॉस के केबिन में चले गये। एक बार जो गये तो फिर पांच बजे ही बॉस और अभय एकसाथ केबिन से निकले हैं। उन्‍होनेने अपना बैग उठाया और दोनों केबिन से बाहर निकल गये। दोनों एक दूसरे के केयर टेकर हैं। दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। मानो उनके मुंह में पानी भरा है।

 

दरअसल अभय की पारिवारिक पृष्‍ठभूमि बताती है कि वह निम्‍न मध्‍य वर्ग से हैं। उन्‍होंने ही बताया था कि वे मुंबई में एक कमरे के घर में ही रहते हैं और टॉयलेट वगैरा भी बाहर है और कॉमन है। उनकी पहली नौकरी में वेतन मात्र रूपये 5000/- था। कमियों में रहना मानो उसकी नियति है। इस दफ़्तर में वह सिफारिश से लगवा दिया गया है।

 

वह एयर कंडीशन में बैठने का बिल्‍कुल आदी नहीं हैं। ए सी चलने के पांच मिनट बाद ही उन्‍हें सर्दी लगने लगती और खट से बंद कर देते हैं। रंजना को मेनापॉज़ के बाद गर्मी बहुत लगने लगी है। उसे ए सी ज़रूरी है। वह रंजना की इस बात को समझ नहीं पाते और उसके लिये हर संभव मुसीबत खड़ी करते रहते हैं आये दिन।

 

वह अपनी कुंठाएं इसी तरह निकालते हैं। किसीने सच ही कहा है कि यदि ग़रीब को रोटी पर रोटी खाने को मिल जाये तो दूसरों के लिये सिरदर्दी पैदा करने लगता है। शत प्रतिशत सच न भी हो तो भी अभय के मामले में यह कहावत ख़री उतरती है। वह रंजना से तो बिल्‍कुल एडजस्‍ट करने को तैयार नहीं हैं। जी का जंजाल बन गये हैं वे रंजना के लिये।

 

एक दिन रंजना के पास बहुत काम था। अभय की ओर देखा तो वह हाथों पर सिर रखकर सो रहे थे। बीच में सिर उठाकर देख भी लेते थे। वह बोली, अभय, मेरे पास बहुत काम है। तुम खाली बैठे हो। ज़रा एक रिपोर्ट तुम बना दो तो मैं दूसरा काम कर लूं।‘ इस पर उन्‍होंने जल्‍दी से एक फोल्‍डर खोल लिया और बोले, ‘मेरे पास भी काम है।

 

…यदि मुझे काम देना चाहती हैं तो साहब से पूछिये।‘ रंजना अव्‍वल तो उन्‍हें कुछ काम करने के लिये कहती नहीं है पर आज कहा तो साफ़ नकार गये जनाब। वह भी बोली, ‘अभय, तुम्‍हारी साहब तो मैं भी हूं। मुझे साहब मानने में शायद तुम्‍हारी हेठी होती है। मुझे साहब से पूछने की ज़रूरत नहीं है। तुम रहने दो। मैं अपना काम खुद कर लूंगी।‘

 

बॉस भी ज़रूरत से ज्‍य़ादा अभय को सपोर्ट करते हैं। वह सोचती है कि पता नहीं क्‍या बात है कि ये दोनों एक दूसरे की पीठ सहलाते रहते हैं। रंजना के कुछ मित्र जो दूसरे प्रतिष्‍ठानों में काम करते हैं, उनमें से एक दिन मि. सहाय का फोन आया, ‘हैलो रंजना, कैसी हो? क्‍या बात है तुम किसी ऑफिशियल कार्यक्रम मे नहीं आतीं? अभय तो अक्‍सर आते हैं।‘

 

रंजना क्‍या बताती कि उसे तो इन कार्यक्रमों के बारे में पता भी नहीं होता है। प्रकट रूप में कहा, ‘ऐसा कुछ नहीं है। सब चले जायेंगे तो ऑफिस का काम कौन देखेगा?  अर्जेंट काम तो बोलकर नहीं आता।‘ इस पर वे बोले, ‘तुम सीनियर हो। तुम्‍हारा आना बनता है।‘ ‘अगली बार देखूंगी’ यह कहकर रंजना ने फोन रख दिया।

 

अब उसे यह आभास होने लगा कि अभय और बॉस के बीच एक मूक समझौता है। अभय जिस कार्यक्रम में जाते, वहां बॉस मंच पर आसीन होते। जब एक बार अभय से इस  बाबत पूछा तो वह मुस्‍कराकर बोले, ‘समझा कीजिये मैडम।‘ आज मैडम को सब समझ में आ रहा है।

 

दोनों एक दूसरे के साथ बजरबट्टू की तरह चिपके हुए हैं। सीधा सीधा लेन-देन। अभय उन्‍हें मंच देंगे और बॉस उनको ऑफिस में सुविधाएं देंगे। दोनों लगे हुए हैं। जब उन दोनों को कहीं जाना होता तो चपरासी को फोन करके बता देते कि वे ऑफिशियली बाहर जा रहे हैं। रंजना से न्‍यूनतम बात करते। पेट उनका काला है तो कोई क्‍या करे?

 

ऐसी ही उन दोनों की अनुपस्‍थिति में मैनेजमेंट से फोन आया और अभय को भेजने के लिये कहा। अब वह क्‍या कहती? झूठ तो बोल नहीं सकती थी सो बता दिया कि वे बाहर गये हैं। वहां से आवाज़ आई, ‘कहां गये हैं?’ रंजना को लगा आज ये दोनों महाशय फंस गये हैं। कहां तक छिपाये और उसे तो पता भी नहीं है कि कहां गये हैं।

 

उसने कहा, ‘सर, वे बताकर नहीं गये हैं। मैं आपका संदेश दे दूंगी कल।‘ इस पर वहां से गुस्‍सेभरी आवाज़ आई, ‘’सीनियर आप हैं या वे?  आपको  क्‍यों नहीं पता कि वे कहां गये हैं? आपके बॉस कहां हैं, उनसे बात कराइये मेरी।‘ रंजना ने कहा, सर, वे भी नहीं हैं। वे दोनों बाहर गये हैं। मुझे चपरासी ने बताया। उसके पास फोन आया था।‘

 

‘ठीक है। कल जब आयें तो उन दोनों से कहें कि मैंने बुलाया है। कुछ बात करना है’ और यह कहकर फोन काट दिया गया। रंजना ने एक क़ाग़ज़ पर संदेश लिखा और अपने ड्रॉअर में रख लिया। उसी  समय बॉस का फोन आया, ‘रंजना, किसी का फोन तो नहीं आया?’ ‘सर, इंन्‍स्‍पेक्‍शन विभाग से फोन था। कल आपको और अभय को अपने केबिन में बुलाया है।‘

 

दूसरे दिन अभय और बॉस एकसाथ आये और रंजना की सीट के पास रखी कुर्सियों पर बैठ गये। भूमिका तैयार कर रहे हैं कि बात कैसे शुरू की जाये। वह उनसे बात करना ही नहीं चाहती है। उसने अपने ड्रॉअर से संदेश की चिट निकालकर बॉस के हाथ में थमा दी। उन्‍होंने समझ लिया है कि रंजना बात करने के मूड में नहीं थी। सो अपने केबिन में चले गये।

 

कुछ देर बाद बॉस ने अभय को अपने पास आने के लिये कहा। प्‍लायवुड के डिवाइडर में जान ही कितनी होती है। सो केबिन के अन्‍दर से खुसर-पुसर की आवाज़ें आ रही हैं। दोनों रंगे हाथों पकड़े गये हैं। अब ख़ुद को बचाने के लिये दोनों मिलकर रास्‍ते तलाश रहे हैं। चो-चोर मौसेरे भाई जो ठहरे।

 

अभय के क़ारनामों की तो कोई सीमा ही नहीं है। वह दो दिन ऑफिस नहीं आये तो मस्‍टर में अनुपस्‍थित लिखा गया। पर महीना खत्‍म होने के बाद वहां सफ़ेद फ्लूड लगाकर उपस्‍थित कर दिया गया था। रंजना की ड्यूटी है कि महीने के अंत में मस्‍टर देखे कि अनुभाग के कर्मचारी कितने दिन उपस्‍थित/अनुपस्‍थित थे।

 

बस, यहीं अभय की चोरी पकड़ी गई हैऔर साथ ही बॉस भी शक़ के घेरे में आ गये कि किस लालच में वे अभय को इतनी शह दे रहे हैं। दाल में नमक खाने का अंजाम यही होना था। उसने वह मस्‍टर कार्मिग्‍क विभाग को दिखाया कि उसके अनुभाग में कैसी धांधली चल रही है। उन्‍होंने रंजना से धीर रखने के लिये कहा।

 

दो दिन बाद कार्यालय आदेश जारी हुआ कि कुछ अनुभागों के मस्‍टर हर महीने कार्मिक विभाग के पास भेजे जायें। जब वहां मस्‍टर पहुंचा तो अभय को मेमो दिया कि उन्‍होंने मस्‍टर में जो हेराफ़ेरी की थी, उसके लिये वे ही बतायें कि उन्‍हें क्‍या सज़ा दी जाये। उन्‍होंने क़ानूनन अपराध किया है। अभय ने वक्‍त़ की नज़ाकत को समझते हुए लिखित रूप में माफ़ी मांग ली है।

 

और कोई चारा भी तो नहीं था। साथ ही बॉस को भी ख़बरदार किया गया कि आइंदा ऐसा हुआ तो उनके और अभय के खिलाफ़ अनुशासनिक कार्रवाई की जायेगी जिसमें सस्‍पेंड भी किया जा सकता है। इसके बाद तो उन दोनों को रंजना आफ़त की परकाला लगती है। वे उसे जितना दूर रखते हैं, उसे उन दोनों की कालाहांडी दिख ही जाती है।

 

एक दिन वह अपनी सीट पर बैठी किसी पत्रिका के पन्‍ने पलट रही थी। पता नहीं, अभय को क्‍या सूझा और बोला, ‘मैडम, आपको रिटायर होने में ज्‍य़ादा समय नहीं है। आपके जाने के बाद मुझे आपके हिस्‍से का काम भी करना पड़ेगा तो मैं दस प्रतिशत अतिरिक्‍त वेतन मांगूंगा।‘ रंजना भी हंसकर बोली, ‘बड़ा इंतज़ार कर रहे हो मेरे रिटायरमेंट का।

 

…घबराओ मत। अभी समय है और जब मैं रिटायर होऊंगी तो अपने काम की पूरी सूची बनाकर कार्मिक विभाग को दे जाऊंगी। उतना काम आपको करना पड़ेगा।‘ यह सुनकर मानो उनके मुंह का स्‍वाद कसैला हो गया है और वह होंठ बिदोरकर रह गये हैं। ज्‍य़ादा तो नहीं बोले पर यह ज़रूर बोले, ‘आप भी बस…किसीका भला नहीं चाहतीं।‘

 

वह हमेशा अपने लिये सेफ साइड रखते हैं। किसी भी पेपर पर हस्‍ताक्षर करने से बचते हैं। वह कोई भी ज़िम्‍मेदारी का काम अपने सिर नहीं लेना चाहते। ‘आप सीनियर हैं और मुझसे ज्‍य़ादा अनुभव है। आप ही देखिये और साइन कर दीजिये’, यह कहकर पेपर का फोल्‍डर रंजना के पास सरका देते और वह बात बढ़ाये बिना हस्‍ताक्षर कर देती है।

 

दरअसल, अभय को दिमाग़ी काम से परहेज़ है। एक फाइल से दूसरे फाइल में मैटर कॉपी पेस्‍ट करने को ही काम समझते हैं। रंजना के रिटायर होने में दो वर्ष हैं। वह हर महीने जता देते हैं कि उसके प्रतिष्‍ठान से बिदाई में ज्‍य़ादा समय नहीं है। उसके जाने के बाद इस कुर्सी पर उसका अधिकार होगा। ख़याली पुलाव अच्‍छे पका लेते हैं।

 

जब से वह स्‍थायी कर्मचारी हुए हैं, सबकी मिजाज़पुर्सी ही तो कर रहे हैं। यहां आने से पहले अपनी ग़रीबी का वास्‍ता देते थे और नौकरी में आने के बाद आगामी उन्‍नति के लिये सिर से पांव तक का ज़ोर लगा रहे हैं। उनकी राह का पत्‍थर एक ही बंदा है और वह है रंजना। वह जाये तो उनका नंबर लगे।

 

आख़िर वह दिन भी आ ही गया जब रंजना को अपने संस्‍थान को गुड बाय कहना था। उसके विदाई समारोह में पूरा ऑफिस हाज़िर है। सभी ने भीगी आंखों से उसे विदाई दी। बॉस और अभय के चेहरों पर एक खुशी ज़रूर रंजना ने देखी पर उसे अनदेखा ही करना उचित था। उन्‍होंने राहत की सांस ली होगी कि अब उनकी चोरी पकड़ी नहीं जायेगी।

 

दूसरे दिन ऑफिस की सहेलियों का फोन आया। हालचाल पूछे और बताया कि बॉस ने मैनेजमेंट पर दबाव डालना शुरू कर दिया है कि काम ज्‍य़ादा है और अभय अकेले पड़ गये हैं।  उनके ऊपर अतिरिक्‍त काम आन पड़ा है। उन्‍हें रंजना की जगह पर प्रमोट किया जाये। मैनेजमेंट भी तो इतना पाग़ल नहीं है।

 

उनके कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। सच उन्‍हें भी मालूम है। आफिस ने रंजना के रिटायरमेंट के बाद उसके खाली पद के लिये पेपरों में विज्ञापन दे दिया है। अभय ने अपनी अर्जी भेज दी है। महीने पर महीना बीतता जा रहा है। अभय की बेचैनी बढ़ती जा रही है। मैनेजमेंट का कहना है कि यह ज़िम्‍मेदारी का पद है और अभी तक योग्‍य उम्‍मीदवार नहीं मिला है।

 

एक तरह से अभय को नक़ार दिया है फिर भी वह भगवान पर भरोसा किये इंतज़ार कर रहे हैं कि शायद भाग्‍य का छींका टूट जाये। यूनियन के चक्‍कर लगा रहे हैं। बॉस रोज़ मैनेजमेंट को याद दिला रहे हैं। ज़ोर-आज़माइश चल रही है। कुछ भी हो सकता है पर रंजना जिस पद पर थी, वह कुर्सी अभी भी खाली है।

 

 

- मधु अरोड़ा

  • कृतियां:
  • · ‘बातें’- तेजेन्द्र शर्मा के साक्षात्कार- संपादक- मधु अरोड़ा, प्रकाशक- शिवना प्रकाशन, सीहोर।
  • · ‘एक सच यह भी’- पुरुष-विमर्श की कहानियां- संपादक- मधु अरोड़ा, प्रकाशक- सामयिक प्रकाशन, नई दिल्‍ली।
  • · ‘मन के कोने से’- साक्षात्‍कार संग्रह, यश प्रकाशन, नई दिल्‍ली।
  • · ‘..और दिन सार्थक हुआ’- कहानी-संग्रह, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्‍ली।
  • · ‘तितलियों को उड़ते देखा है…?’—कविता—संग्रह, शिवना प्रकाशन, सीहोर।
  • · मुंबई आधारित उपन्‍यास प्रकाशनाधीन
  • · भारत के पत्रकारों के साक्षात्‍कार लेने का कार्य चल रहा है, जिसे पुस्‍तक रूप दिया जायेगा।
  • · सन् २००५ में ओहायो, अमेरिका से निकलनेवाली पत्रिका क्षितिज़ द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी सम्‍मान से सम्‍मानित।
  • · ‘रिश्‍तों की भुरभुरी ज़मीन’ कहानी को उत्‍तम कहानी के तहत कथाबिंब पत्रिका द्वारा कमलेश्‍वर स्‍मृति कथा पुरस्‍कार—२०१२
  •  उपन्‍यास…उम्‍मीद अभी बाकी है’ प्रकाशित….2017…… मिररस्‍टोरी, मुम्‍बई
  • · हिंदी चेतना, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, परिकथा, पाखी, हरिगंधा, कथा समय व लमही, हिमप्रस्‍थ, इंद्रप्रस्‍थ, हंस, पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।
  • · जन संदेश, नवभारत टाइम्‍स व जनसत्‍ता, नई दुनियां, जैसे प्रतिष्‍ठित समाचारपत्रों में समसामयिक लेख प्रकाशित।
  • · एस एनडीटी महिला विश्‍वविद्यालय की हिंदी में एम ए उपाधि हेतु कहानी संग्रह ‘और दिन सार्थक हुआ’ में वर्णित दाम्‍पत्‍य जीवन पर अनिता समरजीत चौहान द्वारा प्रस्‍तुत लघु शोध ग्रंथ…..२०१४ —२०१५
  • · उपन्‍यास…’ज़िंदगी दो चार कदम’ प्रकाशनाधीन
  • · अखिल भारतीय स्‍तर पर वरिष्‍ठ व समकालीन पत्रकारों के साक्षात्‍कार का कार्य हाथ में लिया है।
  • · आकाशवाणी से प्रसारित और रेडियो पर कई परिचर्चाओं में हिस्सेदारी। हाल ही में विविध भारती, मुंबई में दो कहानियों की रिकॉर्डिंग व प्रसारण। मंचन से भी जुड़ीं। जन संपर्क में रूचि।
  • सन् 2015..2016 का महाराष्‍ट्र राज्‍य हिंदी साहित्‍य पुरस्‍कार मिला तथा डाक्‍टर उषा मेहता अवार्ड से सम्‍मानित किया गया।

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