गुलाबी जाडों की एक दोपहर
वह बुन रही है स्वेटर्
फन्दे ऊन के डोरों को ले जाल बन जाते हैं
फन्दों से निकला फूल
प्रेम का ,संगीत का,
खुशनुमा शामों का
दूर छत से उडती आती
पतंग पर लिखे होते
ढाई आखर प्रेम के
डोर ढीली होती,
पतंग झुकती मुंडेर पर
फिर खिंच जाती,
आसमान में तन जाती
कितनी कितनी रातें आँखों में रतजगा होता
रतजगे में धडकता दिल होता
अब सब कुछ सपाट है
दिन मुरझाया
शाम गहराई
रातें सीली सीली
धुआँ देती
कहीं फूल नहीं दीखता
दीखती है गठीले हाथों में
वक्त की सलाईयाँ
जो बुन रही हैं स्वेटर
गुलाबी जाडा
अब टीसने लगा है।
- संतोष श्रीवास्तव
प्रकाशन : कहानी,उपन्यास,कविता,स्त्री विमर्श तथा गजल विधाओ पर अब तक १७ किताबे प्रकाशित
सम्मान: २ अंतरराष्ट्रीय तथा १६ राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके है।
शिक्षा: डीम्ड विश्वविद्यालय से पीएचडी की मानद उपाधि।
अन्य: प्रतिवर्ष हेमन्त स्मृति कविता सम्मान तथा विजय वर्मा कथा सम्मान का आयोजन।
सम्प्रति: मुम्बई विश्ववद्यालय में कोआर्डिनेटर