“उनकी कहानियों में पानी की तरलता और कथानक की सरलता होती है”

स्वाति तिवारी की कहानियों के बारे में बात करना ऐसा ही है जैसे एक खामोश दास्तान को आवाज देना। मृदुभाषी स्वाति तिवारी का सेंस आफ ह्यूमर गजब का है और यह गाहे-बगाहे उनकी कहानियों के संवाद से झांकता भीरहता है। वह छोटे वाक्यों में इतनी बड़ी बात कह जाती हैं कि क्या कहें। बस निशब्द हो कर पढ़ लें या मन ही मन उन वाक्यों को दोहरा लें। उनकी कहानियां जब छप कर बाहर आती हैं तो वह हर किसी की कहानी हो जाती हैं। पाठकों को कहीं न कहीं उन कहानियों में अपना या अपने आसपास का अक्स नजर आने लगता है। यह अक्स इसलिए दिखता है क्योंकि उनकी कहानियों में पानी की तरलता और कथानक की सरलता होती है। वह वैसी ही सरल हैं, अपनी कहानियों की तरह। उनके पास किसी साधारण घटना को शब्दों की डोर में पिरो कर कहानी बना देने का हुनर है। उनकी कहानियां ऐसी विविधता लिए रहती हैं कि कभी-कभी लगता है दिमाग में ऐसा कौन सा स्त्रोत है जो उन्हें निरंतर कहानी के लिए विषयवस्तु का कच्चा सामान मुहैया कराता रहता है। उनकी कहानियां केवल स्त्री मन की कहानियां नहीं कही जा सकती। उनकी कहानियों में समाज है और उसकी कई विसंगतियां हैं। एक भरापूरा लोक जीवन है और अद्भुत लोक चेतना से ऊर्जान्वित स्त्री मन है एक ऐसा मन जो खाँचों से बाहर हैं। एक ऐसी स्त्री जो आत्मकेन्द्रित नहीं है जो समाज के सरोकारों में रची बसी हुई है। उनका रचना संसार बाहरी वातावरण से नहीं, आन्तरिक ऊर्जा से समृद्ध है। वह रिश्तों पर सहजता से लिखती हैं और रिश्तों की उलझन पर भी।  कई बार लगता है वे रिश्तों को परत-दर-परत उकेल रही है और कई बार लगता है वे रिश्ते बुन रही हैं। उनकी एक कहानी मृगतृष्णा में नायिका कहती है, यादों का भी क्या खेल है। “चाहो न चाहो” पर वक्त-बेवक्त यादें आ ही जाती हैं और उन्हीं क्षणों की अनुभूतियां दिल में जगा ही जाती हैं  जिन्हें हम भूलना चाहते हैं। एक कसक बन याद दिला ही जाती है जिन्दगी अपने गुजरे अतीत को। जैसे-जैसे इंदौर पास आ रहा था। मेरी धड़कन अनजाने भय से तेज होती जा रही थी। पता नहीं अरूण लेने आते भी हैं या नहीं, मन दुविधा में है। दस वर्ष लम्बा अंतराल हमारे मध्य से गुजर गया है। पसरे हुए इस समय और समय ही क्यों, जाने क्या-क्या गुजर गया है… फिर भी एक विश्वास था मन में अरूण के आने का।

यह एक तरह से नायिका की मनोदशा है जिसमें वह न बहुत बड़ा सीन खींच रही है, न दुखड़ा रो रही है। पर एक विराट दृश्य पाठक के मन में बनता चला जाता है। वह बैठी और याद करने की कोशिश कर रही है कि आखिर क्या वजह है कि एक रिश्ता दरक गया। एक स्री के लिए क्या जरूरी है यह इस कहानी में खूबसूरती से दशाया गया है। अंततः एक स्त्री क्या अपने पति का कंधा और बच्चे की मुस्कान चाहती है। यह जो मनोविश्लेषण है यही स्वाति तिवारी की कहानियों की खासितयत है। मन की बारीक परतों पर वह हौले-हौले हाथ फिराती हैं और जहां कभी भी उस परत का धागा उधड़ा हुआ देखती हैं वहीं से वह उसे सिलने में जुट जाती हैं। इन परतों पर ऐसा नहीं है कि सिफ् रिश्ते हीं हैं। इस परद की खुरदुरी सतहों पर सामाजिक सरोकार भी उतनी ही कुशलता ने अपना ताना-बाना बुनते हैं। उनकी कहानी पानी इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। पानी को लेकर अकसर भाषणबाजी का खतरा रहता है। पानी कितना अनमोल है यह किसी से अब कहना या समझाना विशुद्ध नासमझी है। लेकिन स्वाति तिवारी इस मुद्दे को एक कुशल क्रिकेट खिलाड़ी की तरह संभालती हैं। मैं यहां क्रिकेट खिलाड़ी का जिक्र इसलिए कर रही हूं क्योंकि जो भी लोग क्रिकेट का मैच दखते हैं वह जानते होंगे कि एक हुक की गई बॉल को कैच करना कितना कठिन काम है। फील्डिंग कर रहे खिलाड़ी का सारा ध्यान और तेज नजर उस बॉल पर रहती है। फील्डिंग कर रहा खिलाड़ी तभी भांप लेता है कि यदि जरा भी ध्यान दिया गया तो यह बॉल हाथ में आ जाएगी। आऊट लुक पत्रिका में प्रकाशित पानी कहानी बिलकुल वैसी ही है। स्वाति तिवारी ने बहुत फुर्ती के साथ उसे लपक लिया है।

वह इस कहानी में कहीं भाषण नहीं देतीं, कहीं समझाइश की ऊबाउ खुराक नहीं। एक साधारण व्यक्ति की कहानी से उसके अनुभव से शुरू हो कर यह कहानी अपने सार्थक मुकाम तक पहुंचती है। कहानी में सपने में नायक को दिखता है कि पिता के तर्पण के लिए भी पानी नहीं है। प्लास्टिक के बने छोटे गिलास में पानी है और उसी पानी से उसे तर्पण करना पड़ेगा।

उनकी यह सरोकारों की पैनी दृष्टि कोने कोने में जाकर विषय को खोजती है। विज्ञान की बातें भी वह बहुत सरल ढंग से कह देती हैं। अद्भुत वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ उनकी कहानियों में जानकारी होती मगर जानकारी का आतंक नहीं होता। इसी से उनके लिखे गए विषयों में सहजता होती है। निकट के स्त्री शुचिता अंक में प्रकाशित “वह जो भी है मुझे पसंद है” कहानी में वह एक अनछुआ विषय भी सहजता से इसलिए कह पाईं कि उनका स्वभाव सरल है, भाषा प्रवाह तेज है। मैं ऐसा मानती हूं कि कहीं न कहीं स्वभाव या मन के वास्तविक आचरण की छाया लेखन पर पड़ती है। समलैंगिक विषयों पर लिखी उनकी कहानी को वह सहजता से बहाती ले जाती हैं। फ्रायड से लेकर क्रोमोसम के गणित समझाने तक वह सहज हो कर बात समझाती हैं। यहां उनके ज्ञान का आतंक नहीं दिखता। इससे पढ़ने वाले को यह नहीं लगता कि वह किसी ज्ञान के बोझ तले दब रहा है या फिर उसे जबरद्स्ती ऐसे विषय में धकेला जा रहा है जो वह कम से कम साहित्य में तो पढ़ना बिलकुल नहीं चाहेगा। यह कहानी एक दम नए कथ्य को सामने लाती है। बगैर किसी अश्लील शब्द के प्रयोग किए भी वे यहाँ यौनिकता पर लिख गई है।

वह समलैंगिक मुद्दों के साथ लिव इन पर उतनी ही पैनेपन से लिखती हैं। आजकल कहानी में वह ऐसी लड़की की दुविधा के बारे में लिखती है, जो शादी नहीं करना चाहती मगर शादी की तरह रहना चाहती है। यह ऐसा विषय है जिस पर बचना या न लिखना ही एक श्रेष्ठ उपाय है। ऐसा क्या है जो उनकी कहानियों को विशिष्ट बनाता है तो वह है वक्त के साथ विषय का चयन। यह चयन ही उनकी कहानियों का सबसे बड़ा फलक है। वह आसमान की तरह अपने विषयों को विस्तार देती हैं और शब्दों की पोटली में इसे समेट लेती हैं। अपनी कहानियों में वह कहीं भी हड़बड़ाहट नहीं दिखाती न ही उनके पात्रों को कुछ भी कर गुजरने की जल्दी या हड़बड़ाहट है। एक शान्त प्रवाह जो पाठक को बहा लेता है और पाठक समय को हल्का-हल्का सरकते हुए देखता है। वह अपने पात्रों से विद्रोह कराने के बजाय परिस्थितियों से विद्रोह कराती हैं। उनके पात्र लड़ते नहीं, दृढ़ रहते हैं। उनकी कहानियों की नारी पात्र उग्र नहीं होतीं। लेकिन वह लड़ती हैं, व्यवस्था के खिलाफ। बेकार की झंडाबरदारी के बजाय वह तर्कों के साथ अपनी बात रखती हैं और पाठकों को लगता है कि हां यह इस पात्र ने सही किया। पात्रों की यह विश्वसनीयता लेखक की विशिष्टता होती है।

मैं उनकी कहानियों में सबसे बड़ी ताकत रिश्तों की बारीकी को मानती हूं। कई बार लेखक पाठकों, संपादाकों के दबाव में आकर लिखते हैं, जो दुनिया में घट रहा है उसे पहले लिख देने के दबाव में लिखते हैं। यदि कोई महिला लेखिका घर-परिवार के बारे में लिखे तो उसे पुराने ढरे् या शैली की करार दे दिया जाता है। लेकिन स्वाति तिवारी ताजे, नवीन अनछुए विषयों के साथ-साथ सरोकारों से जुड़े विषयों पर लिखती हैं। उन्हें नए-नए विषयों को सिफ लिख डालने की हड़बड़ी नहीं है। उनके पात्र आसपास से आते हैं और वह बहुत संतुलित तरीके से उन्हें गढ़ती हैं। उनकी कहानियों में चाचा, चाची, घर, मामा, भाई, बहन जैसे कई पात्र होते हैं जिन्हें पढ़ कर लगता है ऐसा पात्र आपके आसपास रहा है या ऐसे किसी व्यक्ति को आप बरसों से जानते रहे हैं। वह विश्वसतनीय पात्रों को गढ़ती हैं और उनकी कहानियों की विश्वसनीयता अपने आप बढ़ जाती है।

यह विश्वसनीयता का ही कमाल है कि उनकी हंस जनवरी 2014 के प्रकाशित कहानी “कहां है सबसे पास ऐसा” को सन 2014 की बेहतर कहानियों में से एक मानी गई है। वह कभी पुरुषवादी समाज पर कटाक्श नहीं करतीं, न कोसती हैं। वह बस आपके सामने चित्र खींचती हैं और उस चित्र में सबके लिए एक खांचा है। अब पाठक को तय करना है कि किस खांचे में नायक है और किस खांचे में खलनायक। स्थिति ही बता देगी कि कौन पात्र गलत है। वह अपनी ओर से न जजमेंट देती हैं और न ही अपनी राय पाठकों पर थोपती हैं। यही उनकी सबसे बड़ी सफलता है और उपलब्धि भी।

 

- आकांक्षा पारे काशिव

शिक्षा: जीवविज्ञान में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर से स्नातक. वहीं से पत्रकारिता में डिप्लोमा. उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर.

निवास:  नई दिल्ली

रचनाएँ : पहली ही कहानी ‘तीन सहेलियां तीन प्रेमी’ के लिए प्रतिष्ठित रमाकांत पुरस्कार. दस साल से पत्रकारिता में सक्रिय. अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी और कविताएं प्रकाशित. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के कार्यक्रम श्रुति में एकल पाठ और ‘पलाश के फूल’ का मंचन. ‘एक टुकड़ा आसमान’ शीर्षक से कविताओं की पुस्तिका प्रकाशित. कुछ कहानियाँ उर्दू, अंग्रेजी और कन्नड़ में अनूदित.

सम्मान : इंदौर, मध्यप्रदेश में इंदौर प्रेस क्लब एवं प्रभाष जोशी न्यास द्वारा पत्रकारिता सम्मान.
इला-त्रिवेणी सम्मान 2011
संडे इंडियन के साहित्यिक अंक में एक सौ ग्यारह लेखिकाओं में स्थान.
जर्मनी के ट्यूबिंगन विश्वविद्यालय के कर्मेन्दु शिशिर शोधागार द्वारा निर्मित साहित्यिक वीडियो पत्रिका साझा में कविताएं शामिल.

संप्रति: आउटलुक हिंदी में फीचर सम्पादक.

 

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