इंतज़ार मेरी पत्नी की किताब का

बाज़ार में इन दिनों नयी नयी किताबें धड़ल्ले से आरही हैं। टीवी चैनल्स और अखबार उन्हें हाथों हाथ समेट रहे हैं। इनके लेखकों के इंटरव्युओं की भरमार है। ये आम कहानियों, उपन्यासों वगैरह को भी पीछे धकेलते हुए घोटालों, रहस्यों और उन पर से पर्दाफ़ाश के तिलिस्मी सिलसिलों से भरपूर होती हैं, जिनमें कभी कहीं से गड़े मुर्दे सामने आ जाते हैं, कभी ‘पगड़ियां’ उछलने लगती हैं, कभी पात्रों के मुंह अचानक स्याह हो जाते हैं, कभी किसी ‘बलि के बकरे’ की बोटियाँ लोग चटखारे ले ले कर चाबते हैं, और कभी देखते ही देखते जाने पहचाने चेहरों से भी परतें दर परतें निकलती दिखाई देती हैं।

इतिहास गवाही दे सकता है कि भारत में लेखकों के अलावा जिन लोगों ने ऐसी किताबें ‘लिखी’ होती हैं, उनमें कुछ खिलाड़ियों को छोड़ कर ज़्यादातर अवकाश प्राप्त बाबू और नेतालोग ही होते हैं। वैसे ऐसा नहीं है कि किताब केवल रिटायर्ड दाग़दार नेता ही लिखते हों। ऐसे नेता भी जो हाशिये पर आगये या कर दिए गए हों, अपनी और अन्य लोगों की ज़िंदगी में कुछ समय तक हलचल मचाने की इस जादुई छड़ी का लाभ प्राप्त करते हैं। इसी कड़ी में कुछ भूतपूर्व मंत्री आगे चल कर अपनी ‘आत्मकथा’ भी लिखवाते हैं, जिसमें तमाम बे-सिरपैर की बातें तो होती हैं, पर उन सारी असली घटनाओं के कंकालों को वे पूरी तरह से अलमारी में ही दबा रहने देते हैं जिनके कारण उनको बे-आबरू करके मंत्रालय-रूपी कूचे से निकाला गया था। ऐसे महानुभावों को आदम जात की याददाश्त के बारे में पूरी जानकारी होती है जिसके तहत इस बात की सम्भावना बनी रहती है कि पांच दस साल के बाद छिपी हुई ये ‘फ़िज़ूल’ बातें तो आकाश में विलीन हो जाएँगी और पृथ्वी पर रह जायेगी सिर्फ़ छपी हुई उनकी ‘सच्ची’ आत्मकथा।

ऐसे सरकारी रिटायर्ड बाबू और मंत्रियों की कमी नहीं है जिनका रिश्ता सेवाकाल में हमेशा विवादों और भ्रष्टाचारों से रहता है और जिसके चलते अलग अलग जाँच रिपोर्टों में उनके नाम और इल्ज़ाम उछलते हैं। मीडिया के लोगों की लाख कोशिशों के बावजूद वे तब कोई स्पष्टीकरण देने की ज़रूरत से बचते रहते हैं। जिस तरह न्यायालय में कोई भी बात कहनी हो तो हलफ़नामे के ज़रिये कहनी पड़ती है, उसी तरह अगर किसी मंत्री या रिटायर्ड बाबू को कुछ सफ़ाई पेश करनी हो तो वे घोषणा करते हैं – “मैं फलाना फलाना जो भी कहूँगा किताब में कहूँगा और किताब के अलावा कहीं और नहीं कहूँगा।” सरकार से रिटायर होते ही वे किताब लिख कर अपनी सफ़ाई में सब सरकारी कच्ची पक्की बातों की ‘पोल’ खोलते हैं, हाईकमान को लपेटते हैं, अख़बारों की सुर्खियाँ बटोरते हैं, चैनलों में इंटरव्यू देते हैं और दामन झटक कर खुश हो जाते हैं। चूंकि सारे राज़ किताब के ज़रिये खोले गए होते हैं, इसलिए दुनियां को उनकी बात माननी पड़ती है। आगे का नया काम अब जो कुछ पैदा होता है, वो हाईकमान का होता है।

समय के ऐसे संक्रमण काल से हम गुज़र रहे हैं, जब अपनी सफ़ाई में कहने से, वक्तव्य देने से, या अख़बारों में छपवाने तक से कोई मानता ही नहीं है, जब तक कि उसी को किताब में लिख कर नहीं बताया जाय। शायद इसलिए कि अखबार को बताई बात तो कुछ दिनों में रद्दी के भाव बिक जाती है और रेडियो, न्यूज़ चैनलों को कही बात कुछ दिनों में हवा हो जाती है। किताब में कही बात जो होती है, वो अच्छी तरह से बंधी और सिलाई की हुई होती है इसलिए टिकाऊ होती है। अगर उसमें मोटी ज़िल्द हो तो और ज़्यादा मज़बूती आजाती है, उसका महत्व और ज़्यादा हो जाता है और वह पाक साफ़ होजाती है। भले ही नेताजी की छवि सच का सामना करने वालों में न रही हो, पर उन्होंने अगर कुछ भी किताब में छपा दिया तो उसको सच न मानने का कोई कारण ही नहीं बनता है!

एक ज़माना था जब भारत देश में लोगों का मुख्य आहार चावल, रोटी, दाल बताया जाता था। पर विकास के इस युग में खानपान में काफी अंतर आगया है। हालाँकि आमलोगों का दैनिक भोजन तो अब भी वही है, पर मंत्रियों और नेता लोगों का खानपान बहुत उच्च श्रेणी का होता जारहा है। अब वे तोप, हेलिकॉप्टर, लड़ाकू विमान, ट्रक, कॉफ़िन, कोयला, लोहा-सीमेंट, रेत-मिट्टी, ब्रॉडबैंड जैसी वस्तुएं खाते हैं। यह बात अलग है कि कोई भूमि-पुत्र नेता चारा भी खा लेता है। वैसे कुछ तो पीने के नाम पर ईराक का डीज़ल-तेल भी पीते पिलाते हैं। आगे चल कर तब बदहज़मी की अवस्था में देश को जांच आयोगों जैसी प्रक्रिया से उनका इलाज ढूँढ़ना पड़ता है और अदालती ‘डॉक्टरों’ द्वारा उनको अधिक भोजन कर लेने के दुष्परिणाम के कारण एक छोटे बंद अँधेरे कमरे में रख कर उगलवाने या अधिक न खाने के लिए पाबन्द किया जाता है।

चाहे किसी भी पार्टी के क्यों न हों, ज़ाहिर है नेतालोग आपस में एक चद्दर के तानेबाने की तरह होते हैं जो चद्दर को फटने से बचाते हैं। लेकिन चद्दर मैली तो हो ही जाती है जिसके धोने का स्थान केवल चौराहा होता है। जब मैली चद्दर चौराहे पर धुलने लगे तो काफ़ी कुछ मैल तो धुल जाता है पर नया चढ़ भी जाता है। उस नए मैल को धोने के लिए फिर से चद्दर चौराहे पर पहुँच जाती है। कई बार यह चद्दर धुल धुल कर फट तक जाती है। फिर एक नई चद्दर बन कर आ जाती है और जल्दी ही मैली होनी शुरू हो जाती है। यह सिलसिला देश में चल रहे अन्य ‘कार्यक्रमों’ और योजनाओं की तरह ही चलता रहता है। साल दर साल, पार्टी दर पार्टी, नेता दर नेता, सरकार दर सरकार…।

जब भी कोई निराश, रिटायर्ड नेता या घोटालों में ‘स्वनामधन्य’ बाबू किताब लिखने की घोषणा करता है तो परम्परा रही है कि कुर्सी पर बैठे मंत्रियों और बड़े अफ़सरों के होश फाख़्ता होजाया करते हैं। हाईकमान के होशोहवास को परिंदगी में तब्दील कर देने के अलावा किताब लिखने की घोषणा करने का दूसरा सबसे बड़ा फ़ायदा यह रहता है कि उस व्यक्ति को कम से कम उस वक़्त और किताब आने तक तो अख़बारों और न्यूज़ चैनलों के पिछलग्गुओं को सफ़ाई देने से छुट्टी मिल जाती है। आने के बाद लेखक फ़रिश्ता और किताब सारे संशयों से परे बाइबिल या गीता की तरह सर्वमान्य और पवित्र हो जाती है। इसमें लिखी हर बात अक्षरशः सत्यवादी हरिश्चन्द्र के मुंह से निकली हुई मानी जाती है।

जब कोई नेता लिखने पढ़ने की बात करता है तो उनके प्रति कई तरह के मिश्रित भाव पैदा होने लगते हैं – कभी उनकी अब तक अनजानी, छुपी हुई इन ‘क्षमताओं और काबिलियत’ पर श्रद्धा और गर्व, सरकार में रह कर देश की लंबे समय तक ‘सेवा’ करते रहने के दौरान अब तक उन्होंने ज्ञान का सबूत नहीं दिया उस पर अफ़सोस, अपनी ‘लियाक़त’ को दबा कर अपना चिर-परिचित भ्रांत, ‘भुक्खड़’ चेहरा ही देश को अब तक दिखाते रहने पर आश्चर्य, और इसी तरह के कई अन्य भाव। लोग सोचते हैं, कैसी विडम्बना है कि देशवासी केवल उनकी अभद्र गंवारू भाषा ही देख पाए, उन्होंने उसमें लिपटी लिख सकने की उनकी अदृश्य असाधारण प्रतिभा को नहीं देखा!

लेखन सम्बन्धी विवशता की बातें सुन कर कुछएक भूतपूर्व मंत्री अपने आप को ‘बौद्धिक’ सिद्ध करने के लिए ताल ठोक कर कह देते हैं कि उनके ताल्लुक़ात विदेश के बड़े बड़े लेखकों के साथ रहे हैं, जिनमें एक दो नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं। वे दावा करते हैं कि उन लेखकों के साथ उनका आपस में निजी ‘पत्र-व्यवहार’ तक भी रहा है। निश्चित ही यह बात उनके एक बौद्धिक होने का अहम सबूत है। बाद में पता चलता है कि यह तथाकथित ‘पत्र-व्यवहार’ उस वक़्त का होता है जब वे कुर्सी-शुदा मंत्री थे और विदेश यात्राओं के दौरान वे इन लेखकों के घर जाकर उनकी प्रशंसा करने के बाद भारतीय महापुरुषों की जीवनियाँ और देश की कला, संस्कृति को दर्शाने वाले तोहफ़े भेंट दिया करते थे, जिनके जवाब में उनके पास बाद में उन लेखकों का धन्यवाद-पत्र आता था।

राजनीति में ‘काग़ज़ी’ बल की बजाय वास्तविक बाहुबल का ज़्यादा महत्व रहा है। इसीलिए स्कूल कॉलेजों में समय गंवाने की जगह भावी नेतालोग उतने समय का सदुपयोग खुद का शरीर बनाने और विरोधियों वगैरह का शारीरिक हुलिया बिगाड़ने जैसी स्वास्थ्यवर्द्धक दिनचर्या में, या फिर हाथ की सफ़ाई सीखने में करते हैं। कुछ भूले भटके नेता ही ऐसे होंगे जिन्होंने पढ़ाई लिखाई में व्यर्थ समय गंवाया हो। बहरहाल, जिन लोगों की स्मरण शक्ति अच्छी है, वे भी गवाही देंगे कि शायद ही ऐसे बिरले होते हैं जिन्हें अपनी शैक्षिणिक योग्यताओं के कारण या उनके बावजूद, हिंदी अंग्रेज़ी या किसी भी भाषा में धाराप्रवाह बोलने या अच्छी तरह लिखने का अभ्यास होता है। ज़ाहिर है ऐसे लोग भले ही किताब लिखने की घोषणा कर दें, पर लेखन में हाथ की तंगी के कारण उनके लिए मूलभूत समस्या किसी ‘भूत-लेखक’ (गोस्ट राइटर) को जुटाने की रहती है। इस प्रक्रिया में भी यह डर हमेशा बना रहता है कि कहीं आगे चल कर भूत लेखक अचानक गायब होकर उसी सामग्री से खुद अपनी किताब न लिख दे और उसी के बारे में वे ही सारी कच्ची पक्की बातें खोल कर ‘बैस्ट सैलर’ न निकाल दे। जो भी हो, नेताओं को अपनी ‘आत्मकथा’ लिखवाने की सतत जिज्ञासा के कारण कई पढ़े लिखे टाइप के खाली बैठे लेखकों को कुछ समय के लिए काम मिलने की आशा तो बंध ही जाती है। ये बात अलग है कि कुछ अच्छी खासी नौकरी कर रहे नौजवान भी कामधाम छोड़ कर लेखक बनने की सोचते हैं और कुछ तो सचमुच बैस्ट सैलर लेखक बन भी जाते हैं। नेताओं के बीच ऐसे लेखकों की मांग ज़्यादा रहती है।

कुछ भूतपूर्व नेता जवानी में सरकारी बाबू हुआ करते हैं। रिटायर्ड बाबू से नेता बनने के बीच केवल एक चुनाव का फ़ासला होता है। नेताओं की जी-हुज़ूरी में बाबूगिरी की नौकरी का सारा समय ‘बर्बाद’ हुआ महसूस करने के बाद सदियों से आज़माई उसी तकनीक का सहारा लेकर बाद में कुछ सत्ताधारी पार्टी में शामिल हो जाते हैं और बाद में मंत्री बनने में भी सफलता प्राप्त कर लेते हैं। पर राजनीति में जी-हुज़ूरी का सिलसिला कहाँ बंद होता है? अपने दोनों अवतारों के कार्यकाल में पूरी निष्ठा के साथ की गई पार्टी हाईकमान परिवार की कई पीढ़ियों की चमचागिरी के बावजूद आहत होकर अपमान, दुर्गति, और बेवफ़ाई का बदला आखिरकार वे किताब लिख कर लेते हैं और हाईकमान को कटघरे में खड़ा कर देते हैं। लोगों को आश्चर्य और कौतूहल होता रहता है कि अपनी बेशक़ीमती ज़ुबान के ज़रिये पहले या बाद में हाईकमान से साफ़ साफ़ बात कर लेने की बजाय उन्होंने किताब के ज़रिये ही बात करने की क्यों ठानी। पर कई बार हाईकमान द्वारा भी ईंट का जवाब पत्थर से दिया जाता हैं। वक्तव्य आता है कि उसे ऐसी बातों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। ‘हाईकमान’ द्वारा भी घोषणा की जाती है कि उस पुस्तक में उठाये सवालों का जवाब वह भी शीघ्र ही एक नई किताब में देंगी (देंगे, अगर हाईकमान पुल्लिंग हो तो)!

किताब लिखने का असर बड़ा व्यापक और प्रेरणास्पद होता है। मंत्रियों, नेताओं से होता हुआ ये मेरे घर में भी दाखिल होगया है। मेरा बेटा जब कॉलेज जाने की बजाय दोस्तों के साथ गुलछर्रे उड़ाता है और मैं उसके इम्तिहान के नंबर जानने के लिए उससे सवाल करता हूँ तो यही कहता है कि इसका जवाब वह अपनी किताब में ही देगा जो वह लिखेगा। और तो और, अब स्थिति ये है कि जब भी पत्नी से मेरा झगड़ा होता है और मैं उसकी ग़लतियाँ बताता हूँ तो कहती है अब उसे ऐसी बातों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। किसी प्रकरण में अगर स्पष्टीकरण मांगता हूँ तो उत्तर होता है अब वह जल्दी ही एक किताब लिखने वाली है और मेरी सब बातों का जवाब वह उसमें ही देगी!

मेरे पास कोई विकल्प नहीं है। तब तक मुझे केवल इंतज़ार करना है।

- कमलानाथ

कमलानाथ (जन्म 1946) की कहानियां और व्यंग्य ‘60 के दशक से भारत की विभिन्न पत्रिकाओं में छपते रहे हैं। वेदों, उपनिषदों आदि में जल, पर्यावरण, परिस्थिति विज्ञान सम्बन्धी उनके लेख हिंदी और अंग्रेज़ी में विश्वकोशों, पत्रिकाओं, व अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में छपे और चर्चित हुए हैं। हाल ही (2015) में उनका नया व्यंग्य संग्रह ‘साहित्य का ध्वनि तत्त्व उर्फ़ साहित्यिक बिग बैंग’ अयन प्रकाशन, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है तथा एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है।

कमलानाथ इंजीनियर हैं तथा अंतर्राष्ट्रीय सिंचाई एवं जलनिकास आयोग (आई.सी.आई.डी.) के सचिव, भारत सरकार के उद्यम एन.एच.पी.सी. लिमिटेड में जलविज्ञान विभागाध्यक्ष, और नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टैक्नोलोजी, जयपुर में सिविल इंजीनियरिंग के सहायक प्रोफ़ेसर पदों पर रह चुके हैं। जलविद्युत अभियांत्रिकी पर उनकी पुस्तक देश विदेश में बहुचर्चित है तथा उनके अनेक तकनीकी लेख आदि विभिन्न राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं व सम्मेलनों में प्रकाशित/प्रस्तुत होते रहे हैं। वे 1976-77 में कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय (अमरीका) में जल-प्रबंधन में फ़ोर्ड फ़ाउन्डेशन फ़ैलो रह चुके हैं। विश्व खाद्य सुरक्षा और जलविज्ञान में उनके योगदान के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय सम्मान भी मिल चुके हैं।

वर्तमान में कमलानाथ जलविज्ञान व जलविद्युत अभियांत्रिकी में सलाहकार एवं ‘एक्वाविज़्डम’ नामक संस्था के चेयरमैन हैं।

 

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