आखिरी बार

 

धरती घूमते – घूमते
बहुत दूर निकल आर्इ है
सूरज दूर छूट गया है
पहाड़ी को पार कर
लौट आर्इ है
छोटी बहन
स्कूल से
बकरियों को लेकर
जंगल से अब तक
नही लौटी है माँ
बाबूजी ढूंढ़ने गये हैं
जंगल में
छोटी बहन बताती है
और बेलने लगती है
रोटी
मैं खरकन खोलता हू
हो∙∙ ही∙∙ ली∙∙∙
एक – एक कर
घुसने लगती हैं
बकरियाँ
माँ बड़बड़ाती है
कल से जंगल
नही जाएंगी बकरियाँ
मैं असमंजस में पूछता हूँ
क्यों ?
कल से डोजरिंग होगा
खदान खुलेगा वहाँ
आखिरी बार हमदोनों
जी भरके देख रहें थे
जंगल को
और पेट भरके बकरियाँ
माँ का गला भर आया था।

 

-  लालदीप गोप

शिक्षा : एमएससी एवं पोस्ट ग्रेजुएट डिपलोमा इन हूमन राइटस
प्रकाशित रचनाएँ : ”तीसरी दुनिया के देश और मानवाधिकार”, विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविता कहानी एवं आलेख प्रकाशित
संप्रति एवं पता : डिपार्टमेंट आफ पेट्रोलियम इंजिनियरिंग , आर्इ0 एस0 एम0 धनबाद, झारखण्ड

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