दिसम्बर माह की ठिठुरती हुई एक सर्द दिन। शायद ठंड अपने आखरी पड़ाव की ओर अग्रसर थी। इतनी ठंड की उपर से नीचे, इतने सारे कपड़ो से धके हुए शरीर मे भी गर्मी का एहसास ही नहीं था कोई। कई दिन हो गए थे, धूप दिखी भी नहीं थी। काउंटर पर बैठा, मैं अपने कस्टमर का इंतजार कर रहा था…, पर दो धंटे हो गए मुझे यूँ ही बैठे, पर कोई भी न आया। सोचा, चलो सामने की दुकान से चाय ही पी आये, रोज तो इतनी भीड़ रहती थी, कि कब चाय आई और ठंडी हो गयी पता ही नहीं चलता था। कुछ टाइम भी पास हो जायेगा, ये सोच कर चाय की दुकान पर चला आया।
चाय वाले के चूल्हे के पास जा कर, कुछ ठंड से राहत मिली। गरमा – गरम चाय का कप हाथ मे आते ही लगा, एक नई जान सी शरीर मे आई हो। चाय की चुस्की लेते बरबस ही नजर, चाय के कप धोते हुए उस बच्चे पर चली गयी। और दिन होता तो शायद ध्यान भी न जाता उस पर, पर आज ….
उस बच्चे को देख कर मेरा मन कांप सा गया। इतनी ठंड और कपडे के नाम पर सिर्फ इक पुरानी फटी मैली सी शर्ट…, और बच्चा बड़ी ही तन्मयता से अपने काम मे लगा था। जैसे ठंड हो ही न। उफ़…
चाय वाले से पुछा… ये बच्चा कौन है।
जबाब आया अनाथ है साहब, यहाँ काम पर रख लिया… दो वक्त के रोटी का तो इंतजाम हो जाता है इसका।
लेकिन इतनी ठंड है, एक – दो गरम कपडे ही दिला दो इसे… ठंड लग गयी तो …
साहब, ठंड तो हम गरीबो के लिए एक अभिशाप है…
कह कर रुक गया वो… शायद वो कुछ और कहना चाह रहा था, पर हिम्मत नहीं कर पाया।
मैं भी ज्यादा देर वहां रुक नहीं सकता था। मेरी काउंटर पर कोई आ गया था, तुरंत चाय के पैसे दिये और वापिस आ गया।
काम मे लगा तो वक्त का पता ही नहीं चला, कब शाम हो गयी, बात आई गयी सी हो गयी।
पर जब घर के लिए निकलने लगा, तो बरबस ही निगाह, फिर उस चाय वाले के दुकान पर चली गई।
पर शायद वो दोनों जा चुके थे।
सहसा मेरी आँखों मे एक विचार सा कौंधा, और … और मेरे कदम पास के बाजार की ओर अनायास ही मुड चले।
कुछ गरम कपडे उस बच्चे के लिए और घर की तरफ चल दिया। पत्नी ने आश्चर्य से देखते हुए मुझसे पूछा, ये क्या है…, किसके लिए लाये हो…
मैंने उसे सारी बातें ज्यों कि त्यों बता दी। उसकी आँखों मे भी चमक सी आ गयी, वोली…
जब वो, पहने तो उसकी आँखों मे आई चमक कैसी थी, मुझे बताना जरुर।
इसी उहापोह में रात काटे नहीं कट रही थी, किसी तरह करवट बदलते रात कटी। तैयार हो कर और कपडे का थैला ले कर काम पर जल्दी जल्दी चला आया, कि आज उस बच्चे को मैं ये कपडे दूंगा और … और …
शायद जिन्दगी मे मैं ऐसा पहली बार कर रहा था… इसलिए मन मे अजीब सी बेचैनी भी थी।
लेकिन ये क्या, आज तो चाय वाला आया ही नही…
उफ़ अब क्या करू मैं, किससे पुछु… , सोचा चलो कोई बात नहीं, कल दे दूंगा।
काम मे आज, पता नहीं क्यों मन नहीं लग रहा, बार-बार नजर बाहर जा कर देख लेती, कि कहीं वो चाय वाला आया तो नहीं। पर शायद उसे आज नहीं आना था, और नहीं आया।
बुझे मन से घर वापस आ गया, पत्नी को भी शायद मेरा इंतजार था, आते ही पूछ बैठी। क्या बताता उसे, क्यों नहीं आया वो आज।
कल ….
परसों….
दो दिन तो यही सोचने मे निकल गया कि, क्यों नहीं आया वो….
तीसरे दिन, वो चाय वाला मुझे दिख गया, आज शायद देर से आया था, अभी अपनी दुकान लगा ही रहा था…
कि मैं लगभग दौड़ते हुए उसके दुकान पर पहुचा… लेकिन वो बच्चा … कहाँ रह गया …
मैंने दुकान वाले से पूछाः तो ….
बाबूजी… उसे ठंड लग गयी थी, सरकारी अस्पताल मे ले गया था, परन्तु वो … … वो नहीं रहा…
कल उसका क्रियाकर्म किया था…
पेट का सवाल था बाबूजी… इसलिए आज आना पड़ा…
मैं उसकी आँखे तो नहीं देख पाया, परन्तु… मेरी आँखों से दो बूंद जरुर गिर पड़े…
और मैं बुझे कदमो से वापस आते बस यही सोच रहा था कि क्या वास्तव मे ठंड अभिशाप है…. या गरीबी …
- डॉ ज्ञान प्रकाश
शिक्षा: मास्टर ऑफ़ साइंस एवं डॉक्टर ऑफ़ फिलास्फी (सांख्यकीय)
कार्य क्षेत्र: सहायक आचार्य (सांख्यकीय), मोतीलाल नेहरु मेडिकल कॉलेज इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश ।
खाली समय में गाने सुनना और कविताएँ एवं शेरो शायरी पढ़ना ।