अबके बरस मैं खेलूंगी ई-होली

मैं ना खेलूं रे होली – पिछली बार कितनी मिन्नातें की थीं, कितनी दुहाई दी थी, यहां तक कि अखबार में भी लिख कर सबको एडवांस में रिक्वेस्ट भी की थी – मैं ना खेलूं होली रे… फिर भी कोई माना नहीं। सबने रंग पोते- काले-पीले-नीले, सारे के सारे! वो तो अच्छा है कि मैं मुंबई में हूं, कहीं किसी गांव में होती तो होली के बहाने गोबर और राख से सान दिया होता लोगो ने। लोगों ने नहीं अपनों ने ही….वो भी खास अपने ने. शुरूआत ही पतिदेव ने की, उसके बाद मौका मिल गया लोगों को रंगने का या कहें अपनी कुढ़न निकालने का. होली के दिन कौन छोड़़ता है?

मैं तो पक्की नारीवादी हूं। जहां भी, जब भी मौका मिले पुरुषों को कोसना शुरू कर देती हूं…मगर होली के दिन उलटा हो गया। सभी नारियों ने मिलकर मुझे ऐसा रंगा कि राधा भी इतनी न रंगी होगी श्याम रंग में…कबीर की झीनी-झीनी चदरिया भी कभी इतनी न मैली हुई होगी….जितनी कि मेरी सहेलियों ने कर दी।

एकता कपूर के सीरियल देख-देखकर मेरा भी मन ललचा जाता है सजने-धजने का। आखिर मैं भी एक औरत हूं। मैंने होली के लिए डिजाइनर साड़़ी खरीदी और पहनी भी। पति के डेबिट कार्ड से शॉपिंग भी की। उस दिन मॉल में घूमते हुए मेरी आत्मा को कितना सुकून मिला था। आहा.. मगर बुरा हो इन सहेलियों का।

मेरा गेटअप देख कर सब जल-भुन गई थीं। होली तो रात में जली थी और अब ये मुझे देखकर जल रही थीं। सौतिया डाह नहीं, पड़़ोसिया-डाह में आकर इन नासपीटियों ने पहले तो खूब सारा रंग पोता, फिर रंग भरी बाल्टी उड़़ेल दी। एक – दो नहीं पूरे बीस बाल्टी। वैसे तो इन मुइयों से घर में एक गिलास नहीं उठाया जाता, सब काम, बाइयां करती हैं मगर मेरी डिजाइनर साड़़ी की जलन में बाल्टी भर-भर के पानी डाला मुझपे।

उस पर भी जी न भरा तो आइल पेंट चुपड़़ दिया मेरे नाजुक गालों पर, रेशमी बालों पर। दो दिन पहले ही ब्यूटीपार्लर में घंटों सिटिंग कर के आई थी। मेरे सारे ब्यूटी केयर, हेयर केयर की वाट लगा दी। मेरी डिजाइनर साड़ी से जली-भुनी पड़ोसनों जी भर कर भड़ास निकाली। ‘होली के दिन दुश्मन भी गले मिल जाते हैं…’ गाने से इंस्पायर्ड होकर मैंने अपनी एक झगड़ालू पड़ोसन को रंग लगा कर दोस्त बनाना चाहा तो वह मुझ पर बिदक गई। मन हुआ कि उस लुच्ची की चुटिया खींच लूं। पर वह मुझसे हट्टी-कट्टी थी। मन मसोस कर रह गई मैं। आगे एक बुढ़ऊ अंकलजी ने मुझे घेर लिया। महीनों से मुझे लाईन मार रहे थे। आज मौका मिला तो मुझ पर आइल पेंट लगा दिया। जी में आया एक लात जमा दूं पर सबर कर गई। मैं तो हर्बल इकोफ्रेंडली कलर्स लाई थी होली खेलने के लिए। मगर इन शहरी गंवार, जाहिल पड़ोसिनों ने जाने कौन-से सड़े रंग लगाए कि जबान कड़वी हो गई आंखें जलने लगीं। ठंडई बांटने वाले पड़ोसी ने मेरी ठंडई में इतनी भंग मिलाई कि मुझे चढ़ गई। एक बार जो मैं हंसी तो हंसती रही। कभी पेट पकड़ कर, कभी गाल पकड़ कर, कभी सिर पकड़ कर… जान बचाकर घर पहुंची तो वहां नया सीन एिट हो गया – पतिदेव मेरी शॉपिंग की वजह से मुंह फुलाए बैठे थे। बेटे ने दरवाजा खोला और देखते ही डर गया। शिनचैन की तरह चीखकर बोला – ‘पापा, देखो कोई चुड़़ैल आ गई है, बच्चे चुराने वाली खूसट बुढ़िय़ा.’ और उसने मेरे मुंह पर दरवाजा दे मारा। जी में आया कि कान के नीचे बजाऊं उसके। मगर गम खाकर रह गई। लाख समझाने के बाद बड़ी मुश्किल से मुझे अंदर आने दिया। नहाने गई तो फिर मुसीबत। बीच में ही पानी चला गया। अगले दो दिन तक पानी कटौती चलती रही। बुरा हो इन मुंसीपाल्टीवालों का ….ये भी दुश्मन निकले मेरे….दिनों निकल गए होली के रंग छुड़ाने में…

इसलिए अपन ने तो सोच लिया है इस बार अपन ‘हार्ड होली’ नहीं खेलेंगे, खेलेंगे तो ‘सॉफ्ट होली’। नहीं समझे ‘ई-होली’ यानी इंटरनेट पर होली खेलेंगे। पिछले साल का गिन-गिन के बदला लूंगी. सारी सहेलियों के आई डी मेरे पास हैं। पहले ही एक फेक आई डी बनाली है मैंने। अब उसी से सबको होली के ऐसे-ऐसे ई-कार्ड मेल करूंगी कि सब सन्न रह जाएंगी।

नेट यूजर तो सारी सहेलियां हैं यही नहीं उनके पति भी. इस फेक ई-मेल से जाएंगे उनके पतियों को लव मेसेजेस और पत्नियों को वॉर्निंग कि उनके हसबैंड का किसी से लफड़़ा चल रहा है। ऐसे स्क्रैप भेजूंगी कि उनका दिमाग स्क्रैप हो जाएगा। उनके वॉल पर ऐसा पोस्ट करूंगी कि पूरी दीवाल बदरंग हो जाएगी।इतना ब.ज करूंगी कि सब बजबजा जाएंगी, इतना ट्वीट करुंगी कि लाइफ ट्विस्ट हो जाएगी। फिर नीचे लिखूंगी – बुरा न मानो होली है।
इस तरह मैं एक कौड़़ी भी खर्च किए बिना, होली मना लूूंगी. सारे रंग ई-कार्ड के जरिए भी खेलूंगी। रियल में न रंग, न कोई प्रदूषण. ईकोफ्रेंडली होली। यानी कि ई-होली और रंग चोखा. वॉट एन आईडिया सुमनजी।
शायद अगले साल पर्यावरण बचाने का नोबल पुरस्कार मुझे ही मिल जाए..

….बुरा न मानो होली है ।

- सुमन सारस्वत


रेडियो, दूरदर्शन और पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखते-लिखते पत्रकारिता में डिप्लोमा कर जनसत्ता मुंबई में उपसंपादक की नौकरी की। जब २००२ में जनसत्ता का मुंबई संस्करण बंद हुआ तो स्वेच्छा सेवानिवृत्ति के बाद रचनात्मक लेखन के साथ-साथ हिंदी साप्ताहिक ‘वाग्धारा’ का संपादन एवं प्रबंधन जारी है। इसी दौर में लिखी गई कहानी ‘बालूघड़ी’ पुरस्कृत हुई। परिवार और नौकरी के बीच संघर्ष करती, अपने अस्तित्व को सहेजती आम स्त्री पर केंद्रित लंबी कहानी ‘मादा’ एक आम औरत के खास जजबात को स्वर देने वाली मूलत: विद्रोह की कहानी है। यह कथा ‘आधी दुनिया’ के पीड़ाभोग को रेखांकित ही नहीं करती बल्कि उसे ऐसे मुकाम तक ले जाती है जहां अनिर्णय से जुझती महिलाओं को एकाएक निर्णय लेने की ताकत मिल जाती है। लंबी कहानी ‘मादा’ वर्तमान दौर की बेहद महत्वपूर्ण गाथा है जो विशेष रूप से चर्चित हुई। सुमन सारस्वत की कहानियों में स्त्री विमर्श के साथ-साथ एक औरत के पल-पल बदलते मनोभाव का सूक्ष्म विवेचन मिलता है। एक और कहानी ‘दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत’ भी बेहद पसंद की गई।

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