साहित्य समाज के प्रति प्रतिबद्ध होता हैं | वह समय का सजग प्रहरी हैं |साहित्य में मुखरित होनेवाले विषय ,समस्या ,प्रश्न समय के साथ परिभाषित होते रहते हैं |साहित्य परिवर्तन और प्रगति को लेकर चलता हैं |पर मानवीय मूल्यों एवं संवेदनाओं को वह दर किनार नहीं करता |वह समाज का जीता-जगता चल चित्र प्रस्तुत करते हुए समाज उन्नति की ओर दिशा निर्देश करता हैं | हिंदी साहित्य काल ,दर्शन ,वाद के भँवर से बहार निकलते हुए आज इक्कीसवी सदी में विमर्शों के दौर से गुजरता हुआ दिखाई देता हैं |युवा विमर्श ,घुमंतू विमर्श ,विकलांग विमर्श ,दलित विमर्श ,आदिवासी विमर्श ,स्त्री विमर्श ,अल्पसंख्यांक विमर्श आदि विमर्शो तथा आंदोलनों ने हिंदी साहित्य को एक नई दिशा प्रदान की हैं |
प्रश्न यह उपस्थित होता हैं कि आज विभिन्न विमर्शों को लेकर संगोष्टियाँ ,सभा ,सम्मेंलन ,चर्चा सत्र ,शोध ,समीक्षाओं द्वारा अध्ययन किया जा रहा हैं | क्या सच में ही इसकी आवश्यकता हैं ? क्या इन विमर्शों में अभिव्यक्त होनेवाली समस्यायें काल बाह्य हैं या यह सद्य स्थिति हैं ,जिसका अध्ययन करना जरूरी हैं | जब हम वर्तमान साहित्य का ओर समाज का सूक्ष्म अध्ययन करते हैं तब लगता हैं कि हाँ अध्ययन ,चिंतन ,मनन की नितांत आवश्यकता हैं | ताकि हम समाज के उन्नयन में परिवर्तन ,विकास ,सुधार के विचारों की स्थापित लहर ला सके |भले ही साहित्य अध्ययन का एक तबका इसका विरोध करता हो पर कहीं न कहीं समाज की इस सच्चाई से वे मुह मोड़ नहीं सकते | हिंदी में दलित साहित्य एक ऐसी सच्चाई को लेकर उभरा जो भोगा हुआ सत्य था | अबतक के कल्पना और सत्य के मिश्रण की अभिव्यक्ति से परें | जो पाठक के हृदय को छू गया |सालों से पूर्वाग्रह दूषित मन –मस्तिष्क को कल्पना एवं परम्परा के साँचे को तोड़ते हुए झकझोर ने वाला साबित हुआ | उसने मनो जागते हुए भी गहरी निद्रा में लिन व्यक्तियों को झटके से जगा दिया था |यह साहित्य न मनोरंजन था ,न परम्परागत रूप में शिक्षा देनेवाला |वह एक ऐसा सच था ,जो हजारों सालों से पलकों के नीचे घटित होता आया था | जिसने आजीवन घृणा ,उपेक्षा ,अपमान ,दुत्कार ,धित्कार ,डाट–डपट ,बदनामी ,पीड़ा ,गरीबी ,दरिद्रता को सहा था |वह दलित जो हमेशा से ही गुलाम था | जन्म से जिसे गुलामी का उपहार जबरन दिया गया था |हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत ‘ के रूप में वह हिंदी साहित्य में पहली बार उभरकर आया था |जिसे बाद म में प्रेमचंद,निराला,नागार्जुन की कविताओं ने तो अभिव्यक्त किया था पर स्वानुभूत सत्य की अभिव्यक्ति पिछले दो दशकों से शुरू हुई थी | मराठी साहित्य से दलित साहित्य का जन्म माना जाता हैं |उसने इसे सशक्त रूप में उभरा था | स्वाभाविक ही था कि इसका प्रभाव हिंदी पर पड़े | इसका परिणाम यह हुआ कि दलित साहित्य हिंदी के विशाल क्यान्वास पर स्पष्ट रूप में उभर कर आया |
हम दलित किसे कहे ? दलित की परिभाषा क्या हैं ? इस संदर्भ में एच.आर .गौतम कहते हैं ,-‘’ दलित कहा जानेवाला ही कभी ‘शुद्र’,’अनार्य ‘,’अच्छुत ‘ और गाँधीजी का हरिजन कहा जाता हैं | इसमें आदिवासी, घुमंतू ,अपराधशील जातियाँ ,महिलायें और बंधुवा मजदूर भी सम्मिलित हैं | सदियों से इस पर विचार किया गया हैं | इनका अपमान ,शोषण ,दलन ,प्रताडन किया गया | पशुओं से भी बदतर इन्हें माना गया हैं | ईनको छूना भी पाप माना गया हैं | भगवान और भाग्य का भय दिखाकर इन्हें यथा स्थिति में बने रहने पर विवश किया गया | दूसरे वर्णों की सेवा करना ही इनका धर्म निर्धारित किया गया | सेवा कर्म से च्युत होने पर जहां विधान में राजकीय दण्ड किये गये , वहाँ पर धर्मग्रन्थों में भी नरक का भय दिखाया गया हैं | इनमें चेतना पैदा ना हो , इसीलिए इनके लिये शिक्षा प्रतिबिम्बित रहीं | वर्णश्रम व्यवस्था द्वारा इन्हें समाज से पृथक कर दिया गया | आगे चलकर वर्ण व्यवस्था से ही जाती व्यवस्था बनी शुद्र के घर पैदा होनेवाला अस्पृश्य माना गया ,चाहे वह कितना ही विद्वान ,सदाचारी और ज्ञानी ही क्यों न हो |’’ १
पर मेंरी नजर में दलित वह हो सकता हैं जिसका शोषण सामाजिक ,राजनीतिक ,आर्थिक , सांस्कृतिक आदि सभी क्षेत्र में किया गया हो | भले ही वह फिर किसी भी जाति धर्म का क्यों न हो | किन्तु हिंदी साहित्य में दलित साहित्य पिछड़े वर्ग ,उपेक्षित ,घृणित,प्रताडित,पीड़ित,अच्छुत ,शूद्र की समस्याओं के रूप में अभिव्यक्त होता हुआ हम पाते हैं | आज जिसे दलित साहित्य कहा जाता हैं ,उसे अम्बेडकरवादी तथा गैर अम्बेडकरवादी साहित्य के रूप ,में स्पष्ट रूप में विभाजीत पाते हैं |डॉ.सूर्यनारायण रणसुभे दलित साहित्य के सम्बन्ध में कहते हैं ,’’ इस देश के श्रमिक ,शोषित,पीड़ित ,दलित एवं व्यथित इन सब की जो संवेदना साहित्य द्वारा व्यक्त होती हैं | वह दलित साहित्य कहलाता हैं |’’ २ दलित साहित्य के रूप में विभिन्न विद्वानों के विभिन्न परिभाषाएं देखी जा सकती हैं | पर हर स्तर पर किये हुए शोषण की हर आँसू ,हर पीड़ा के साथ भोगी हुई अभिव्यक्ति दलित साहित्य हैं |
समग्र दलित साहित्य का चिंतन करने से ज्ञात होता हैं कि यह साहित्य गौतम बुद्ध ,कबीर ,फुले,शाहु ,आंबेडकर के विचारों से प्रभावित हैं | यह साहित्य मानव को मानव रूप में प्रतिष्ठित देखना चाहता हैं | जिस पिछड़े समाज को कभी इंसान हीं नहीं समझा गया ,उसके साथ जानवरों से भी ज्यादा बदसलुकी की गई |वह हमेंशा पराधीन रहा | उसके साथ अपने आप को स्वर्ण समझे जानेवाली जातियों ने असमानता का बर्ताव किया | बन्धुता की भावना से वह हमेंशा वंचित रहा |ऐसे समय डॉ.बाबा साहेब आंबेडकर जैसे महापुरुष ने शिक्षा ,संघर्ष,संगठन का मार्ग बताया | यही कारन था कि दलित पढा ओर उसने अपने भोगे हुए सत्य को अपने साहित्य के माध्यम से व्यक्त किया |
हिंदी साहित्य में दलित साहित्य का बीजारोपण प्रेमचंद साहित्य से माना जा सकता हैं |इसके बाद वह कहीं खो-सा गया हैं |जो १९८० के उपरांत उभरते हुए दिखाई देता हैं |यह पौधा १९९५ के बाद लगातार फलता-फूलता नजर आने लगा हैं |कहानी,कविता,उपन्यास,आत्मकथा,संगोष्ठी ,सम्मलेन विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं ,शोध –पत्रिकाओं ,शोध ग्रंथो के माध्यम से आज वह मोहनदास नैमिशराय ,ओमप्रकाश वाल्मीकि ,हीरा डोम ,प्र.ई.सोनकाम्बले ,डॉ.सूर्यनारायण रणसुभे .दया पवार ,मणि मधुकर .डॉ.सी.बी .भारती ,डॉ.दयानंद बटोही ,सुशीला टाकभोरे ,कँवल भारती डॉ.प्रेमशंकर ,जय प्रकाश कर्दप ,कौशल्या बैसंत्री ,डॉ.सुखवीर सिंह ,डॉ.चंद्रकांत बराठे ,डॉ.सुमनपाल ,कुसूम वियोगी आदि के विशाल ओर शक्तिशाली रूप में उभरकर आ रहा हैं |
भोगे हुए सत्य कि सही अभिव्यक्ति यदि कहीं हुई हैं तो वह दलित आत्मकथाओं में |दलित ओर दलित समाज की वह जीवन गाथा साबित हुयी हैं |’जूठन ‘जैसी प्रसिद्ध आत्मकथा के लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि जी आत्मकथा के संदर्भ में कहते हैं ,’’ किसी भी दलित द्वारा लिखी आत्मकथा सिर्फ उसकी जीवनगाथा नहीं होती ,बल्कि उसके समाज की जीवनगाथा भी होती हैं |लेखक की आत्म-अभिव्यक्ति होती हैं | उसके जीवन के दुःख, दर्द,अपमान ,उपेक्षा ,आत्मकथा ,उसकी जाति एवं समाज के दुःख,दर्द और अपमान ,उपेक्षा इत्यादि को भी स्वर देता हैं |’’३ मोहनदास नैमिशराय १९९५ ‘अपने अपने पिंजरे ‘, ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘जूठन ‘ ,सूरजपाल चौहान ‘तिरस्कृत ‘कौसल्या बैसंत्री ‘दोहरा अभिशाप ‘ निमगडे ‘धुल का पंछी भादो ‘ डॉ.एल.एल.शहारे ‘यादों के झरोखे ‘डॉ.जाटव ‘मेरे सफर मेरी मंजील ‘श्यामलाल जैदिया ‘एक भंगी उपकुलपति की आत्मकथा ‘ माता प्रसाद ‘झोपडी से राजभवन ,शुशीला टाकभौरे ‘शिकंजे का दर्द ‘ आदि आत्मकथाओं में दलित की उपेक्षा ,वेदना,पीड़ा ,घृणा ,तिरस्कार ,अपमान आदि के साथ शिक्षा के प्रकाश का आगमन हुआ | नरकमय जीवन जी रहे समाज में शिक्षा ने रौशनी भरने का काम किया हैं | जिन्होंने शिक्षा ग्रहन की उन्होंने अपने समाज की व्यथा ,पीड़ा को साहित्य के माध्यम से व्यक्त करते हुए समाज को उन्नति की ओर ले जाने का प्रयास किया | डॉ.बाबा साहेब आंबेडकर जी ने ऐसी ही बात साहित्यकारों के लिए कहीं थी ,’’ हमारे देश में उपेक्षितो ओर दलितों की बहुत बडी दुनिया हैं | इसे भूलना नहीं चाहिए | उनके दुखों को उनकी व्यथाओं को पहचानना जरूरी हैं और अपने साहित्य के द्ववारा उनके जीवन को उन्नत करने का प्रत्यन करना चाहिए |इसी में सच्ची मानवता हैं |’’ ४
आज के सभ्य समाज में जी रहा इंसान उपर से अपने आपको समानता ,बन्धुता का पुजारी बताता हैं |प्रेम ,मानवता जैसी बडी-बड़ी बातें करता हैं | प्लेकिन उसी समाजका एक हिस्सा जो जातिवादी दूषित प्रवृति से ग्रसित हैं, वह दलित समझी जानेवाली जाति से अपने आप को दरकिनार करता हैं | मनो उससे कोई जगन्य अपराध होनेवाला था | या हो जायेगा | इसमें शायद उसका दोष नहीं हो , पर परम्परा ने उसके मस्तिष्क को जन्म से ही भेदभाव करना सिखाया हो |एक अच्छा भला आदमी जो अपने बुद्धिबल,परिश्रम से कार्यालय ,कॉलेज ,कम्पनी आदि स्थानों पर लोगो को अपन्व कौशल्य से प्रभावित करता हैं | लोग भी उसका लोहा मानने लगते हैं | उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा किये बगैर उनकी जबान थकती नहीं |लेकिन जब उसकी जाति का पता चलता हैं तब अचानक कोनसा साँप सूँघ जाता हैं ,पता हीं नहीं चलता |’जाति का दंश’नामक कहानी में रजनी पांडे इसी बात को अभिव्यक्त करते हुए कहती हैं ,‘’ जातियाँ भगवान ने बनाई यही बचपन से सुनते आये हैं |परन्तु जब कोई बच्चा जन्म लेता हैं तो उसके साथ कोई टैग या पहचान पत्र साथ में नहीं आता कि ‘ब्राह्मण हैं ,यह शूद्र हैं ,यह वैश्य हैं | ……….एक जैसे दिखने वाले लोग जाति बताते ही दो लकीरों के दो तरफ क्यों बंट जाते हैं |एक अच्छा भला दिखनेवाला इंसान जाति बताते ही अच्छुत एवं नीच कैसे बन जाता हैं ?’’ ५ हम चाहे जितना भी डींगे हांक ले कि आज कोई जाति-पाती ,भेद-भाव नहीं मानता हैं | पर कुत्ते की दूम को बारह महीने नली में रखने के बावजूद भी वह जैसे सीधी नहीं हो सकती वैसे ही जाति के टेढ़ी पूंछ का वायरस आज के सभ्य समाज से नहीं जा सकता हैं |
वह भले ही शरीर और भौतिक रूप से सभ्य हुआ हैं पर मन वही रहा हैं जो पहले था | इसका जीता जगता उदाहरण हम हाल ही में घटित छत्तीसगढ़ की घटना के रूप में देख सकते हैं | अंतर्राष्ट्रीय वेब पत्रिका सृजनगाथा के संपादक जयप्रकाश मानस जी ने फेसबुक के अपने वाल पपर लिखा हैं ,’’ अनुसूचित जाति ,जनजाति ,पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यांक समुदाय के हित संवर्धन के लिए केन्द्र और राज्य सरकारे कई तरह की ऋण और अनुदान की योजनायें चला रही हैं | पर हमारा बैंक उसे किस तरह मटियामेट कर रहे हैं इसका जीता जगता उदाहरण देखने को मिला हैं – छतीसगढ़ राज्य के महासमुंद जिले में | यह देश की संभवतः पहली ऐसी घटना हैं जसमें छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा अनुसूचित जाति की एक पढ़ी लिखी बेरोजगार युवती कंचन टंडन को अनुदान [मार्जिन मनी ] स्वीकृत कर आवंटन जरी करने के बाद भी महासमुंद स्थित स्टेट बैंक के मुख्य प्रबंधक ने यह कहकर सम्बंधित बेरोजगार को ऋण देने से इंकार कर दिया कि यह देश हित में नहीं हैं | ‘’ ६
आर्थिक विपन्नावस्था से गुजरनेवाले दलित समाज को भूक का सामना करना पड़ा | भर पेट भोजन की कामना केवल स्वप्न में ही हो सकती थी | तन ढकने के लिए फटे-पुराने वस्त्रों के सिवाय उन्होंने नए वस्त्र पूंजीपतियों के शरीर पर देखे थे |धुप ,वर्षा ,सर्दी, कंटकाकीर्ण मार्ग पर उन्हें बिना जूतों और चप्पल से ही काम चलाना पड़ता था | दलित कविताओं में व्यक्त समाज गरिबी ,लाचारी ,आर्थिक विषमता से जूझ रहा था | कवि दामोधर मोरे ‘मेरा बचपन ‘ कविता में ऐसी ही एक सच्चाई को अभिव्यक्ति करते हुए कहा ,’’
स्कूल जा रहा था /जूता नहीं था पांव में /
फटे लिबास /जल रहा था ,भूख की ज्वाला में /
जिंदगी ढूंडरहा था ,फटी किताब में ……./
कभी नहीं बरसा बादल बन
किसी की आँखों में …./’’ ७
उनकी तथा समाज की दुरावस्था पर किसी का मन नहीं पसीजा था | न ही किसी ने उनके उद्धार के बारें में सोचा था और न हीं उन्हें प्रगति के प्रवाह में आने दिया |
उनकी कविताओं में अभिव्यक्त होनेवाली पीढा भोगी हुई तन और मन की पीढा हैं | भीषण कष्टों , दरिद्रता, अपमान, अन्याय-अत्याचार को सहते-सहते उनमें शोषक वर्ग के प्रति घृणा विद्रोह , क्रांति के भाव ने जन्म लिया था | जन्म से जाति के छाप ने उन्हें अस्पृश्य,अछूत की उपाधि देकर प्रवाह से कोसों दूर गहरे गर्त में धकेल दिया था , उपेक्षा, आभाव, दुखों का निराशामय जीवन जीने के लिए | इसीलिए यह दलित कवि अस्पृश्यता को नाग के जहर से भी ज्यादा भयानक मानता हैं –
‘’पेड ने नागिन से पूछा
तुमसे भी जहरीला कौन हैं ?
नागिन बोली
अस्पृश्यता मुझसे भी जहरीली हैं
पेड ने पूछा
वह कैसे ?
वह बोली ,
क्योंकि अस्पृश्यता
एक ही बार हजारों को डंसती हैं |’’८
अस्पृश्यता का डसा पूरा समाज के समाज सवर्ण ,मनुवादी समझे जाने वाले समाज की नजरों में कब का मर चुका था |बची थी तो केवल लाश ,जो गिद्धों द्वारा नोच-नोच कर अपना पेट भरने में सार्थकता सिद्ध कर रही थी |
अस्पृश्यता और जातिवाद के चलते ही कई दलित परिवारों की हत्यायें की गयी | कई स्त्रियों की इज्जत लूटकर नग्न अवस्था में घुमाया गया | ‘’महाराष्ट्र के खैरलांजी में ऐसा ही एक भयानक हत्याकांड हुआ था |बाप-बेटे के सामने उनकी माँ –बहन को नंगी घुमाते हुए उनपर बलात्कार हुआ |’’ ९ कवि अपने गुस्से को रोक न सका |उस चित्र को प्रस्तुत करते हुए ‘अस्पृश्य क्या इंसान हैं ?’कविता में कहा हैं –
‘’प्रियंका भोतमांगे की
खैरलांजी में घृणित हत्या हुई
तो क्या हुआ ?
हमारा दश तो महान हैं |
प्रियंका,सुरेखा के स्तन काट दीये गये …
मात्रुअंगों में हमने गाड़ दिये
बबूल के लंम्बे-लंम्बे काँटे | ‘’ १०
मानवता को लज्जित करनेवाली ऐसी कई घटना हुई हैं और न जाने कबतक ऐसी दूषित मानसिकता का शिकार होना पडेगा | ऊपर-उपर से समानता और सभ्यता का नकाब ओढा हुआ समाज भीतर-भीतर से आये दिन अपनी पूर्वाग्रह दूषित व्यकित्व को उभरता हुआ दिखाई देता हैं | चाहे हम जितना सामंता ,स्वतंत्रता ,बन्धुता ,धर्मनिरपेक्षता का बिगुल बजाते रहे ,पर सच आखिर सच ही होता हैं ,जो वास्तविक चेहरे का खौंफनाक दर्शन करता ही हैं |
अछूत की पहली दुःख ,पीड़ा की आवाज १९१४ में सरस्वति पत्रिका में छपे हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत ‘ से उठी थी |
हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी |
बमने के लेखे हम भिखिया न मँगबाजा ,
ठकुर के लेखे नहिं लउरी चलाइबि |
सहुआ के लेखे नहिं डांडी हम जोरबजा ,
अहिरा के लेखे न कवित्त हम जोरजा ,
पबडी न बनि के कचहरी में जाइबि |’’११
गिडगिडाहट से शुरू हुआ साहित्य दुखडा रोते हुए भोगे हुए सत्य को अभिव्यंजित करता गया |धीरे-धीरे शिक्षा ,संघर्ष ,संगठन से स्वतंत्रता ,समता बन्धुता के लिए उन्ह में विद्रोह की भावना ने जन्म लिया | उन्होंने जान लिया था किअधिकार माँगने से नहीं मिलेगा उसे छीनकर लेना पडेगा | अत्याचार को सहकर अधिकार की प्राप्ति नहीं हो सकती बल्कि अत्याचार से दो-दो हाथ करने से ही मिल सकती थी |रूपनारायण सोनकर अपनी आत्मकथा ‘नागफनी’ में कहते हैं ,’’ वह आदमी बहुत बड़ा कायर होता हैं जो बगैर संघर्ष किये हुए मरता हैं | दलितों की आत्मा इतनी दबा दी जाती हैं कि वे संघर्ष करना भूल जाता हैं | वह इसीलिए सवर्णों से हर जगह पिटते रहते हैं | जिस दलित की आत्मा दब जाती हैं वह हट्टे-कट्टे होते हैं |यदि वे अपनी अतरात्मा को हट्टा –कट्टा और मजबूत बना लें तो अत्याचारी सवर्णों के अत्याचारों का माकूल उत्तर दे सकते हैं | …. दलितों को शारीरिक और आंतरिक दोनों तरह से मजबूत बनाना हैं | जिस दिन पन्द्रह प्रतिशत ग्रामीण दलितों में यह भावना आ जायेगी उस दिन सम्पूर्ण भारत में शोषण और अत्याचार का नामोनिशान नहीं रहेगा |’’ १२
जहां दलित साहित्य दलित समाज में विद्रोह ,क्रांति,संघर्ष की ज्वाला को प्रज्वलित कर रहा हैं ,वहीं वह देश के प्रजातंत्र पर प्रश्न चिह्न अंकित करते हुए बहिष्कार का हत्यार हाथ में लेने की बात करता हैं |’बयान ‘ पत्रिका में छपे एक आलेख के अनुसार ,’’ दलितों को चाहिए कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था का पूरी तरह बहिष्कार कर दें |वे थोक वोट की मंडी न बने | गांवों में दलितों को चारपाई पर न बैठने देना |उनके नाम के साथ गली के शब्द जोड़ना |हैंड पाइप न छूने देना |छू जाने पर नहाना |यह परम्परा आज भी गांवों में हैं | गाँव को ठाकुर ब्राह्मण चलाते हैं | ‘’१३
इस विद्रोहात्मक क्रांति ने दलित साहित्य को नई दिशा प्रदान कर दी थी | अब वह सिर्फ भोगे हुए सत्य को ही नहीं बल्कि व्यवस्था के विरोध में आवाज उठाने के लिए कमर कसते हुए दिखाई देता हैं | उसने हर दलित के मन में अत्याचार ,अन्याय ,उपेक्षा ,घृणा के खिलाफ आक्रोश भर दिया हैं | वह मौका पाते ही गुलामी की जंजीरों को तोडना चाहता हैं | वह पाखंड,खोखले आदर्शों के विरोध में क्रांति का शखनाद करता हैं | कवि विश्वप्रताप भारती ‘मुझे इंतजार हैं उस दिन का ‘ कविता में ऐसे ही संदर्भ को मुखरित करता हैं,
‘’रोज-रोज /नीच अछूत /सुन-सुनकर मैं /
निश्चल पत्थर-सा /हो गया हूँ / अत्याचार सह सके /
सिर झुकायें /गुलामी की जंजीरों से बंधा हूँ /
मुरझा गई हैं /मेरे प्राणों की ज्योति /लेकिन फिर भी /
जला रहाँ हूँ /क्योंकि /मुझे इंतजार हैं उस दिन का /
जिस दिन मैं /अपनी सिसकियों से अपने अंदर की /
चिंगारी को /भडक ने पर मजबूर कर दूँगा /
और फिर /उन गुलामी की जंजीरों को तोड़कर /
उस पाखण्ड से लडूंगा /जो आदर्शों के /विभिन्न रूपों /
का चोला पहनकर /तमाशाई बनकर /तथाकथित /
धर्म की किताबों में सजा हैं / जिसके कारण/
मेरी शानो-शौकत में /धब्बा लगा हैं |’’१४
अतः हिंदी दलित साहित्य की चुनिन्दा रचनाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि दलित साहित्य तथा साहित्यकारों पर गौतम बुद्ध ,कबीर ,महात्मा फुले ,शाहु ,डॉ.बाबा साहेब आंबेडकर के विचारों का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता हैं | दलित साहित्य कि लड़ाई समता,बन्धुता,न्यायके साथ मानवता की लड़ाई हैं | वे दलित को मानव होने का अधिकार देना चाहते हैं |हीरा डोम की कविता से शुरू हुआ सफर ,आज दलित साहित्य दलित समाज की उन्नति के लिए सक्षम रूप में उभरता हुआ दिखाई दे रहा हैं | पीड़ा, दर्द, उपेक्षा, घृणा, दरिद्रता, भूख , प्रताडना, , अपमान, दुत्कार, धिक्कार , छूत–अछूत की समस्याओं को उजागर करते हुए उन्ह में शिक्षा , संघर्ष, संगठन, विद्रोह का बीजारोपण भी करता हैं |
आज मनुष्य हर क्षेत्र में उन्नत हुआ हैं |उन्नत मनुष्य अपन्व आप को सभ्य कहता हैं |पर वह सिर्फ भौतिक रूप एवं तन से सभ्य हुआ हैं मन से नहीं | जबतक सम्पूर्ण समाज तन और मन से सभ्य नहीं होगा ,तबतक हम देश की प्रगति सही मायने में नहीं कर पायेंगे |उस गुलामिवाली ,छूत –अछूत ,जाति –भेद ,ऊँच –नीच के प्रति जबतक समानता ,स्वतंत्रता ,बन्धुता,न्याय ,धर्म निरपेक्षता ,मानवता का झंडा हम हाथ में नहीं लेंगे ,तबतक देश पराधीनता की जंजीरों में जकडा रहेगा | आवश्यकता हैं देशभक्ति की ,मानवता के लिए लोक जागृति और बलिदान की |
संदर्भ :
१] दलित साहित्य की भूमिका ,डॉ.हरपालसिंह पृ.०३
२]साहित्य दर्पण ,डॉ.इबतवार दशरथ /डॉ.वसंत क्षीरसागर ,समता पकाशन,कानपूर ,संस्करण -२००९ पृ.८१
३]दलित साहित्य समसामयिक संदर्भ ,डॉ.श्रवणकुमार विना
४] दलित अस्मिता –सं .विमल थोरात ,नई दिल्ली अंक ४-५ ,जुलाई-दिसंबर -२०११ पृ.६५
५] वहीं पृ.६०
६] फेसबुक वाल –जयप्रकाश मानस ति .१०/१०/१२
७]सदियों के बहते जख्म –दामोधर मोरे ,प्रथम संस्करण -२००१ ,प्रकाशक-अखिल भारतीय साहित्य परिषद पृ.१२६
८]वहीं पृ .८७
९] पलके सुलग रहीं हैं –दामोधर मोरे ,संस्करण २००२ ,अनुपम प्रकाशन ,दिल्ली पृ.२५
१०] सदियों के बहते जख्म –दामोधर मोरे ,प्रथम संस्करण -२००१ ,प्रकाशक-अखिल भारतीय साहित्य परिषद पृ.११५
११] सरस्वति .सं .महवीरप्रसाद द्विविदी ,सितम्बर -१९१४ ,भाग -१५ ,खण्ड -२ ,पृ.५१२-५१३
१२] बयान –सं.मोहनदास नैमिशराय ,अंक -अगस्त -२०१२ पृ .१०
१३] बयान –सं.मोहनदास नैमिशराय ,अंक -अगस्त -२०१२ पृ .१७
१४] बयान –सं.मोहनदास नैमिशराय ,अंक -अगस्त -२०१२ पृ .२९
- डॉ. सुनिल जाधव
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