ज़िन्दगी तो बस लम्हों की एक कड़ी है
हर साँस एक दूसरे से जुड़ी है
बहते दरिया सा वक़्त बढ़ता चला जाता है
रास्ते में कई सुहाने मंज़र लिए जिंदगानी खड़ी है
ज़िन्दगी की यह कश्ती मंझधार में भी फँसती है
चलते रहते फिर भी जाना, जीने वाले की हस्ती है
क्या हुआ जो तुम लडखडाये
फिर उठो देखो, ज़िन्दगी खिलखिला कर हंसती है
इससे अच्छा कोई और साथी नहीं
इससे अच्छा सबक कोई और किताब सिखाती नहीं
बढ़ते चलो, कभी ना रुको
ज़िन्दगी वो मौज है जो साहिल तक आती नहीं
इस उफनती दुनिया के तेज़ भागते रास्तों पर
चल कर देखो, हमेशा ज़िन्दगी के सस्थ रह कर
चमकते सोने सी यह ज़िन्दगी हमेशा ही शोहरत देगी
मेहनत की आग में ज़रा देखो तो तप कर
दो घड़ी हम न कर पाते उसकी बंदगी
जाने क्या क्या करते पाने को जो हमेशा ही व्यर्थ रहेंगी
सब गिनते बैठे हैं ज़िन्दगी के पलों को
भूल जाते हैं हर पल में है कितनी ज़िन्दगी
जुस्तजू कर तू उस ज़िन्दगी की जिसे जीने पर नाज़ हो
प्यार बाँट आपस में, बस यही तेरा साज़ हो
जाने का वक़्त जब भी आये, आँखों में तेरी सुकून हो
मुस्कुराता हुआ तू गया क्यों सबके दिलों में बस यही राज़ हो
कितने आये और आयेंगे, पर कितनों ने जी ज़िन्दगी सही
सच है, जन्नत है, तो है बस यहीं
बना न तू इस जन्नत को दोज़ख
प्यार के लम्हों को ज़रा जोड़ तो सही
यह लम्हे सबको देता ख़ुदा है
घमण्ड में इंसान इन सबसे जुदा है
भूलो नफरत और बांटों प्यार
देखो हर दिल पर अल्लाह राम खुदा है
क्या हुआ जो तुम तक न जिए
क्या हुआ जो यह तक न पिए
कोई बात नहीं ज़िन्दगी सबपे मेहरबान है
जियो अब तो यह प्यार की हाथों में लिए
मत करो इंतज़ार उन खुशियों का जो हैं
जाने वह कब आयें जाने कितनी लिखी हैं
ढूंढो उन खुशियों को जो पल दो पल में आती हैं
तुम उनकी गिनती करोड़ों है
ख़ुशी कोई तकरीब नहीं जो एक दिन आएगी
कोई ऐसी तरक़ीब नहीं जो ख़ुद उसे यहाँ लाएगी
खुशियों के लम्हे तो आज यहीं हैं
जोड़ लो उन लम्हों की ज़िन्दगी अज़ीम-ओ-शान हो जायेगी
-विक्रम प्रताप सिंह
वर्तमान : सहायक प्रोफेसर, सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई
पेशेवर प्रशिक्षण से ये एक भूविज्ञानी हैं