क्या ‘लघुकथा’ कहानी में अपनी जगह न बना पा रहे कुछ कुण्ठित लोगों द्वारा अलापा गया कोई बेहूदा राग है? या फिर इस परिश्रम के पीछे देश के पास कागज का और पाठक के पास समय का अभाव मात्र ही कोई कारण है? ‘कथा’ के शाब्दिक अर्थ—‘कथ’ धातु से इसकी व्युत्पत्ति और सीधे अर्थों में—‘वह जो कहा जाए’ जैसे अकादमिक वाक्यों को हम कहाँ-कहाँ नहीं दोहराते। लघुकथा कथा-साहित्य की विधा है तो ‘कथा’ के अर्थ तो बेशक, हमें जानने ही होंगे। ‘कथा’ के जिन प्रचलित और पुराण-शास्त्रीय अर्थों को हमने कहानी(यानी वह जो कहा जाए) तथा उपन्यास के सन्दर्भ में चाटा है, लघुकथा के सन्दर्भ में भी अगर ज्यों-का-त्यों उन्हें ही चाटना होगा तो कथा-साहित्य की विधा के तौर पर ‘लघुकथा’ में नवीनता क्या है? और, कोई नवीनता अगर उसमें है तो यकीन मानिये, ‘कथा’ की प्रचलित परिभाषायें कहानी व उपन्यास के सन्दर्भ में चाहे जितनी मान्य और स्वीकार्य हों, लघुकथा के सन्दर्भ में वे आधी-अधूरी व भ्रामक ही कही जायेंगी। अगर ‘लघुकथा’ को भी ‘कथा’ की पारम्परिक और शास्त्रीय परिभाषा से ही नपना था तो बोधकथा, नीतिकथा, दृष्टान्तकथा, भावकथा आदि से अलग इसका प्रादुर्भाव ‘समकालीन लघुकथा’ के रूप में क्यों हुआ?
किसी नयी विधा को जन्म देने के लिए, या फिर उसके पुनर्प्रादुर्भाव के लिए ही सही, उससे जुड़े लोगों का संवेदनशील होना ही पर्याप्त नहीं रहता। धर्म, राजनीति और अर्थ का जब पतन होना प्रारम्भ होता है तो वह प्रत्येक सामाजिक की संवेदना को प्रभावित करता है। सारा समाज अपनी-अपनी रुचि और प्रकृति के अनुरूप विभिन्न गुटों में बँट जाता है। धार्मिक प्रकृति के लोग राजनीतिक और आर्थिक पतन को, आर्थिक प्रकृति के लोग धार्मिक और राजनीतिक पतन को तथा राजनीतिक प्रकृति के लोग धार्मिक व आर्थिक पतन को सारे पतन का कारण बताने व सिद्ध करने में जुट जाते हैं। चौपाल हो या घर-बाज़ार, जहाँ चार लोग जुड़े, अपना और देश-समाज का रोना शुरू। यह रोना-धोना शनैः शनैः रोचक व रंजक बनाया जाने लगता है और इस प्रक्रिया में सच के साथ कुछ कल्पना(आम बोलचाल की भाषा में ‘झूठ’) भी आ जुड़ती है। किस्से और अफवाहें इसी तरह जन्मते हैं। ‘कथा’ की व्यापक परिभाषा में रोचक, रंजक या विषादपूर्ण शैली में रोना-धोना कहने वाले ये सारे सामाजिक ‘कथाकार’ हैं। ‘संवेदनशीलता’ इससे अलग किसी अन्य आयाम को प्रकट नहीं करती। समाज के चप्पे-चप्पे, रेशे-रेशे और अच्छी-बुरी हर हरकत पर नजर रखने वाले ये ‘कथाकार’ सब-के-सब लेखक तो नहीं बन जाते। इसलिए ऐसा मानना कि जो कथाकार जितना अधिक संवेदनशील होगा, वह समाज से उतने ही अधिक कथानक अपनी लघुकथाओं के लिए चुन सकता है, तर्कसंगत नहीं है। संवेदनशील होना किसी कथाकार को लघुकथाकार बना देगा, ऐसा नहीं है। समाज के जो-जो अन्तर्विरोध किसी सामाजिक की संवेदना को प्रभावित करके उसकी चेतना को आन्दोलित करते हैं, आधिकारिक रूप से केवल उन-उन पर ही वह बोल या लिख सकता है। अतः ‘लघुकथा’ लिखने के लिए कथाकार को कथानक के चुनाव हेतु संवेदनाओं की चिमटी लेकर अखबारों, जंगलों और बाजारों की खाक छानने की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है—चेतना को आन्दोलित, जागृत रखने की। चेतना जितनी अधिक प्रखर होगी, लेखनी उतनी ही मुखर होगी। संवेदनशीलता वैचारिकता को जन्म देती है, जबकि आन्दोलन विचारपूर्ण क्रियाशीलता को। समकालीन लघुकथा विचारपूर्ण क्रियाशीलता की उपज है, न कि वैचारिकता की। अपने संदर्भ में, इसका यह गुण ‘कथा’ की इसी व्याख्या की माँग करता है। उपन्यास और कहानी की भले ही ये अपेक्षाएँ न हों। इन दोनों कथा-विधाओं से लघुकथा के अलगाव का यह एक बिन्दु है।
कथानक और शैली ‘लघुकथा’ के आवश्यक अवयव तो हो सकते हैं, तत्व नहीं। तत्व अपनी चेतना में एक पूर्ण इकाई है। ‘मूलत्व’ इसका गुण (प्रोपर्टी) है। लघुकथा का मूल-तत्व है—‘वस्तु’, जो कि प्रत्येक कथा-विधा का है। ‘वस्तु’ को जनहितार्थ सरल, रोचक, रंजक और संप्रेष्य बनाकर प्रस्तुत करने के लिए कथाकार कथानक की रचना कर उसको माध्यम बनाता है। जैसे, पुराण-कथाओं के पीछे ‘वस्तु’रूप में वेद-ॠचाएँ अथवा वैदिक-सूत्र ही हैं। किसी भी कथा-विधा की तरह ही लघुकथा की भी ‘वस्तु’ आत्मा है, कथानक हृदय, शिल्प शरीर और शैली आचरण, जिसके माध्यम से पाठक को वह अपनी ग्राह्यता के प्रति आकर्षित करती है। तात्पर्य यह कि ‘लघुकथा’ में कथानक, शिल्प और शैली ‘वस्तु’ को सम्प्रेष्य और प्रभावी बनाने वाले अवयव हैं, तत्व नहीं।
जहाँ तक शैली का प्रश्न है, वह सिर्फ ‘स्टाइल’ नहीं, ‘मैनर’ भी है। मैनर यानी शिष्टता। लघुकथा में, शब्दों को उनकी प्रभपणता के अनुरूप प्रयोग करने की शिष्टता का लेखक में विद्यमान रहना उतना ही आवश्यक है जितना किसी जिम्मेदार नागरिक में आचरण की शिष्टता का होना आवश्यक होता है। भाषा को उसकी सहज प्रवहमण्यता और लयबद्धता के साथ प्रस्तुत करने की शिष्टता व ज्ञान का लघुकथाकार में होना अपेक्षित है। यही नहीं, बल्कि यह भी कि लघुकथा का पात्र अपने स्तर, स्थिति और परिवेश से अलग भाषा तो नहीं बोल रहा है; कि उसका आचरण लघुकथा में उसके चरित्र से भिन्न किसी अन्य दिशा में तो अग्रसर नहीं है; कि पात्र के मुख से लेखक स्वयं तो नहीं बोलने लगा है(अर्थात् मानवोत्थानिक सन्देश तो नहीं देने लगा है!); तथा यह भी कि पात्र और कथा दोनों को पीछे धकेलकर अपनी लेखकीय हैसियत/उपस्थिति, अपने अस्तित्व की याद दिलाने के लिए(अर्थात् वही मानवोत्थानिक सन्देश या फिर जनवाद/प्रगतिवाद का आरोपण करने के लिए) वह स्वयं तो नहीं आ धमका है। बहुत-सी बातें हैं, जो शैली के ‘मैनर’ वाले अर्थ की ओर इंगित करती हैं। लघुकथा के संदर्भ में ‘स्टाइल’ की तुलना में शैली का यही तात्पर्य श्रेयस्कर है। ‘स्टाइल’ बघारने का जमाना उपन्यास, कहानी और काव्यादि लेखन का वह जमाना था जब रचना का आम बोलचाल से अलग भारी-भरकम शब्दों/शब्द-युग्मों, अलंकारों व मुहावरों से लदा होना ही उसकी स्तरीयता का प्रमाण हुआ करता था। रचनात्मक हिन्दी-साहित्य ने उस जमाने को काव्य में मुख्यतः गोस्वामी तुलसीदास(‘रामचरित मानस’) तथा कहानी-उपन्यास में प्रेमचंद की रचनाओं के द्वारा तोड़-मरोड़ कर साहित्येतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया है। साहित्य का समकालीन दौर सहजता और (ऊपर बताई गई) शिष्टता का दौर है, ‘स्टाइल’ बघारने का नहीं।
यह कहना कि उपन्यास और कहानी से लघुकथा की भिन्नता कथानक के स्तर पर होती है—सरासर भ्रामक हो तब भी प्रशंसनीय ही माना जाएगा क्योंकि इसमें भिन्नता के सूत्र को पकड़ लेने का प्रयास परिलक्षित होता है। परन्तु, यह भिन्नता के मूल से भटका हुआ वक्तव्य है। पहली बात तो यह कि उपन्यास से लघुकथा की भिन्नता के बिन्दु तलाश करने की चेष्टा ही अपने आप में विडम्बनापूर्ण मूर्खता है, क्योंकि उपन्यास में कथा के विस्तार का फलक, कहानी और लघुकथा दोनों में, कथा के विस्तार-फलक से पूरी तरह भिन्न होता है। दूसरी बात यह कि कथा-साहित्य की विधाओं में (आकार की दृष्टि से भी) जितना भ्रम कहानी और लघुकथा के बीच उत्पन्न होता है, उतना उपन्यास और लघुकथा या उपन्यास और (सामान्य लम्बाई की) कहानी के बीच नहीं। उपन्यास और कहानी के बीच भ्रम की स्थिति लम्बी-कहानी तथा उपन्यासिका को लेकर तो गाहे-बगाहे उत्पन्न होती रहती है, सामान्यतः नहीं। बिल्कुल वैसे, जैसे छोटी कहानी और (अपेक्षाकृत लम्बे आकार की) लघुकथा के बीच वर्तमान में बनी हुई है। हालाँकि प्रस्तुतिकरण के कुछ बिन्दुओं पर कड़ी नजर डालें तो यह भ्रम ज्यादा टिकता नहीं है। एक मुख्य बात, जो अब तक देखने में आई है, वह है—लघुकथा और कहानी, दोनों के कथानकों का अपने समापन अथवा अन्त की ओर भिन्न गति से बढ़ना। कहानी का कथानक अक्सर किसी उपालम्ब के सहारे समापन की ओर बढ़ता है, जबकि लघुकथा का कथानक बिना किसी अवलम्ब या उपालम्ब के। लघुकथा का कथानक स्वयं ही अपना अवलम्ब होता है तथा कहानी की तुलना में अधिक त्वरण वाला होता है। कह सकते हैं कि समापन की ओर बढ़ते कथानक के मामले में गतिज-ऊर्जा की दृष्टि से कहानी की तुलना में लघुकथा अधिक स्वाबलम्बी कथा-रचना है। कहानी से लघुकथा की भिन्नता का इसे एक-और बिन्दु माना जा सकता है।
आज, जिस समाज में हम रहते हैं, उसमें सूचनाओं को प्राप्त और प्रदान करने के माध्यम और साधन सभी के पास लगभग समान हैं—पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, टीवी, टेलीफोन, इंटरनेट, बाजार और संगति। इसलिए यह अवश्य माना जा सकता है कि लघुकथा में दो या अधिक लेखक एक ही घटना को अपने लेखन का आधार बना सकते हैं। परन्तु, उन सबकी संवेदनाएँ भी उस घटना से समान रूप में ही प्रभावित होंगी और निष्कर्षतः भी वे समान रचनाएँ ही लिखेंगे—यह असंभव है। कथानक की बात हम छोड़ भी दें तो वस्तु और निष्कर्ष के स्तर पर समान लघुकथाएँ भिन्न शीर्षकों के रहते भी अमौलिक तथा किसी पूर्व-प्रकाशित रचना से प्रभावित ही कही जायेंगी।
किसी भी माध्यम से प्राप्त समाचार मनुष्य के बाह्य-जगत का लेखा है, अन्तःजगत का नहीं। इसलिए अनेक बार कथात्मक प्रस्तुति के रहते भी, समाचार-लेखक समाचार ही प्रस्तुत कर पाता है, लघुकथा नहीं। समाचारों के माध्यम से अगर अपनी संवेदनाओं को कथारूप दिया जा सकता होता तो प्रभावशाली लघुकथा-लेखकों की कम-से-कम एक ऐसी जमात जरूर हमारे पास होती जिसने(अखबारी समाचारों के आधार पर) बहुत-सी देशी-विदेशी समस्याओं के सर्वमान्य समाधान प्रस्तुत करती या आदमी के संवेदन-तन्तुओं को जगाती कितनी ही लघुकथाएँ लिख मारी होतीं। समाचार ही अगर संवेदनाओं के मानक वाहक होते तो टीवी, अखबार आदि ‘लघुकथा’ के मुकाबले कम-से-कम इस अर्थ में तो प्रभावशाली माने ही जाते कि समाचार को इनमें से कुछ में हम एक घटना को रूप में जीवन्त घटित होते देखते-सुनते हैं। लेकिन हमारी सुप्त या कहें कि मृत संवेदन-ग्रंथियों का यह हाल है बताने की शायद जरूरत नहीं है कि ‘भोपाल गैस काण्ड’ में मारे गए और पीड़ित लोगों के बारे में टीवी रिव्यू हो या किसी और काण्ड में सताए-मारे गए लोगों के बारे में, टीवी रिव्यू देखते समय हमारे हँसी-ठट्ठों और खान-पान में कोई बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता। उधर खून-खराबा, लाशें और रोते-बिलखते स्त्री-पुरुष-बच्चे दिखाई दे रहे हैं; इधर डाइनिंग-टेबल पर फ्रूट-क्रीम के कप से उठकर चम्मच हमारे मुँह की ओर घूम रही होती है। समाचारों और संवेदनाओं के बीच वर्तमान में यह रिश्ता हमारे सामने है। जब तक कोई लेखक समाज से रू-ब-रू नहीं होगा, संवाद का कोई भी माध्यम उसकी संवेदना को जगाए नहीं रख सकता। साहित्य अगर समाज का दर्पण है तो सिर्फ इसलिए कि उसका रचयिता समाज के अन्तर्विरोधों को उसके बीच अपनी उपस्थिति बनाकर झेलता-महसूसता है, न कि समाचार माध्यमों द्वारा फेंके गये टुकड़ों को लपक-लपक कर संवेदनाओं की जुगाली करता फिरता है।
लेखक का धर्म है कि वह अन्त:जगत से जुड़े। जितना गहरा वह पैठेगा, उतना ही गहरा वह प्रस्तुत करेगा। अन्त:जगत से जुड़े बिना बाहर की हर यात्रा व्यर्थ और निरर्थक है। अन्त:जगत से जुड़ाव ही आदमी को सामान्य की तुलना में विशेष बनाता और सिद्ध करता है। यही वह विशेष कारण है जिसके चलते ‘लेखक’ विशेषणधारी व्यक्ति केवल सुन या देखकर ‘अन्य’ की संवेदनाओं के साथ अपनी संवेदनाओं को जोड़कर उन्हें उनकी सम्पूर्णता में पा लेता है। लेकिन इसको ‘साधना’ न तो इतना आसान है और न ही आम। इसलिए जब तक यह सध न जाए, तब तक समाज से सीधे संवाद निर्विवादित है। हाँ, लेखक के तौर पर किसी को अल्पायु एवं रुग्ण जीवन भी स्वीकार्य हो तो समाचारों को माध्यम बनाकर कुछ काल तक बाह्यजगत में विचरण का सुख भोग लेना कोई बुरी बात नहीं है
लघुकथा का उद्देश्य पाठक को किसी उथली और सतही कहानी की तरह सिर्फ रंजित, रोमांचित या प्रभावित कर देना मात्र नहीं है। पारम्परिक बोधकथा, नीतिकथा, भावकथा की तरह पाठक के हृदय को पिघलाना या उसकी आत्मा को झकझोरना भी इसका उद्देश्य नहीं है…और हास-परिहास या चुटकुला तो यह है ही नहीं। इसका लेखक सामान्यत: संवेदित/भावविभोर होकर…जौली मूड(Jolly mood)में आकर नहीं, बल्कि परिस्थितियों से आन्दोलित होकर कथा-लेखन में प्रवृत्त होता है। इसलिए लघुकथा-लेखन के माध्यम से उसका उद्देश्य पाठक की चेतना को आन्दोलित करना है। न सिर्फ कहानी से, बल्कि बोधकथा, नीतिकथा, भावकथा, चुटकुला आदि से लघुकथा की भिन्नता का यह तीसरा बिन्दु है।
परन्तु, पाठक की चेतना को आन्दोलित करने से भी आगे कोई लघुकथा-लेखक यदि पाठक को दिशा-निर्देशित करना ‘लघुकथा’ का ‘हेतु’ समझता है तो जरूरी नहीं कि लघुकथा उसे सिर्फ सकारात्मक दिशा ही दे। प्रत्येक सामाजिक अपनी प्रकृति, परिवेश और सामर्थ्य,—इन तीन भावों से प्रभावित रहता है और—नकारात्मक या सकारात्मक—इन्हीं भावों के अनुरूप दिशा-निर्देश ग्रहण करता है। यों भी, लघुकथा में ‘निदान’(डाइग्नोस) किया जाता है, ‘सुझाव’(ट्रीटमेंट) नहीं दिया जाता, क्योंकि ट्रीटमेंट दिये जाने के कुछ विशेष खतरे हैं जिनमें से एक है—लघुकथा में लेखक के स्वयं उपस्थित हो जाने/होते रहने का खतरा तथा दूसरा है—लघुकथा का उसके लेखक के किसी सिद्धान्त-विशेष की ओर घूम जाने का खतरा। ये दोनों खतरे ध्यातव्य हैं क्योंकि सिद्धान्त-विशेष के तहत दिए गए ट्रीटमेंट और तज्जनित परिसीमन के कारण ही अनेक लघुकथाएँ शिल्प और शैली की दृष्टि से पुष्ट होने के बावजूद, समसामयिक साहित्य में मान्य नहीं हैं। अत: लघुकथा के लेखक को हेतु-रचना के माध्यम से उन्मुक्त चिन्तन-मनन की दिशा में पाठक की चेतना को आन्दोलित करना होगा।
शिल्प की दृष्टि से लघुकथा किसी गद्य-गीत जैसी सुगठित होनी चाहिए। शाब्दिक अतिरिक्तता या वैचारिक दोहराव उसे कमजोर कर सकते हैं। लघुकथा की वास्तविक शक्ति वास्तव में उसके व्यंग्य-प्रधान या गाम्भीर्य-प्रधान होने में न होकर उसके सांकेतिक होने निहित है। यहाँ यह समझ लेना भी आवश्यक है कि ‘सांकेतिकता’ लघुकथा का अनिवार्य गुण अवश्य है, परन्तु इसे बहुत क्लिष्ट या गूढ़ न होकर सहज रहना चाहिए। यों भी, लघुकथा में उसका कोई भी गुण, सिद्धान्त या दर्शन बहुत क्लिष्ट या गूढ़ न होकर सहज ही समाविष्ट होना चाहिए। सहज समावेश से तात्पर्य बलात्-आरोपण से लघुकथा को बचाए रखना भी है।
‘लघुकथा’ में संवादों की स्थिति क्या हो? उन्हें होना चाहिए या नहीं? होना चाहिए तो किस अनुशासन के साथ और नहीं तो क्यों? ये सवाल वैसे ही अनर्गल हैं जैसे कि इसके आकार या इसकी शब्द-संख्या के निर्धारण को लेकर अक्सर सामने आते रहते हैं। वस्तुत: लघुकथा ‘लिखी’ या ‘कही जाती’ प्रतीत न होकर ‘घटित होती’ प्रतीत होनी चाहिए। लघुकथा की रचना-प्रक्रिया का मैं समझता हूँ कि यह प्रमुख सूत्र है। क्रियाशीलता, कृतित्व, चरित्र, परिस्थिति और परिवेश के साथ स्वयं उसके पात्रों को पाठक के सम्मुख होना चाहिए न कि उसके लेखक को। लघुकथा में ‘लेखकविहीनता’ की डा0 कमलकिशोर गोयनका इसी रूप में व्याख्या करते हैं। लघुकथा में संवाद और तत्संबंधी अनुशासन के बारे में एक जिज्ञासा को मैं अवश्य यहाँ प्रकट करना चाहूँगा। यह कि लघुकथा में संवादों को ‘कथोपकथन’ या ‘कथनोपकथन’ कहने का आधार क्या है? कथोपकथन यानी कथ+उपकथन तथा कथनोपकथन यानी कथन+उपकथन। अगर विवेकपूर्वक विचार किया जाए तो ‘कथन’ के उत्तर में बोले जाने वाले संवाद को ‘उपकथन’ नहीं बल्कि ‘प्रतिकथन’ कहा जाना चाहिए, क्योंकि कथा में उसका आस्तित्व किसी भी दृष्टि से ‘उप’ नहीं होता। फिर, आवश्यक नहीं कि प्रत्येक ‘कथन’ का उपकथन हो ही। कोई पात्र परिस्थिति-विशेष में किसी पात्र के ‘कथन’ का जवाब अपनी उस चुप्पी से दे सकता है जो उसके ‘प्रतिकथन’ या ‘उपकथन’ की तुलना में कहीं अधिक स्फोटक सिद्ध हो। इसलिए लघुकथा में संवाद के लिए ‘कथन प्रति कथन’ तथा ‘कथनाकथन’ व ‘कथाकथ’ यानी कथन+अकथन व कथ+अकथ शब्द भी बनते हैं। संवाद कैसे हों? इस बारे में मेरी धारणा है कि वे लघुकथा की भाषा में सहजग्राह्य और मन्तव्य को स्पष्ट करने वाले होने चाहिएँ। वे पाठक की चेतना को उद्वेलन और कथानक को अग्रसर गति दे पाने में सक्षम होने चाहिएँ।
अपनी समेकित इकाई में लघुकथा को गद्य-गीत जैसी सुस्पष्ट, सुगठित व भावपूर्ण; कविता जैसी तीक्ष्ण, सांकेतिक, गतिमय और लयबद्ध तथा कथा की ग्राह्य शीर्ष विधाओं—कहानी व उपन्यास—जैसी सम्प्रेषणीय और प्रभावपूर्ण होना चाहिए।
प्रत्येक कहानी में एक ‘सत्व’ होता है और हम इसे ‘कहानी की आत्मा’ कहते हैं। अपनी पुस्तक ‘परिहासिनी’ के इंट्रो में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इसे ‘चीज’ कहा है। ‘लघुकथा’ ‘कहानी की आत्मा’ है, उसका ‘सत्व’ है, ‘चीज’ है। घटना की प्रस्तुति को विस्तार देने की तुलना में कथाकार को जब ‘वस्तु’ का सम्प्रेषण अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होता है तब रचना का विस्तार उसके लिए गौण हो जाता है। अत: हम कह सकते हैं कि ‘लघुकथा’ केवल आकारगत, शिल्पगत, शैलीगत और प्रभावगत ही नहीं, शब्दगत और सम्प्रेषणगत भी सौष्ठव को प्राप्त कथा-रचना है। कहानी और लघुकथा के बीच अन्तर को उनके कथानकों के समापन की ओर बढ़ने में दृष्टिगोचर त्वरणों में अन्तर की माप के द्वारा स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है।
हम लघुकथा-लेखकों को उन्मुक्तता और उच्छृंखलता के मध्य अंतर को भली-भाँति जान लेना चाहिए। मन के भावों का अनुशासनहीन, उद्दंडतापूर्वक प्रदर्शन उच्छृंखलता कहलाता है। विदेशी शासन से मुक्ति ने हमें उन्मुक्तता दी है, परन्तु आज वाणी व भाव-स्वातंत्र्य के अधिकारों को पाकर हम अक्सर ही उच्छृंखल व्यवहार करते नजर आ जाते हैं। अति आवश्यक है कि वाणी व भाव के प्रकटीकरण पर हम अनुशासन-विशेष का अंकुश रखें। अनुशासन से अग्रसारण का निश्चय होता है।
लघुकथा के अगर कुछ अनुशासन हैं तो उनके प्रति लेखकों की आबद्धता और प्रतिबद्धता भी अपेक्षित है ही। परन्तु, इन सब अनुशासनों को प्रस्तुत कर देने के बाद इसी लेख के इस अन्तिम पैरा में इन आबद्धताओं व प्रतिबद्धताओं को मैं लघुकथा-लेखन की चौहद्दियाँ या गणितीय-सूत्र बताकर इनके नकार का आह्वान करूँ तो निश्चय ही आप मुझे बेहद भ्रमित व्यक्तित्व मानेंगे; परन्तु लघुकथा ने आज तक वाकई इतने सोपान तय कर लिए हैं कि हर सोपान पर वह पिछले सोपान के अनुशासनों को भंग करती प्रतीत होती है। बुद्धिमान, शूर और प्रगतिगामी लोग सदैव ही पुराने अनुशासन को तोड़ते और नये को जोड़ते आये हैं। यही प्रगति की रूपरेखा है। हिंदी लघुकथा ने अब तक यही किया है और यही वह अब भी कर रही है। यही कारण है कि लघुकथा आज मानव-जीवन के किसी क्षण-विशेष का ही नहीं, उसके किसी पक्ष-विशेष का भी चित्रण करने में पूर्ण सक्षम है। वस्तुत: समकालीन हिंदी लघुकथा उद्वेलन और आन्दोलन से जनित भावों की उन्मुक्त, सम्प्रेषणीय एवं प्रभावकारी कथात्मक प्रस्तुति है। यह उत्तरोत्तर विकासशील विधा है। आज, इस लेख में जो अनुशासन इसकी रचना-प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए किखे गये हैं, वे ही कल को पिछले सोपान के अनुशासन कहे जा सकते हैं। बहरहाल, पिछले समस्त अनुशासनों को भंग करके भी विधाएँ अनुशासनबद्ध ही रहती हैं।
एक बात और, नवीन अनुशासनों के निर्माण और प्रस्तुति का अधिकार उसी को मिल सकता है जो विधा के पक्ष में(स्वयं द्वारा प्रस्तुत) पूर्व अनुशासनों को भंग कर सकने की क्षमता रखता हो; लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं कि वह एक अनुशासन को प्रस्तुत करता और फिर तोड़ता रहकर नित नये भ्रम पैदा करता रहे।
- बलराम अग्रवाल
पुस्तकें : कथा-संग्रह—सरसों के फूल (1994), ज़ुबैदा (2004), चन्ना चरनदास (2004); बाल-कथा संग्रह—दूसरा भीम’(1997), ‘ग्यारह अभिनेय बाल एकांकी’(2012); समग्र अध्ययन—उत्तराखण्ड(2011); खलील जिब्रान(2012)।
अंग्रेजी से अनुवाद : अंग्रेजी पुस्तक ‘फोक टेल्स ऑव अण्डमान एंड निकोबार’ का ‘अण्डमान व निकोबार की लोककथाएँ’ शीर्षक से हिन्दी में अनुवाद व पुनर्लेखन; ऑस्कर वाइल्ड की पुस्तक ‘लॉर्ड आर्थर सेविले’ज़ क्राइम एंड अदर स्टोरीज़’ का हिन्दी में अनुवाद तथा अनेक विदेशी कहानियों का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद व प्रकाशन।
सम्पादन : मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ (1997), तेलुगु की मानक लघुकथाएँ (2010), ‘समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद’(आलोचना:2012), ‘जय हो!’(राष्ट्रप्रेम के गीतों का संचयन:2012)। प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की चर्चित कहानियों के 12 संकलन। 12 खंडों में प्रकाशित ‘प्रेमचंद की सम्पूर्ण कहानियाँ’(2011) में संपादन सहयोग। 1993 से 1996 तक साहित्यिक पत्रिका ‘वर्तमान जनगाथा’ का प्रकाशन/संपादन। ‘सहकार संचय’(जुलाई, 1997), ‘द्वीप लहरी’(अगस्त 2002, जनवरी 2003 व अगस्त 2007), ‘आलेख संवाद’ (जुलाई,2008) तथा ‘अविराम साहित्यिकी’(अक्टूबर-दिसम्बर 2012) का संपादन। हिन्दी साहित्य कला परिषद, पोर्टब्लेयर की हिन्दी पत्रिका ‘द्वीप लहरी’ को 1997 से अद्यतन संपादन सहयोग।
अन्य : अनेक वर्ष तक हिन्दी-रंगमंच से जुड़ाव। कुछेक रंगमंचीय नाटकों हेतु गीत-लेखन भी। हिन्दी फीचर फिल्म ‘कोख’(1990) के लिए सह-संवाद लेखन। आकाशवाणी दिल्ली के ‘वार्ता’ कार्यक्रम से तथा दूरदर्शन के ‘पत्रिका’ कार्यक्रम से लेख एवं वार्ताएँ प्रसारित। लघुकथा संग्रह ‘सरसों के फूल’ की अनेक लघुकथाओं का मराठी, तेलुगु, पंजाबी, सिन्धी, निमाड़ी, डोगरी आदि हिन्दीतर भारतीय भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित।
विशेष : सुश्री गायत्री सैनी ने लघुकथा संग्रह ‘ज़ुबैदा’ पर वर्ष 2005 में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से एम॰फिल॰ किया। संपादित लघुकथा संकलन ‘मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ’ को आधार बनाकर तिरुवनंतपुरम में अध्यापनरत श्री रतीश कुमार आर॰ ने केरल विश्वविश्वविद्यालय से ‘हिन्दी व मलयालम की लघुकथाओं का तुलनात्मक अध्ययन’ विषय पर पीएच॰डी॰ उपाधि हेतु शोध किया है।
सम्मान :पंजाब की साहित्यिक संस्था ‘मिन्नी’ द्वारा माता ‘शरबती देवी पुरस्कार’(1997), प्रगतिशील लेखक संघ, करनाल(हरियाणा) द्वारा सम्मानित 2003, हिन्दी साहित्य कला परिषद, पोर्ट ब्लेयर द्वारा सम्मानित 2008, इंडियन नेचुरोपैथी ऑर्गेनाइज़ेशन, नई दिल्ली द्वारा सम्मानित 2011, माता महादेवी कौशिक स्मृति सम्मान, बनीखेत(हि॰प्र॰) 2012
संप्रति : लघुकथा-साहित्य पर केन्द्रित ब्लॉग्स
संपर्क :नवीन शाहदरा, दिल्ली