एक गीत है जिसे मैं बचपन से सुनता आ रहा हूँ उसकी पंक्तियाँ है “ अपनी खुदी को जो समझा , उसने ख़ुदा को पहचाना ! आज़ाद फ़ितरते इंसान, अंदाज़ क्यूँ गुलामाना !! ” ।
इस गीत का आशय स्पष्ट है ? हम आज़ाद होते हुए भी गुलामी की मानसिकता से ग्रसित हैं । हमें अपनी योग्यता, अपनी क्षमताओं और अपने सामर्थ्य का ज्ञान ही नहीं है । जब हम अपने आप को नहीं समझ सके तो उस परमात्मा की शक्ति को क्या समझेंगे जो हर कदम पर प्रेरणा और प्रोत्साहन देने के लिए हमारे साथ होती है ।
अब प्रश्न यह उठता है की हम ऐसी मानसिकता से क्यूँ ग्रसित हैं ? शायद हमने आज़ादी का बस यही मतलब समझा की हम कहीं भी और कभी भी जा सकते हैं, कुछ भी खरीद सकते हैं किसी से भी मिल सकते हैं और किसी की भी आलोचना कर सकते हैं । लेकिन क्या आज़ादी बस यही है ? दुर्भाग्य से विगत 67 वर्षों में हमें आज़ादी का महत्व इससे ज्यादा पता ही नहीं चला । हम सभी उस रेल के डिब्बे कि तरह से बन गए जो इंजन के पीछे चलते हैं और अपना भाग्य इंजन के पुरुषार्थ पर छोड़ कर सन्तुष्ट हो जाते हैं। हमें यही एहसास कराया गया की भारत एक गरीब देश है जो की सदियों की दासता के बाद स्वतंत्र हुआ है और हम एक विकासशील देश हैं और अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, श्रीलंका और बांग्लादेश से ज्यादा विकसित हैं।
हम इस बात को भूल गए की “ जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने, दुनिया को तब गिनती आई ”।
हम इस बात को भी भूल गए की “ अपना भारत वो भारत है जिसके पीछे संसार चला ”। मेरे गुरुजनों ने मुझे बताया था कि “ पूर्वजों कि वह गाथा जो हमें पावन कर्मो कि ओर प्रेरित करे उसे इतिहास कहते हैं ” । परन्तु जब हमें अपने गौरवान्वित करने वाले इतिहास का ज्ञान ही नहीं होगा तो पावन कर्मों के लिए प्रेरणा कहाँ से आएगी ? हम अपने आप को तीसरी दुनिया का देश समझ कर दूसरे देशों के पीछे चलने लगे और छोटी-छोटी उपलब्धियों को बड़ा समझ कर खुश होने लगे। परन्तु अंत: मन में शायद कहीं ये भावना रहती होगी की हम अपनी क्षमताओं के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं और ये भावना धीरे-धीरे बलवती होने लगी और नकारात्मक्ता में परिवर्तित हो गई। तत्पश्चात यही नकारात्मक्ता बात व्यवहार में भी हमारे जीवन का हिस्सा बन गई । हम विश्व के अन्य देशों को अपने से ज्यादा सभ्य और सुसंस्कृत समझने लगे । नकारात्मक्ता की पाराकाष्ठा तो तब हो गई जब हम ये मानने लगे की हमारे देश में कुछ नहीं हो सकता और हमें ऐसे ही रहना है ।
लेकिन परिवर्तन इस संसार का नियम है और जीवन चक्र में जो कभी ऊपर जाता है उसे नीचे भी आना पड़ता है और जो नीचे होता है उसके भी ऊपर जाने की संभावना होती है। नीचे से ऊपर जाने के लिए एक सकारात्मक ऊर्जा की आवश्यकता होती है । अभी इतनी जल्दी कुछ कहना अतिशयोक्ति होगी परंतु पिछले कुछ दिनों से मैं देश में एक नयी ऊर्जा का संचार होते हुए महसूस कर रहा हूँ । एक ऐसा वातावरण बनता हुआ प्रतीत हो रहा है जहां लग रहा है की “अच्छे दिन आने वाले हैं ”।
जिस प्रकार हनुमान जी को उनका बल याद दिलाया गया था उसी प्रकार देश के वर्तमान नेतृत्व द्वारा हमें भी यह एहसास दिलाया जा रहा है की हम एक महान संस्कृति और सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं । हमारा इतिहास जितना गौरवशाली था हमारा भविष्य उससे भी ज्यादा यशस्वी हो सकता है। हमारे आस पास फैली नकारात्मक्ता को समाप्त करने का सकारात्मक प्रयास किया जा रहा है। इसके साथ ही विश्व में भारत की छवि एक अपार संभावनाओं वाले देश के रूप में विकसित की जा रही है।
स्वच्छता जो की हर नागरिक का एक मौलिक अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है उसे स्वच्छ भारत अभियान जैसे आंदोलन से जन-जन तक पहुंचाना एक अभूतपूर्व घटना है। यह आंदोलन सिर्फ सरकार या सफाई कर्मचारियों तक ही सीमित नहीं है इसमे समस्त भारतवासियों भागीदारी होगी जो की आने वाली कई पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा का काम करेगी।
जन-जन को जोड़ने वाली जन धन योजना भी गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को समाज की मुख्य धारा में शामिल करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है। मैं एक बैंकर हूँ इस लिए मुझे पता है की इस योजना की सफलता के लिए स्वयं देश के प्रधानमंत्री नें बैंको से संवाद स्थापित किया था । यही वजह थी की इतने कम समय में इतने लोग इस योजना से जुड़ सके अन्यथा ऐसी कई योजनाएँ तो वर्षों से चल रही हैं लेकिन परिणाम कुछ भी नहीं।
“ जो जहाजों को डुबो दे उसे तूफान कहते हैं, और जो तूफानों से टक्कर ले उसे इंसान कहते हैं ”।
ऐसा अभी तक केवल सुना था लेकिन होते हुए पहली बार देखा। इतना बड़ा तूफान हुद-हुद आया और आ कर चला गया लेकिन उसका सामना करने की तैयारियां और उन तैयारियो की की निरंतर समीक्षा नें विनाश के प्रभाव को बहुत कम कर दिया। ऐसा ही कश्मीर में आई बाढ़ में भी हुआ था । जिस आत्मीयता और समर्पण से कश्मीर के निवासियों को बताया गया की “ जो दुख तुम्हारे हैं, अपने भी वही गम हैं ! अब आओ, गले लग जाओ, जो तुम हो वही हम हैं !! ” वह स्वतंत्र भारत में होने वाली एक ऐतिहासिक घटना थी । ये दोनों घटनाएँ यह प्रदर्शित करती हैं की अब केंद्र की सरकार राज्य सरकार के साथ मिलकर देश का सर्वांगीण विकास करने की दिशा में अग्रसर है।
हम मित्र बादल सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं। हमारे पड़ोसियों के साथ हमारे संबंध कैसे थे ये सर्व-विदित है । नेपाल और भूटान के साथ जिन संबंधो पे धूल पड़ी हुई थी उनमें जो नई ऊर्जा का संचार हुआ है उसका परिणाम आने वाले समय में दिखेगा इसके साथ ही पाकिस्तान और चीन को भी उनकी मनमानी करने से जिस तरह से रोका गया है वह उल्लेखनीय है । हम सभी नें देश के प्रधानमंत्री का संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषण सुना होगा । वहाँ पे भारत एक याचक के रूप में नहीं बल्कि एक मार्गदर्शक के रूप में दिखाई दिया था ।
एक दिन मेरे सात वर्षीय बेटे अविरल ने मुझसे पूछा, पापा क्या हम लोग चाइना में बने हैं ? यह प्रश्न मेरे लिए अप्रत्याशित सा था। मैंने पूछा क्यू क्या हुआ ऐसा क्यू पूछ रहे हो ? उसने कहा सारी चीजों पे “ मेड इन चाइना ” लिखा होता है इसलिए लगा की हम लोग भी चाइना में बने हैं । मैंने किसी तरह से उसकी बाल-सुलभ जिज्ञासा को शांत किया पर यह प्रश्न अत्यंत दुखद तो था ही । लेकिन अब लगने लगा है की और कोई बालक आने वाले समय में अपने पिता से ऐसा प्रश्न फिर नहीं पूछेगा । भारत के प्रधानमंत्री की “ मेक इन इंडिया ” एक बहूद्देशीय और दूरदर्शी योजना है जो की आने वाले समय में चमत्कारिक परिणाम देने वाली है ।
हम लोग तो इस बात की उम्मीद छोड़ चुके थे की पेट्रोल कभी स्थायी रूप से सस्ता भी होगा लेकिन पिछले 4-5 महीनों में जो हुआ है मुझे नहीं याद है इसके पहले कभी भी हुआ था। महंगाई का यह असर सिर्फ पेट्रोल पर ही नहीं है महँगाई दर अपने पाँच साल के सबसे निम्न स्तर पर है।
जब 4-5 महीनों में इतना कार्य किया जा सकता है तो आने वाले 55 महीनों की सुखद कल्पना तो की ही जा सकती है। देश में बहुत से प्रधानमंत्री हुए हैं लेकिन पहली बार कोई प्रधानमंत्री अपने आप को प्रधानसेवक समझ रहा है।
मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ की इसके पहले कोई जन कल्याण की योजना नहीं बनी या देश में विकास कार्य नहीं हुआ लेकिन उन योजनाओं की सफलता को लेकर ऐसी गंभीरता मुझे पहले कभी नहीं दिखी ।
कहा जाता है की “रख तू राह में दो – चार ही कदम, मगर ज़रा तबीयत से, कि मंज़िल खुद-ब-खुद चल कर तेरे पास आएगी ”। पहले हम दो-चार कदम ही नहीं मीलों चलते थे मगर तबीयत से नहीं इस लिए मंजिल नहीं मिलती थी। किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जिस लगन , समर्पण और दृढ़ विश्वास की आवश्यकता होती है पहले उसका अभाव दिखता था, परंतु अब परिस्थितियाँ बादल चुकी हैं।
ये तो हम सभी जानते हैं की “ Rome was not built in a day ” लेकिन जिस बुलंद इमारत को बनाने का सपना देखा जा रहा है उसकी नींव पड़ चुकी है। देश में नयी ऊर्जा का संचार हो चुका है और देशवासियों के आत्मविश्वास में भी अभूतपूर्व वृद्धि हो रही है ।
- सिद्धार्थ सिन्हा
भारत सरकार के स्वामित्व वाले “ आइ. डी. बी. आइ. बैंक ” में सहायक महा प्रबन्धक के पद पर कार्यरत हैं। इन्होने सांख्यिकी एवं प्रबंध शास्त्र में स्नातकोत्तर किया है । सिद्धार्थ सिन्हा बनारस के रहने वाले हैं और वर्तमान में पंजाब के लुधियाना शहर में कार्यरत हैं।
इन्होने आइ. डी. बी. आइ. बैंक की हिन्दी प्रतियोगिताओं में विभिन्न पुरस्कार जीते हैं और ये बचपन में सुमन सौरभ पत्रिका और दैनिक जागरण समाचार पत्र में भी कहानियाँ और लेख लिख चुके हैं ।