नवगीत: काँपे अंतर्तम

काँपे अंतर्तम

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टेर लगाती
मौसम के
पीछे पीछे हरदम,
पुरवाई की
आँखें भी अब
हो आईं पुरनम।।

प्यास अनकही
दिन भर ठहरी
अब तो साँझ हुई,
कोख हरी
होने की इच्छा
लेकिन बाँझ हुई।

अंधियारे का
रिश्ता लेकर
द्वार खड़ी रातें,
ड्योढ़ी पर
जलते दीपक की
आस हुई अब कम।

उपजे कई
नए संवेदन
हरियर प्रत्याशा में
ठूंठ हुए
सन्तापों वाले
पेड़ कटे आशा में

भूख किताबी
बाँच रही अब
चूल्हे का संवाद,
देह बुढ़ापे की
लाठी पर
काँपे अंतर्तम।।

 

 

- अवनीश त्रिपाठी

शिक्षा- एम.ए.,बी.एड.

सम्प्रति- इंटर कालेज साहिनवां सुलतानपुर में अध्यापन।

स्थाई पता-  सुलतानपुर,उ•प्र•,पिन-227304

साहित्यिक परिचय- नवगीत संग्रह “यादों का चन्दनवन” का सम्पादन।

“कवितालोक-प्रथम उद्भास” एवं “गुलदस्त ए ग़ज़ल” में रचनाएँ संकलित।कविता,ग़ज़ल/गीतिका, गीत का निरंतर लेखन एवं प्रकाशन।

 

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