तन और मन की सभ्यता प्रदान करता है साहित्य …

आज हमने मंगल ग्रह पर मजबूत कदम रखते हुए विश्व को सन्देश दे दिया कि हम भी किसी से कम नहीं | आनेवाल समय हमारा होगा | विश्व का नेतृत्व भारत करेगा | जहाँ हम गति पर सवार होकर बुलेट ट्रेन ला रहे है | एक के बाद एक विकास, प्रगति के परचम लहरा रहे है | जिससे साफ है कि भारत ने विश्व एवं अंतरिक्ष में अर्थात ब्रह्मांड में अपना झंडा गाड़ दिया हैं | विज्ञान, तकनीक, अंतरिक्ष, व्यापार-व्यवसाय, कृषि, संगणक, अंतर्जाल आदि क्षेत्र में हम जिस प्रकार से प्रगति कर रहे है, वह दिन दूर न होगा जिस दिन भारत समस्त विश्व के लिए मिसाल बनकर उभर कर आएगा |

प्रगति, विकास, संस्कृति, ईतिहास-भूगोल आदि की जड़ भाषा होती है | और भाषा को समृद्ध साहित्य करता है | और साहित्य प्रत्येक वर्तमान को कलात्मक एवं यथार्थ रूप में समाज के सम्मुख प्रस्तुत करता हैं | वर्तमान साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा हैं | समाज की आंतरिक और बाह्य प्रगति के लिये साहित्य हमेशा कल्पवृक्ष बना हुआ है | साहित्य की परिधि समाज का प्रत्येक हिस्सा रहा हैं | यहाँ किसी प्रकार का भेद भाव नहीं रहा हैं | जो अन्याय अत्याचार का शिकार हुआ, उसने [साहित्य] खड़े होकर पीड़ित के आँसू भी पोंछे हैं | और अन्यायकर्ता पर क्रोधी भी हुआ हैं | जहाँ उसने मनुष्य को मानवीय मूल्य से अवगत कराया, कठिन से कठिन परिस्थिति में मूल्यों को जतन करना सिखाया; वहीं उसने वास्तविक स्थिति के दर्शन भी करायें हैं | साहित्य ने सहचर, सच्चा मित्र, मार्गदर्शक, गुरु की भूमिका निभाई है और हमेशा निभाता रहेगा |

वर्तमान साहित्य विभिन्न आंदोलनों, विमर्शों से गुजरता हुआ नजर आ रहा हैं | दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, स्त्री विमर्श, घुमंतू विमर्श, युवा विमर्श, विकलांग विमर्श आदि | यह साहित्य अन्याय, अत्याचार, उपेक्षा, अपमान के खिलाफ खड़ा हुआ था | अपने अस्तित्व के लिए, मानवता के लिए | जिसे कभी मानव ही नहीं समझा गया था | उसे जानवर से बदतर समझा गया था | यह साहित्य स्वानुभूत साहित्य  हैं | इसमें न कोई कल्पना है, ना ही कोई मनोरजन | भोगे गये वास्तविकता को अभिव्यक्त करने वाला साहित्य हैं | वह सिर्फ दुजाभाव रखने वाले समाज के सम्मुख स्वं को भी मानव समझने की बात कहता हैं | वह मनुष्य की बीच में मनुष्य द्वार मनुष्य समझा जाना चाहता है | वह भी अन्यों की भाँति मानव बनना चाहता है | मानव बनने के इस आन्दोलन में उसने जिस साधन का प्रयोग किया था | वे थे शिक्षा, संघर्ष, संघठन और विद्रोह  | अन्याय, अत्याचार, अपमान, उपेक्षा के गर्त में पड़े हुए स्त्री, दलित, आदिवासी, घुमंतू समाज को यदि बाहर निकलना है, समाज को यदि सुधारना है , तो शिक्षित होना पड़ेगा | आन्दोलन करना पड़ेगा | संघर्ष करना पड़ेगा | उसे उजाले के मार्ग का प्रयोग करना होगा ‘अत-दीप-भव ‘| इस साहित्य में चित्रित समाज ने कभी भेद भाव नहीं किया | ना कभी अन्यों के साथ छूत-छात,ऊँच-नीच की भावना रखी | ‘मेरी यात्रा आज भी जारी है’ नामक कविता में डॉ.चन्द्रकुमार वरठे जी ने कहा है,

 

 

‘’ सिर्फ जानता हूँ मैं इतना कि

मैं ना अच्छूत हूँ ना दलित

मैं किसी जाति या धर्म का नहीं हूँ

मैं सिक्ख हूँ ना हिन्दू ना मुसलमान

मैं केवल हिन्दुस्तानी हूँ

और देश है मेरा हिंदुस्तान |’’१.समृद्ध काव्य पेज.८७

उपेक्षित समाज का साहित्य दुःख और करुणा का सहित्य हैं | वेदना और पीड़ा का साहित्य हैं |

स्त्री विमर्श का जब हम अध्ययन करते है, तब पता चलता है कि स्त्री जो अबतक जो उपेक्षा सहते आयी थी | उपेक्षित समाज का एक हिस्सा स्त्री रही हैं | जो अन्याय, अत्याचार को बर्दाश्त करती रही थी | वह पुरुष, पुरुष समाज  तथा पुरुष मानसिकता से हमेशा से ही ग्रसित रही थी | जब मर्यादा टूटती है, तब स्त्री ने साहित्य के माध्यम से अपनी पीड़ा, वेदना, उपेक्षा, अपमान को पूरी अनुभूति के साथ अभिव्यक्त किया | मैत्रेयी पुष्पा जी ने ‘’ बाहर तो जाना ही है’’ डायरी में स्त्री पर होने वाले अत्याचार तथा उसकी मानसिकता का पूरी संवेदना, वेदना पीड़ा के साथ अभिव्यक्त किया है | डायरी में चित्रित स्त्री का पति और एक पुत्र की कामना करते हिये चार-चार लड़कियों को जन्म दे देता है | लडके की चाहत में पुरुष द्वारा स्त्री की शारीरिक पीड़ा को ना समझना | स्त्री के प्रश्नों की ओर संकेत करता है | साथ ही अपने पति के प्रति घृणा जैसे विद्रोह का जन्म भी होता है |

 

‘’ कितना ही बचा जाए, लेकिन पति के घर की परम्परा का डंक कलेजे में पूरे पैनेपन के साथ छुपा हुआ था | समझ गयी कि पति को दूसरा बेटा हर हालत में चाहिए | सास मुझे सुनाकर कहावत कहती हैं कि-सौ में सौ रुपया क्या, बेटे में एक बेटा क्या ? यहाँ कोई मेरी इच्छा नहीं देखता | मैं, मैं जिस बच्चे को नौ महीने का कष्ट सहकर गर्भ में रखना है, अपना शरीर चीर-फाड़ से गुजारकर जानलेवा दर्द सहकर उसे जन्म देना है | इनका वंश मेरी जिन्दगी को दाँव पर लगाकर चेलगा… याद नहीं कि आदमी का बच्चा बड़े होने में माँ की जिन्दगी के कितने साल ले लेता है ?’’ . गद्य अमृत-पृष्ठ ७१-७२

 

स्त्री को कभी मानवी समझा ही नहीं गया था | सुमित्रानंदन पन्त जी जैसा कवि भी यही अभिव्यक्त करता है ,

योनी नहीं है रे नारी, वह मानवी प्रतिष्ठित |

उसे पूर्ण स्वाधीन करों,वह रहें न नर पर अवसित |’’३.

          स्त्री के साथ सदा से ही जानवरों-सा बर्ताव किया गया था | यह अपमान, उपेक्षा, वेदना, पीड़ा की टीस इतनी बढ़ गयी की निर्मला पुत्तुल जैसी कवियत्री अपने कविता संकलन  ‘’नगाड़े की तरह बजते है शब्द ‘’  में पुरुष, पुरुष समाज, पुरुष मानसिकता के खिलाफ आवाज उठाती हुई नजर आती है | पृष्ठ ३४ की यह पंक्तियाँ दृष्टव्य है,

‘’ एक स्त्री के

मन की गाँठे खोल कर

कभी पढ़ा है तुमने

उसके भीतर का खौलता इतिहास ?

अगर नहीं !

तो फिर जानते क्या हो तुम

रसोई और बिस्तर के गणित से परे

एक स्त्री के बारें में |’’४.

            मनुष्य संवेदनशील प्राणी हैं | मनुष्य समाज की सजीवता भावों की तत्परता में होती हैं | आ.रामचन्द्र शुक्ल जी के करुणा निबंध में इस सन्दर्भ में कहा है,

 

‘’ मनुष्य की सजीवता मनोवेग या प्रवृत्ति में, भावों की तत्परता में हैं | इस विषय में कवियों का प्रयत्न सच्चा है जो मनोविकारों पर शान ही नहीं चढ़ाता है बल्कि परिमार्जित करते हुए सृष्टि के पदार्थों के साथ उनके उपयुक्त सम्बन्ध निर्वाह पर जोर देते हैं |’’ . गद्य सागर पेज .४५

            उपेक्षित समाज के साहित्य में जो वेदना एवं पीड़ा, दर्द एवं टीस है | पाठक समाज जब उसे पढ़ता है | तब उसमें दूसरों के दुःख को देख कर दया, करुणा के भाव उमड़ पड़ते है | और करुणा तो दूसरों के दुःख का विषय होता है | वह दुःख के निवारण का प्रयास करता हैं | करूणा दूसरें की भलाई, सहायता, रक्षा की भावना जगाता हैं | इस अर्थ में वर्तमान साहित्य समाज के हित का साहित्य हैं | जो मनुष्य को मनुष्य बनना सिखाता हैं | प्रत्येक मनुष्य को मनुष्य की नजर से देखना सिखाता है | मनुष्य के भीतर के मनुष्य को जगाता है | जो पारम्परिक दृष्टी बदलता है | पारम्परिक दृष्टी बदलना अर्थात प्रगति |जो साहित्य मनुष्य को भीतर से सभ्य बनने के लिये विवश करता है | समता, बंधुता का संदेश देता है | वह साहित्य कदापि समाज का अहितकारी नहीं हो सकता | वह सदा मंगलकारी ही हो सकता है |

साहित्य में अभिव्यक्त होने वाले समाज को हमने दो भागों में विभाजित कर दिया | एक जो  प्रगत नहीं हुआ उसे असभ्य समाज और जो प्रगत हुआ उसे सभ्य समाज कह सकते हैं | एक समाज जो भौतिक सुख-सुविधाओं से वंचित था | शिक्षा, अर्थ से कोसों दूर था | तो दूसरा समाज शिक्षा और अर्थ से अर्थात भौतिक सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण था |  एक सदा से उपेक्षा, घृणा, अपमान, अत्याचार-अन्याय का शिकार रहा था | वहीं दूसरा समाज इन सबसे उपर उठ गया था | उपेक्षित असभ्य समाज ने संघर्ष करते हुए भी अपने मूल्यों का त्याग नहीं किया था | पर सभ्य समझे जानेवाले समाज में मूल्यों ने दम तोड़ दिया | उसने अपनी सुविधा नुसार अपने नये मूल्य बना लिये | वह शरीर और भौतिक सुख-सुविधाओं से जितना लेस होता गया उतना ही वह मानवीय नैतिक मूल्यों से दूर जाता गया था | भले ही शाश्वत मूल्य सदा अमर होते है, पर भौतिक चकाचौंध, पैसा, ग्लैमर के सम्मुख वह इतना स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बन गया कि अपने सुख में आड़े आनेवाले प्रत्येक का तिरस्कार करता गया |

इक्कीसवी सदी में आर्थिक उदारीकरण, भूमंडलीकरण और उत्तर औद्योगिक समाज ने वर्तमान युवापीढ़ी के सम्मुख रोजगार के ऐसे अधुनातन अवसर प्रदान किये कि वह परम्परागत या प्रशासकीय नौकरी के पीछे न दौड़ते हुए वह अपने आप को अपने सपनों को यहाँ पूरा होते हए पाने लगा | ममता कालिया के दौड़ उपन्यास के पृष्ठ ५ पर ‘चंद संतरे’ शीर्षक के अंतर्गत कहा हैं,

 

‘’भूमंडलीकरण और उत्तर ओद्योगिक समाज ने इक्कीसवी सदी में युवा वर्ग के सामने एकदम नए ढंग के रोजगार और नौकरी के रास्ते खोल दिए हैं |’’ .

पैसा,ग्लैमर, चकाचौंध से युवा पीढ़ी इतनी स्वयं केन्द्रित हो गयी कि वे केवल अपने तक ही जिन्दगी जीने लगा | उसकी नजरों में कृतज्ञता, रिश्ते-नाते महत्वहीन हो गये | उसके लिए तो यह सब केवल पैसा और पैसे के पीछे दौड़ती हुई अन्धी संस्कृति तथा विलासितापूर्ण जीवन बिताना ही है | स्वयं उपन्यासकार ने उपन्यास के पश्च्य पृष्ठ पर ‘दौड़’ से सम्बन्धित अभिप्राय में आर्थिक उदारीकरण, बाजार और बाजारवादी व्यवस्था के शिकार स्वंय केन्द्रित युवावर्ग के बारे में स्पष्ट करते हुए कहा है,

 

‘’ जिस कथित आर्थिक उदारीकरण ने बाजार और बाजारवादी व्यवस्था को ताकत दी है, अपने पारस्परिक नाते-रिश्तों को अनुदार, मतलबी और इतना अर्थ केन्द्रित बना दिया है कि, बिगड़े परिप्रेक्ष्य में आज सम्बन्धो के मूल्य और अर्थ बदले नहीं बल्कि कहना चाहिए नष्ट हो गए है |’’ ७.

             वर्तमान युवक ने  संयुक्त परिवार को त्यागकर उसने विभक्त परिवार को अपना लिया हैं | इतना ही नहीं बल्कि विभक्त परिवार भी लिव एंड रिलेशनशिप पर आधारित दिखाई देता है | विवाह पूर्व साथ रहना और माता-पिता को बिना बतायें प्रेम विवाह करलेना | इतना ही नहीं बल्कि दोनों का अलग-अलग शहरों में नौकरी के लिए रहना, सप्ताह में एक बार मिलना जैसे मूल्यों ने मनुष्य के पैसों और विलास के लिए दौड़ देखी जा सकती है | वह बिसलरी संस्कृति, मॉल संस्कृति से प्रभावित हो गया है | वह इतना स्वार्थी बन गया कि अपने माता-पिता के प्रति भी व्यवहारी बर्ताव करता हुआ दिखाई देता है | दौड़ उपन्यास में पृष्ठ  ८१ पर विदेश में बैठा बेटा पिता के देहांत पर यह कहता हुआ दिखाई देता है,

 

‘’ हम सब तो लुट गये ममा, लोग बता रहे है, मेरे आने तक डैडी को रखा नहीं जा सकता | आप ऐसा कीजिए, इस काम के लिए किसी को बेटा बनाकर दाह-संस्कार करवाइए | मेरे लिए तेरह दिन रुकना मुश्किल होगा | आप सब काम करवा लीजिए | मज़बूरी है ममा, मेरा दिल रो रहा है | मैं आपकी मुसीबत समझ रहा हूँ | और घर अनजान लोगों के लिए खुला मत छोड़िएगा | इंडिया में अपराध कितना बढ़ गया है, हम बी.बी.सी. पर सुनते रहते हैं |’’ .

 

सभ्य समाज का युवक हमें अपने ही माता-पिता से जवाब पूछते नजर आता है | जिन्होंने अपने बच्चे को पाल पोस कर बढ़ा किया | इस लायक बनाया कि वह अपनी देख भाल के साथ माता-पिता की देख भाल करें | दौड़ उपन्यास में पवन का भाई सघन अपना देश छोड़कर ताईवान की साफ्टवेयर कम्पनी में काम करता है | सघन को पिता द्वारा देश में आकर कोई काम करने के लिए बुलाया जाता है, इस पर वह तीस-चालीस लाख की आवश्यकता बताता है | जिससे कोई व्यवसाय कर सके | जब पिता द्वारा असमर्थता दिखायी देती है, तब वह जिन शब्दों का प्रयोग करता हुआ दिखायी देता है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह कितना स्वंय केन्द्रित बन गया है,

 

‘’आप ने इतने बरसों में क्या किया ? दोनों बच्चों का खर्च आपके सिर से उठ गया | घूमने आप जाते नहीं, पिक्चर आप देखते नहीं, दारू आप पीते नहीं, फिर आपके पैसों का क्या हुआ ?’’ .पृष्ठ .८५

 

आज भले ही विज्ञान, तकनिकी प्रगति के कारण मनुष्य सभ्य बन गया हैं | वैसे सभ्य बनना कोई गलत बात नहीं किन्तु सभ्यता से आगे निकल जाना गलत है | प्रत्येक सभ्य समाज की प्रशंसा तो होती है, पर यदि नैतिकता, ईमानदारी आदि मानवीय मूल्य जब टूटते दरकते दिखाई देता है; तब वह निंदा का पात्र हो जाता है | निंदा का पात्र समाज कतई अनुकरणीय नहीं होता | अनुकरणीय वही होता है, जो सभ्यता के साथ मूल्यों का जतन करता है | आदर्श रखता है | ऐसा आदर्श ही समाज हितकारी, लोक मंगलकरी हो जाता है | साहित्य मूल्यों का जतन करना सिखाता है | दौड़ में मानवीय मूल्यों का अधपतन, स्वार्थ को दर्शाकर ममता कालिया जी ने समाज के सम्मुख उसका असली चेहरा रखा है | और कोई भी समाज जब अपना असली चेहरा देखता है, तब उसमें परिवर्तन के संकेत नजर आने लगते हैं |  यशपाल के ‘चीफ की दावत’ कहानी मानव के भीतरी असभ्यता का नकाब उघाड़ कर रख देती है | कहानी के पात्र का बोस जब घर आता है, तब पात्र की माँ को छिपाने का प्रयास वर्तमान समाज की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करते हुए दिखाई देता है | कमलेश्वर का ‘’ दिल्ली में एक मौत’’ शहरी सभ्यता को यथार्थ के धरातल पर अंकित करता हुआ, मनुष्य की स्वार्थ प्रवृत्ति को उजागर करता है | लतीफ घोंघी के व्यंग्य निबन्ध ‘’ मेरी मौत के बाद ‘’ में इन्सान के स्वार्थ के कहर को हास्य-व्यंग्य शैली में अभिव्यक्त होते हुए देखा जा सकता है | समृद्ध काव्य के पृष्ठ ७२ पर सम्पादक जी अज्ञेय की कविता ‘साँप के प्रति’’ कविता के सन्दर्भ में कहते है,

 

‘’ साँप के प्रति कविता में कवि ने व्यंग्यात्मक भाव से मानवीय स्वार्थी प्रवृति पर रौशनी डाली है | अपने आप को सभ्य माननेवाला मानव सभ्य तो नहीं हुआ पर स्वार्थ हेतु कुछ भी कर गुजरता है | आधुनिक बोध को अभिव्यक्त करती यह कविता संक्षिप्त होते हुए भी विविध अर्थों की परतों को खोलती है |’’ १०.

 

साँप !

तुम सभ्य तो हुए नहीं

नगर में बसना भी

तुम्हें नहीं आया |

एक बात पूंछूं-[ उत्तर दोगे ?]

तब कैसे सीखा डंसना

विष कहाँ से पाया ?’’ अज्ञेय ११.

 

ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण दिये जा सकते है | जो साहित्य में अभिव्यक्त सभ्य समाज की स्वार्थ प्रणित असभ्यता को व्यक्त करता है | जबतक मनुष्य बाहर और भीतर से सभ्य नहीं होता; तबतक मनुष्य, मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं | साहित्य मनुष्य में बाहर और भीतर से सभ्य बनने की निरतर प्रेरणा देते रहता हैं | इसीलिए हम साहित्य को तन और मन की सभ्यता देनेवाला साहित्य कह सकते है |

 

वस्तुतः मनुष्य चाहे जितना प्रगति करलें | विकास की डींगे हाँक ले | सभ्यता का दभ भरे | पर जब तक वह भीतर से सभ्य नहीं होता, तब तक मनुष्य की सही मायने में प्रगति नहीं हो सकती | बाहरी सभ्यता भौतिक प्रगति को दर्शाती है, तो भीतरी सभ्यता मनवता को | मानवीय मूल्यों के आदर्शों को | मनुष्य को बाहर और भीतर से सभ्य बनना पड़ेगा | साहित्य यही करता हैं | मनुष्य को बाहर और भीतर से सभ्य बनने में मदद करता हैं | वास्तव में वह तन और मन की सभ्यता प्रदान करता हैं | जो साहित्य तन और मन की सभ्यता प्रदान करता हैं, वह शाश्वत साहित्य होता हैं | विश्व साहित्य का अनुकरणीय होता हैं | एक आदर्श समाज की स्थापना में सहायता प्रदान करता हैं | आज का साहित्य जो सूक्ष्म था, उसे व्यापक रूप प्रदान करता हैं | एक समाज जो प्रगति से पूरी तरह से कटा हुआ हैं | उपेक्षा, अपमान, घृणा, अत्याचार, अन्याय, वेदना-पीड़ा का शिकार रहा हैं | वह पूरी स्वानुभूति के साथ व्यक्त करता हैं | यह स्वानुभूति सच्ची और भोगी हुई हैं | कोई झूठ या पाखंड नहीं | जिसका मजाक उड़ाया जाये | यह साहित्य मन को शुद्ध करता हैं | सभ्य समाज में; जिसने मानवीय मूल्यों को ठोकर लगाई थी, उसमें संवेदना को जगाती हैं | उसके मन को सभ्य करती हैं | साथ ही सभ्य समाज; जो स्वार्थ के धरातल पर दौड़ लगा रहा हैं, का असली चेहरा पूरी ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त करते हुए;  तन और मन से सभ्य बनाने के लिए विवश करता हैं | आज का साहित्य भी पूरी ईमानदारी के साथ मनुष्य को तन और मन की सभ्यता प्रदान करता हैं | इसीलिए साहित्य के सन्दर्भ में यह कथन असंगत नहीं होगा | ‘’तन और मन की सभ्यता प्रदान करता हैं साहित्य |’’

 

-  डॉ. सुनिल जाधव

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पता : महाराष्ट्र -०५ ,भारत

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