जिधर देखो हर तरफ़ आज शोर ही शोर है
छायी हुई है काली रात होती कभी न भोर है
कब से बैठा हूँ रौशनी के इंतज़ार में
दिखाई नहीं देता कौन सा यह मोड़ है
भेजा था हमें बनाने वाले ने बड़े अरमान लिए
आये इस धरती पर हम सभी प्यार का पैग़ाम लिए
तो बताओ क्यों नहीं कहीं प्यार यह दिखता है
भटक रहा है इंसान आज नफ़रत तमाम लिए
क्या इसी दिन के लिए उसने हमें बनाया था?
सबको एक दिल पानी सा साफ़ दिलाया था
कि आकर यहाँ हम उसे मैला कर बैठें
यह भी याद नहीं किसी को कभी गले लगाया था!
भागती इस दुनिया में आज कौन तेरा है
इस अनजानी भीड़ में किसे कह सकते वो मेरा है
क्या चार कंधे भी मिलेंगे तुझे?
जब जीवन की लौ बुझे और चारों तरफ अँधेरा है?
आज ये बातें कह सकता हूँ, क्योंकि मैंने इन्हें लिखा है
सच कहूँ, आज से पहले मेरा यह रूप मुझे कभी न दिखा है
मैं कौन सा सब लोगों से अलग था,
भटका हुआ, भूले प्यार को नफरत ही मैंने सीखा है
पर आज यह एहसास मन में एक शूल की तरह चुभता है
ज़िन्दगी के कितने कीमती पल गँवाए, हर पल ऐसा लगता है
अपने बीते कल पर तो दो आँसू भी गिर नहीं सकता
रो लेने से क्या गुज़रा वक़्त कहीं बदलता है?
ख़ुशी इस बात की है, कि अब कुछ कुछ जीना सीख गया
जब से लफ्ज़ दिए हैं मैंने धड़कन को, लगता है खुदा दिख गया
खोया रहता हूँ अपने में, नफरत करने की फुर्सत कहाँ
इसी ख़याल में जाने कितनी रुबाइयाँ मैं लिख गया
ख़ुदा से है यह दुआ कि मुझे इतनी रूहानियत दे
बना सकूँ मैं चार भी ज़िन्दगी इतनी मुझे काबिलियत दे
आ जाये मेरी वजह से दो होंठों पर भी हँसी
इतनी तू मुझमे इबादत दे!
-विक्रम प्रताप सिंह
वर्तमान : सहायक प्रोफेसर, सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई
पेशेवर प्रशिक्षण से ये एक भूविज्ञानी हैं