अपराधी कौन ? मैकाले या हम ?

 अपनी वर्तमान शिक्षा  की जिन बातों को लेकर समाज में असंतोष है उनमें से एक है ” शिक्षा का माध्यम “.  अंग्रेजी का शिक्षा के माध्यम के रूप में  अधिकृत और व्यवस्थित प्रयोग तो लार्ड मैकाले के उस विवरण पत्र ( 1835 )  का परिणाम था जो  उसने   ब्रिटेन की संसद के नए आज्ञापत्र ( चार्टर 1833 )  को व्यावहारिक रूप देने के लिए तैयार किया. आज्ञापत्र को अंतिम रूप देने से पहले ही डायरेक्टरों ने अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए  5  सितम्बर 1827  को गवर्नर जनरल को पत्र में लिखा कि शिक्षा के लिए निर्धारित धन उच्च और मध्य वर्ग  के ऐसे  भारतीयों  की शिक्षा  पर ही खर्च किया जाए जो हमारे शासन के लिए ‘ एजेंट ‘  का काम करें . उस समय  स्कूल चलाने वाले  प्रायः  तीन तरह के लोग थे  -

  1. कंपनी के कर्मचारी,  जो  अपने बच्चों    के लिए  इंग्लैंड  के स्कूलों जैसी  शिक्षा देना चाहते थे ,
  2.  ईसाई  मिशनरी  जो  मुख्य रूप से  ईसाई धर्म की शिक्षा देते थे.  मिशनरियां   धर्म प्रचार का काम  सामान्यतया  समाज के निर्धन लोगों के बीच  करती थीं .  अतः वे अपनी  शिक्षा में किसी व्यवसाय की शिक्षा  भी शामिल करते  थे ताकि धर्मान्तरित लोगों का  आर्थिक स्तर  सुधर सके, और
  3. भारतीय जिसमें हिन्दू और मुसलमान  दोनों थे जो क्रमशः पाठशाला / आश्रम,  मकतब / मदरसे  वाली शिक्षा देना चाहते थे.

यों तो इन सभी की नज़र  उक्त राशि पर लगी हुई थी, पर  कंपनी के कर्मचारी और ईसाई मिशनरी इस पर अपने विशेषाधिकार समझते थे.

 

मैकाले के सम्बन्ध में यह  जान लेना उपयोगी होगा कि  जब  ब्रिटिश पार्लियामेंट ने  ” गवर्नमेंट  ऑफ़  इंडिया  एक्ट 1833  ”  पास किया तो  मैकाले  को  गवर्नर  जनरल  काउन्सिल  ( जिसे सुप्रीम काउन्सिल ऑफ़  इंडिया  कहते थे  )   का  विधि  सदस्य  ( Law   Member )  नियुक्त किया.  अतः मैकाले 1834  में  भारत आया. यहाँ उसे  ” कमेटी ऑफ़  पब्लिक इंस्ट्रक्शन ”  का अध्यक्ष बनाया गया. इस कमेटी में दस सदस्य थे जिनमें  से आधे सदस्य तो  संस्कृत, फारसी, अरबी की शिक्षा जारी रखने के समर्थक थे, पर शेष आधे अंग्रेजी  की और यूरोपीय  ज्ञान – विज्ञान  की शिक्षा देने के पक्ष में  थे. इस विवाद को समाप्त करने और कंपनी के  डायरेक्टरों की इच्छा को लागू करने की दृष्टि से उसने अपने विवरण-पत्र   में तीन नीतिगत बातें कहीं  :

  1. हमें अपना राज्य सुदृढ़ करने के लिए ऐसे  लोग चाहिए जो  रक्त और रंग में  तो  भारतीय हों,  पर रुचियों में,  दृष्टिकोण में,  नैतिकता  में और बुद्धि में      अँगरेज़ हों.  ऐसे लोग तभी तैयार किए जा सकते हैं जब उन्हें यूरोपीय  ज्ञान – विज्ञान  की शिक्षा दी जाए.  अतः हमें यह राशि  ” यूरोपीय  ज्ञान – विज्ञान ” ( इसी को अब  हम लोग ” आधुनिक ज्ञान – विज्ञान ” कहने लगे हैं )  के प्रसार पर  खर्च करनी चाहिए.
  2.  इसके लिए अंग्रेजी को ही  शिक्षा का माध्यम बनाना होगा  क्योंकि  भारतीय भाषाएँ इतनी अविकसित और गंवारू  हैं कि उन्हें यूरोपीय  भाषाओँ से संपन्न किए  बिना उनमें  यूरोपीय ज्ञान – विज्ञान का अनुवाद तक संभव नहीं.
  3. यह शिक्षा सबको नहीं, समाज के केवल विशिष्ट  वर्ग को देनी चाहिए. यह विशिष्ट वर्ग ही  इस ज्ञान – विज्ञान का प्रसार  देश के अन्य लोगों में  देशी भाषाओँ के माध्यम से  ( कृपया इन शब्दों पर  ध्यान दें , ‘  देशी भाषाओँ के माध्यम से ‘  )  कर लेगा . इसे ही शिक्षा-शास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली में ’अधोमुखी निस्यन्दन सिद्धांत  ( downward   filtration   theory ) ‘ कहते हैं.  मैकाले  के निम्नलिखित  शब्द  ध्यान देने योग्य हैं  : ”     We must at present do our best to form a class who may be interpreters  between us  and the millions whom we govern ……… a class of persons  Indian in blood and colour , but English in tastes, in opinions, in  morals and  in  intellect.  To   that   class  we      may     leave it to  refine  the  vernacular  dialects  of the country,  to  enrich  those  dialects  with  terms  of  science  borrowed  from  western  nomenclature,  and  to  render  them  by  degrees  fit  vehicles  for conveying  knowledge  to the great  mass  of the  population.” ( Selections from  Educational  Records, Part-1,  Edited by  H. Sharp; Reprint  Delhi :  National  Archives of India,  1965,  Pages  107 – 117 )

गवर्नर जनरल  वेंटिक  ने  इस विवरण पत्र को स्वीकार कर लिया.  साथ ही, अंग्रेजी शिक्षा के प्रति  भारतीयों को आकर्षित  करने,  कंपनी के माल की बिक्री बढ़ाने,  तथा कंपनी का  व्यय  कम  करने की दृष्टि से  उसने  कंपनी की  सरकारी नौकरी में भारतीयों को  कम वेतन पर  ऊँचे पद देने  शुरू कर दिए .  पुर्तगाली , फ्रांसीसी, डच और अँगरेज़  इस देश के उद्योग – धंधों को  जिस तरह नष्ट कर चुके थे  और परिणामस्वरुप  अर्थ व्यवस्था की जो  दुर्दशा हो चुकी थी  (  उक्त यूरोपीय जातियों के आने से पहले इस देश की जो पूरे विश्व को अपनी ओर आकर्षित करने वाली आर्थिक स्थिति थी,  विश्व व्यापार में उसका जो स्थान था , और इन जातियों ने जिस तरह से उस सबको नष्ट किया – उसका विस्तार से अध्ययन    सुन्दर लाल की   ”  भारत में  अंग्रेजी राज “,  रमेश चन्द्र दत्त  आई. सी. एस.  की  ”  भारत  का  आर्थिक इतिहास ” ,  सुरेन्द्र नाथ गुप्त की  ” सोने की चिड़िया और लुटेरे  अंग्रेज़ ”  जैसी पुस्तकों में किया जा सकता  है ), उसके परिप्रेक्ष्य  में  नौकरी का आकर्षण   अत्यंत स्वाभाविक ही   था.  अतः   भारत के  विशाल  मध्यम वर्ग में  अंग्रेजी शिक्षा की मांग  बढ़ने लगी.  शायद इसीलिए  मैकाले के विवरणपत्र  को  कुछ शिक्षा – शास्त्री ” मील का पत्थर ” कहते हैं, तो कुछ इसे  ” खतरनाक  रपटीला  मोड़ ”  बताते हैं.

इस   विवरण से  यह तो  स्पष्ट   ही है  कि  शिक्षा के  माध्यम   के रूप   में अंग्रेजी  का  प्रयोग  अंग्रेजी  शासन – काल  में ही  स्वयं  मैकाले  की  दृष्टि में कोई   ” स्थायी  व्यवस्था ”  नहीं,   केवल ” तात्कालिक  अस्थायी  व्यवस्था ”  थी

क्योंकि  मैकाले का  अंतिम  उद्देश्य  सामान्य  जनता  में    यूरोपीय ज्ञान – विज्ञान

का प्रसार  ” देशी भाषाओँ के माध्यम ”  से करना  था ;  पर  हमने  ” स्वतंत्र   भारत ”  में  अंग्रेजी माध्यम को   ही ” स्थायी  व्यवस्था ” बना दिया .   तो अस्थायी व्यवस्था को स्थायी बनाने  का  अपराधी  कौन  है ? मैकाले  या  हम  ? हमने तो जापान, कोरिया ,  चीन  जैसे  देशों तक  से  कुछ सीखने  का  प्रयास नहीं किया  जिन्होंने  यूरोपीय ज्ञान – विज्ञान   पहले  यूरोपीय  भाषाओँ  में सीखा अवश्य, पर  फिर उसे  अपनी भाषाओँ  के  माध्यम  से  अपने  देश में फैलाकर विश्व  के प्रमुख  देशों  में  अपना   स्थान सुरक्षित कर लिया .  जापान  ने  जब 19 वीं शताब्दी  के  अंत में  अपनी  शिक्षा को  नई  चाल में  ढालने  का प्रयास किया तो  अनेक   युवाओं को  पढ़ने  के लिए   यूरोप – अमरीका  भेजा,  जिन्होंने वापस आकर   उस ज्ञान   को   अपने  देश  में   जापानी   भाषा   के    माध्यम से  ही फैलाया.  ज्ञान – विज्ञान  का  माध्यम   जब   कोई   विदेशी  भाषा    होती है  तो उसके  तमाम  शब्द  हमें  रटने   पड़ते   हैं  क्योंकि  उनके  अर्थ  हम नहीं समझते.  इसके  विपरीत  अपनी  भाषा  के  शब्दों    के  अर्थ में  एक पारदर्शिता होती है .  जैसे, अंग्रेजी का  ” affidavit ”  तो  हम  रटते  हैं,  पर उसके  लिए   हिंदी  शब्द  ” शपथ पत्र ”  का अर्थ  अपने आप  में  स्पष्ट हो जाता है.  यही कारण है  कि  जापानियों  ने यूरोपीय  ज्ञान – विज्ञान  के लिए  अपने शब्द बनाकर आधुनिक  ज्ञान – विज्ञान अपने  देशवासियों  के लिए  बोधगम्य  बना दिया. जैसे , ‘ बैरोमीटर ‘  को वे  sei – u – kei  ( धूप – वर्षा  मापक ),  या  ’ एस्बेस्टस ‘  को seki – men  ( पत्थर  की  रुई )  कहते हैं.  जापान जैसे  देशों की  प्रगति का यह मूल  रहस्य  है .

 

मैकाले ने भले ही अंग्रेजी को  ’ यूरोपीय ज्ञान – विज्ञान  प्राप्त करने  का साधन ’ बताया हो,  हमने तो उसे  ’ सरकारी  नौकरी  का  लाइसेंस ’   मानकर अपनाया. आर्थिक  दृष्टि से  जर्जर होते समाज में हमें  अंग्रेजी  कल्पवृक्ष  की सुखद छाया जैसी  प्रतीत हुई  जहाँ  सरकारी नौकरी के सारे  ऐशो – आराम  तुरंत मिल सकते थे. परिणाम  यह  हुआ  कि  ’ अंग्रेजी ’   तो  देश के कोने – कोने  में  फैल गई,   पर  ’ ज्ञान – विज्ञान ’  लुप्त  हो गया.  यही कारण है  कि  आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी आज तक अज्ञान,  अविद्या,  अंध विश्वास  की  उन्हीं अंधी गलियों में भटक रहा है  जिनमें   आधुनिक ज्ञान – विज्ञान  से  अनभिज्ञ  व्यक्ति भटकता रहता  है.  अंग्रेजी   पढ़ा  सामान्य व्यक्ति  ही  नहीं,  विज्ञान  का प्रोफ़ेसर, डाक्टर, इंजिनियर    भी  किन्हीं  अदृश्य  शक्तियों  से  इतना अधिक  आतंकित है कि अपने  नए  मकान  की   रक्षा  के  लिए  मकान  पर  काली  हांडी लटकाना आवश्यक  मानता  है.  अपनी  रक्षा  के लिए   हाथ  की  अँगुलियों  में रंग – विरंगे  पत्थरों वाली  अंगूठियाँ  पहनता  है.  भौगोलिक  तथ्यों  को  जानते हुए भी सूर्य / चन्द्र  ग्रहण  के  अवसर  पर  देवताओं  को  संकट  से उबारने के लिए स्नान – ध्यान – पूजा – पाठ  करता है.  ’ पंडितों ’  को  खाना  खिलाकर अपने ‘ स्वर्गस्थ ’  पितरों का  पेट  भरता  है. ऐसी  ही  मानसिकता के कारण  वह  तो  कंप्यूटर का  उपयोग  भी  ’ जन्मपत्री ’   तैयार करने के लिए  करता  है. इसके लिए अपराधी मैकाले है या हम ?

 

जो अंग्रेजी  आधुनिक ज्ञान – विज्ञान   की  वाहिका  बताई  गई  थी,  उसका  हमने ज्ञान – विज्ञान  से तो सम्बन्ध – विच्छेद  कर दिया,  पर  अंग्रेजी  को पूरी  श्रद्धा से  इस  तरह  अपना लिया कि  केवल  नौकरी  के  काम   नहीं,   बल्कि     अपने निजी  और सामाजिक  जीवन के   छोटे – बड़े  काम भी उसी  भाषा  में  करने लगे.  हम  तो  उसे  मंदिर  की  देवी  मानकर  उसकी  पूजा  करने  लगे हैं. तभी तो  विवाह  जैसे   जीवन के  अत्यंत  महत्त्वपूर्ण  अवसर के निमंत्रण पत्र  हों  या दीपावली  -  नव वर्ष – विवाह  की वर्षगांठ – जन्मदिवस  जैसे  अवसरों के शुभकामना  सन्देश,  घर के   दरवाजे  पर लगने वाला  नामपट  हो  या  दुकान पर  लगने  वाला  बोर्ड,  छोटी – मोटी  गोष्ठी में  बात  करनी हो  या  संसद में चर्चा, “ हिंदी “  फिल्मों / नाटकों  के पुरस्कार वितरण समारोह हों  या  संगीत  आदि के कार्यक्रम  -  हम सभी  काम अंग्रेजी  में करते  हैं.  अब  तो  धार्मिक  प्रवचन भी हम  अंग्रेजी  में  करने  लगे  हैं.  जहाँ तक  नौकरी का  संबंध  है, पहले वह सरकारी  क्षेत्र में  ही  अंग्रेजी के  माध्यम से मिलती थी,  पर  कालांतर में  निजी क्षेत्र  को   भी  सरकार का  अनुसरण  करना  पड़ा.  इसके  बावजूद  लोगों  का विश्वास  था  कि  स्वतंत्रता  मिलने  पर  स्थिति  अवश्य  बदलेगी.  इस  विश्वास का ही परिणाम था  कि  जब  देश को  आज़ादी  मिलना  निश्चित  हो गया,   तो प्रसिद्ध  उद्योगपति  टाटा  ने  मुंबई  में  अपने  वरिष्ठ  अधिकारियों  को  हिंदी सिखाने  की  व्यवस्था  की ;  पर  जब संविधान - सभा ने  अंग्रेजी  जारी  रखने का निश्चय कर  लिया  तो टाटा  ने  भी  हिन्दी सिखाने की  व्यवस्था  समाप्त कर दी. संविधान - सभा  के  निर्णय  ने  सामान्य जन को  यह  स्वीकार  करने के  लिए  विवश  कर  दिया  कि   देश  भले  ही स्वतंत्र  हो गया हो, अगर सम्मान  के साथ जीना है तो अंग्रेजी की   आक्सीजन  पर ही जीना  होगा.

 

आज  नौकरी मिले या न मिले, पर  अंग्रेजी  के  चक्कर  में  हम  ” शिक्षा  का अर्थ  और  उसका  उद्देश्य ”  जैसी  सब बातें  भूल  चुके  हैं.  शिक्षा – शास्त्री पुकार – पुकार कर  कहते  आ  रहे  हैं  कि बच्चे के  शारीरिक, मानसिक ,  बौद्धिक, भावात्मक  आदि  सभी  प्रकार के  विकास के  लिए  मातृभाषा / क्षेत्रीय भाषा  के माध्यम  से  शिक्षा  देना  अनिवार्य  है.  चाहे  ब्रिटिश काल  के  हंटर         कमीशन

(1882 ),  सैडलर  कमीशन (1917 )  आदि हों  या  स्वतंत्र  भारत  के  राधाकृष्णन कमीशन (1948 ), मुदालिअर  कमीशन (1952 ) , कोठारी कमीशन (1964 )  आदि हों, शिक्षा सम्बन्धी सभी  आयोगों ने  एक स्वर से  यही  सिफारिश की  है  कि माध्यमिक  स्तर तक की शिक्षा  ( जो जीविकोपार्जन  हेतु  स्वतः  पूर्ण हो ) अनिवार्य रूप से  मातृभाषा / क्षेत्रीय भाषा  के ही  माध्यम से  देनी  चाहिए ,  पर हमारा  अंग्रेजी - प्रेम  इन  बातों को  सुनना  ही नहीं चाहता .  कहा ही गया है कि प्रेम  अंधा – बहरा  होता है.  परिणाम यह  हुआ  है कि  ज्ञान – विज्ञान   की खोज के लिए समर्पित  विश्वविद्यालय  स्तर  से  शुरू  हुई  अंग्रेजी  माध्यम  की परंपरा  माध्यमिक  और  प्राथमिक  से  होते  हुए  अब  नर्सरी  स्कूलों  तक  आ पहुंची  है.  अभी  तक  हम  यही  सोचते थे कि इस  प्रकार  अंग्रेजी  माध्यम  का प्रयोग  शिक्षा  सम्बन्धी  सभी  आयोगों की  सिफारिशों  के  विपरीत  है ;  पर अब

तो  अंग्रेजी प्रेमियों  के  प्रवक्ता  बनकर  हमारे स्वतंत्र  भारत के  ” Knowledge Commission ” (  पाठक  क्षमा  करें,  पर  डर है  कि   कहीं  इसे देवनागरी  लिपि में लिखना   या    हिंदी में ” ज्ञान आयोग ” कहना  इसका अपमान  न  हो  जाए ) के चेयरमैन  मि.  सैम पित्रोदा  ने  स्पष्ट  सिफारिश  की  है  कि  पूरे  देश में हर प्रकार की  शिक्षा  का  माध्यम  अंग्रेजी ही होना  चाहिए.  सैम  पित्रोदा और उन जैसे  ” विद्वानों ” ने मान लिया है  कि  शिक्षा  के माध्यम  के  रूप  में अंग्रेजी का  प्रयोग  ही  आज  अलादीन  का वह  जादुई  चिराग है  जो  शिक्षा  के प्रसार की कमी,  शिक्षा की गिरती  गुणवत्ता , बेरोज़गारी  आदि तरह – तरह की सभी समस्याओं  को  हल  करके  हमारी सभी  मनोकामनाएं  पूर्ण  कर  सकता  है .

 

लोगों ने  मान लिया  है  कि  अंग्रेजी  माध्यम से  दी गई  शिक्षा  की  गुणवत्ता उच्च स्तर की ,  और  भारतीय भाषा  माध्यम  की  निम्न  स्तर की  होती  है. विभिन्न   बोर्डों की परीक्षाओं  में  या  अखिल  भारतीय  प्रतियोगी  परीक्षाओं  में जब  कभी  भारतीय  भाषा  माध्यम  के  बच्चे  ’ टाप ‘ करते हैं  तो  दिलजले लोग  उसे ‘ अंधे  के  हाथ  बटेर ‘ कह  देते हैं.  वे  इसे  मातृभाषा  का  प्रभाव     मानने को  तैयार ही  नहीं.  उनकी  इस  मानसिकता के  कारण देश के  सीमित संसाधन  और  अमूल्य  शक्ति  गाँव – गाँव में  अंग्रेजी माध्यम  के  विद्यालय खोलने  में नष्ट हो  रही  है .

 

लोग  बड़े  आग्रहपूर्वक  कहते  हैं कि  आज के युग में  अंग्रेजी  का  ज्ञान आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है.  उनके इस कथन से  असहमति  का तो प्रश्न ही नहीं, क्योंकि  कतिपय कामों के लिए  अंग्रेजी  का ज्ञान  वास्तव  में  आवश्यक हो गया है ;  पर इस तथ्य की  उपेक्षा कैसे  कर दी  जाए  कि  ’ अंग्रेजी  की शिक्षा ‘ और   ‘ अंग्रेजी  माध्यम से  शिक्षा ‘  एक  दूसरे  के  पर्याय  नहीं  हैं . आज के युग  में  अंग्रेजी  का ज्ञान  केवल  हमारे लिए  नहीं,  विश्व के  अन्य लोगों के लिए भी  आवश्यक है.  इसीलिए  रूसी , चीनी , जापानी, फ्रांसीसी , जर्मन ,  स्पेनिश  आदि वे लोग  भी अंग्रेजी का  अध्ययन  कर रहे हैं  जिनकी  मातृभाषा  अंग्रेजी नहीं है, पर वे  अपनी सारी  शिक्षा की व्यवस्था  ’ अंग्रेजी  माध्यम से ‘  नहीं करते.  आज विश्व में  केवल आर्थिक  नहीं,  अन्य भी अनेक  दृष्टियों से  जो स्थान  जापान, कोरिया , चीन आदि देशों का है , हमारा  देश  उनसे  हर  क्षेत्र में  दूर,  बहुत दूर,  बहुत  ही दूर केवल इसलिए है  क्योंकि हमने  अपने  बच्चों के विकास के  मार्ग में अंग्रेजी माध्यम की दीवार  खड़ी कर रखी है.  इस सच्चाई  को  हम  जितनी  जल्दी समझ लें, उतना ही अच्छा है.

 

अपने अंग्रेजी – प्रेम के कारण हम भावी  पीढ़ी के प्रति  अनेक  ’ अपराध ‘ करते  आ रहे हैं . हम यह भूल गए हैं कि जहाँ तक  भाषा  सीखने का प्रश्न है  वह  कक्षा – कक्ष  में कम , ‘ विशिष्ट  भाषायी  परिवेश ‘  में अधिक  सीखी  जाती है .  बच्चा स्कूल में अंग्रेजी ‘ पढ़कर ‘  आता है ,  पर उस  पढ़े  हुए  को  ’ सीखने ‘   के लिए उसे  अंग्रेजी  का  परिवेश  मिलता ही नहीं.  जो परिवेश  मिलता है  वह   या तो पूरी तरह  मातृभाषा / क्षेत्रीय भाषा  का  होता है,  या  फिर  मिश्रित.  अतः  बच्चे का  अंग्रेजी पर  अपेक्षित  अधिकार  हो  ही  नहीं  पाता. हमारी  आज की फिल्मों के  महानायक  अमिताभ  बच्चन  की  पढ़ाई  अंग्रेजी  माध्यम  के विद्यालय  में हुई. उनके पिता डा.  हरिवंश राय  ’ बच्चन ‘ अंग्रेजी के ही  एम्. ए. थे, पी-एच. डी. थे, और वह भी  इंग्लैंड  से.  इलाहाबाद  विश्वविद्यालय  में अंग्रेजी के ही शिक्षक थे.  माँ  तेजी बच्चन  भी अंग्रेजी की  ही  एम्. ए. थीं   और  अपने समय  के अंग्रेजी के अप्रतिम  विद्वान्  प्रो. अमरनाथ  झा  की  शिष्या थीं.  दूसरे  शब्दों में, अमिताभ को  विद्यालयी  और  पारिवारिक  दोनों ही प्रकार के  परिवेश  अंग्रेजी सीखने की दृष्टि से  अनुकूलतम  मिले. इसके बावजूद  उनका  अंग्रेजी पर  अपेक्षित अधिकार  नहीं हो पाया.  अपने ‘ ब्लॉग ‘ में  उन्होंने लिखा  है  कि  मैं   अंग्रेजी व्याकरण में कमजोर था. इसलिए सेंट  स्टीफन  कालेज ( दिल्ली )  के  प्रिंसिपल के कहने  के  बावजूद बी. ए. ( आनर्स ) अंग्रेजी में नहीं किया  (राष्ट्रीय सहारा, दिल्ली, 11 अगस्त , 2009 , पृष्ठ  15 ).   हर  बच्चे को तो वैसा भी पारिवारिक परिवेश नहीं मिल सकता जैसा अमिताभ  को मिला.  अतः  सहज ही  अनुमान  लगाया जा सकता है कि  इन बच्चों  को  अंग्रेजी  पर आधा – अधूरा   अधिकार पाने  के लिए भी  कितना  संघर्ष  करना  पड़ता  होगा   और  उसके  बाद भी इस पीड़ा  को जन्म भर  ढोना  पड़ता होगा कि  मुझे  ठीक से  अंग्रेजी  नहीं आती. सैम  पित्रौदा तो अमरीका में बसे हैं, वहां के नागरिक भी रहे हैं और उन्होंने वहां अध्ययन भी किया है,  पर इस देश का हर बच्चा न विदेश जा सकता है न वहां अध्ययन कर सकता है

हमने  मनोवैज्ञानिकों की  बताई  इस  बात  को भी  भुला  दिया है  कि बाल्यावस्था में  भाषा सीखने का अर्थ केवल कुछ शब्द  रट  लेना  नहीं है . बाल्यावस्था  में तो  भाषा  के  माध्यम से  बच्चे के मन में  ’ संकल्पनाओं ‘  के निर्माण की,  ’ अमूर्तीकरण  ‘  की  प्रक्रिया  शुरू   होती है  जो उसके  मानसिक विकास  का,  चिंतन और  विचार करने का,   भावी जीवन  का  आधार होती है,  नींव होती है.  अंग्रेजी जैसी विदेशी  भाषा  के  कारण  बच्चों में यह  प्रक्रिया  बाधित होती है.   इसी  तथ्य को ध्यान  में  रखकर राष्ट्रपिता ने कहा था, ”  अगर हम अंग्रेजी के आदी  नहीं हो गए  होते  तो  यह  समझने में  हमें  देर  नहीं  लगती कि  अंग्रेजी  के  शिक्षा  के  माध्यम होने  से  हमारी  बौद्धिक  चेतना  जीवन से कटकर   दूर हो  गई  है  , हम अपनी   जनता  से  अलग  हो  गए  हैं.”  

 

इस वास्तविकता  की भी  हमने  पूरी तरह  उपेक्षा  कर दी है  कि हर  सामान्य बच्चे में  मातृभाषा  ( प्रथम भाषा )  सीखने की  जैसी  क्षमता  जन्मजात  होती है वैसी  दूसरी,  तीसरी ,  चौथी ………….  भाषा  सीखने की  नहीं  होती .  हमने तो अंग्रेजी  माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था करके  हर बच्चे पर यह  जिम्मेदारी  डाल दी है  कि अंग्रेजी पर  मातृभाषा  जैसा  अधिकार  अर्जित  करो.   इसमें असफल रहने पर  हम बच्चे को  ’ पिछड़ा  हुआ ‘ ,  ’ फिसड्डी ‘ ,  ’ नालायक ‘ , ‘ अयोग्य ‘ , ‘ मंद बुद्धि ‘  घोषित कर देते हैं.  लगभग  चार   दशक  पूर्व  जब  मैं विश्वविद्यालय में शिक्षक था , तब मैंने  एक  शोध  के  माध्यम से  कतिपय  माध्यमिक  शिक्षा बोर्डों  के पाठ्यक्रमों /  परीक्षा परिणामों  का विस्तृत  अध्ययन किया था  जिसके निष्कर्ष  विभिन्न शोध  पत्रिकाओं  में  प्रकाशित भी हुए थे. उस समय  कई  बोर्डों में  अंग्रेजी  के दो कोर्स  थे –  अनिवार्य अंग्रेजी  ( सबके लिए ),  और  वैकल्पिक अंग्रेजी  ( जो स्वेच्छा से इसे  पढ़ना  चाहें  उनके लिए ) .  अनिवार्य  अंग्रेजी  का परीक्षा  परिणाम  जहाँ 45 से  58 प्रतिशत  तक रहा,  वहीं  वैकल्पिक  अंग्रेजी  का 88 से  97 प्रतिशत तक रहा. परीक्षा  परिणाम के इस अंतर के  कारणों  का विश्लेषण  करने पर  ध्यान गया  कि वैकल्पिक  अंग्रेजी  का  अध्ययन  वही करता है  जो इसका  लाभ  अपने  भावी  जीवन में  देख रहा  है, इसलिए  जिसकी  रुचि इस भाषा  के  सीखने में है  और जिसे  इसके  लिए  सुविधाएँ  भी  उपलब्ध हैं . इसके विपरीत  अनिवार्य  अंग्रेजी  का  अध्ययन  रुचिशील – अरुचिशील,   सामर्थ्यवान – सामर्थ्यहीन , सुविधाप्राप्त – सुविधाहीन  सभी को विवशता में करना पड़ता है . यही कारण है कि  अनिवार्य   अंग्रेजी  का परीक्षा परिणाम  ’ अनिवार्य गणित ’ ( 58 – 79 %), और अनिवार्य   सामान्य विज्ञान ( 62 -75 %) तक  से कम  रहा   जबकि  गणित  और  विज्ञान  कोई  सरल विषय नहीं. जरा विचार कीजिए  कि जब  एक विषय के  रूप  में  अंग्रेजी की अनिवार्यता लगभग आधे बच्चों को असफल रहने के लिए मजबूर कर रही है  तो शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी की अनिवार्यता  कितने बच्चों का भविष्य चौपट कर रही होगी – यह सहज कल्पना का विषय है या  गहन  अनुसन्धान का  ?

अगर हम चाहते हैं कि  हमारे  बच्चों की  प्रकृति – प्रदत्त  शक्तियों का अधिकाधिक  विकास  हो,  वे  अपनी  सामर्थ्य के  अनुरूप  अधिक से अधिक योग्य बनें , देश  के  किसी  वर्ग  विशेष  के  नहीं,  बल्कि  सभी  बच्चों  को  आगे बढ़ने का  न्यायसंगत   अवसर  मिले    ताकि   पूरे   देश  की   प्रतिभा  को  विकसित होने  का अवसर  मिले  और  देश   का   विकास   हो,     देश  के  बच्चे  देश पर  भार  नहीं,    देश  की  सम्पदा  बनें और इस  देश  को आगे  बढाएं,  तो उसका   सबसे  पहला  अनिवार्य  उपाय है — शिक्षा के  माध्यम के  रूप में मातृभाषा / क्षेत्रीय भाषा  का प्रयोग.

स्वतंत्र  भारत  में  शिक्षा  के   माध्यम  के रूप में  अंग्रेजी  का  प्रयोग  देश को दो  भागों  में  बाँट  रहा है –  ’ इंडिया ‘  और  ’ भारत ‘ . महात्मा  गाँधी  ने  जो बात  राजभाषा  के  सन्दर्भ  में  कही थी,  वह  शिक्षा  के  माध्यम  के बारे में भी उतनी ही सही है.  उनके  शब्द  थे , ”  अगर  स्वराज  अंग्रेजी  बोलने  वाले भारतीयों  का  और  उन्हीं  के लिए  होने वाला  है  तो  निस्संदेह  अंग्रेजी  ही राजभाषा  होगी  ;  लेकिन  अगर  स्वराज  हमारे  देश  के  करोड़ों  भूखों  मरने वालों,  करोड़ों  निरक्षरों,  पीड़ितों  और  दलित  जनों  का  भी  है  और  इन  सबके लिए   होने वाला है  तो  हमारे  देश  में  हिंदी ही  एकमात्र   राजभाषा  हो सकती है.”   शिक्षा  के  माध्यम  के  सन्दर्भ  में   और  पूरे  देश  के  सभी  बच्चों  के सन्दर्भ में  बस   इसमें  ’ हिंदी ‘   के  स्थान  पर  ’ भारतीय  भाषाएँ ‘  शब्द  रख दीजिए.    राष्ट्रपिता  के  इन  मर्मभेदी  शब्दों  के  बाद भी  क्या  किसी  और टिप्पणी  की  आवश्यकता  रह  जाती है  ?

- डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री

सदस्य, हिंदी सलाहकार समिति, वित्त मंत्रालय भारत सरकार ;
आस्ट्रेलिया

जन्म लखनऊ में, पर बचपन – किशोरावस्था  जबलपुर में  जहाँ पिताजी टी बी सेनिटोरियम में चीफ मेडिकल आफिसर थे ; उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में स्नातक / स्नातकोत्तर कक्षाओं  में अध्यापन करने के पश्चात् भारतीय स्टेट बैंक , केन्द्रीय कार्यालय, मुंबई में राजभाषा विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त ; सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी बैंक में सलाहकार ; राष्ट्रीय बैंक प्रबंध संस्थान, पुणे में प्रोफ़ेसर – सलाहकार ; एस बी आई ओ ए प्रबंध संस्थान , चेन्नई में वरिष्ठ प्रोफ़ेसर ; अनेक विश्वविद्यालयों एवं बैंकिंग उद्योग की विभिन्न संस्थाओं से सम्बद्ध ; हिंदी – अंग्रेजी – संस्कृत में 500 से अधिक लेख – समीक्षाएं, 10 शोध – लेख एवं 40 से अधिक पुस्तकों के लेखक – अनुवादक ; कई पुस्तकों पर अखिल भारतीय पुरस्कार ; राष्ट्रपति से सम्मानित ; विद्या वाचस्पति , साहित्य शिरोमणि जैसी मानद उपाधियाँ / पुरस्कार/ सम्मान ; राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर का प्रतिष्ठित लेखक सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान , लखनऊ का मदन मोहन मालवीय पुरस्कार, एन सी ई आर टी की शोध परियोजना निदेशक एवं सर्वोत्तम शोध पुरस्कार , विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अनुसन्धान अनुदान , अंतर -राष्ट्रीय कला एवं साहित्य परिषद् का राष्ट्रीय एकता सम्मान. 

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