तीसरा वज्रपात

थांवरी अपने टापरे (झौंपड़ी) के बाहर टूटी खाट पर लेटी बादलों में आंखमिचौनी खेलते चांद को टकटकी लगाए निहार रही थी। टूट तो वह चुकी थी जीवन से भी। भाग्य ने भी उसके साथ खूब ही आंख मिचौनी का ही खेल खेला था लेकिन उसके तीसरे पति वेस्ता के प्यार ने उसके घावों को काफी सीमा तक भर दिया था।

थांवरवार (शनिवार) को पैदा हुई थी, सो उसके पिता कालिया ने उसका नाम थांवरी रख दिया था। इस आदिवासी इलाके में नामकरण का बड़ा सरल सहज हिसाब है। अधिकतर नाम सप्ताह के दिनों के नाम से जुड़े होते हैं। सोम, मंगल और बुधवार को जन्मने वालों का नाम क्रमशः सोमला, मंगला और बुदा रख देते हैं। वृहस्पतिवार को पैदा होने वाले का नाम वेस्ता और शुक्र, शनि तथा अदीतवार को कोई दुनिया में आया है तो क्रमशः सुका, थांवरा और दीता नाम पा जाता है। यदि लड़की पैदा हो गई तो नाम में ‘आ’ स्वर की जगह ‘ई’ हो गया – थांवरा-थांवरी, मंगला-मंगली। आखिर इस वनवासी-जगत में स्त्री का अस्तित्व ‘ई’ स्वर से अधिक है ही कहां। चाहे ‘चीईई…ख’ और ‘पीड़ा’ की ‘ई’ हो या पुरुष की क्रीड़ा में छुपी ‘ई’ हो। शायद ‘ई’ बने रहना ही मानो उसकी नियति है।
विगत चालीस वर्षों के अनेक दृश्य एक-एक कर थांवरी की आंखों के सामने गुजरने लगे।
बचपन में किशोरवय की देहलीज पर पांव रखते-रखते तो सोमला उसे ‘गोटिया-आम्बा’ मेले से फुसला कर बांसवाड़ा ले गया था। तेल के लड्डू और कचौरी, उस पर पान खिलाया था उसने मेले में। कत्थे से लाल हुए होठ और जीभ को वह पान की दुकान पर टंगे दर्पण में बार-बार देखती और हिरणी-सी चौकड़ी भरती सोमले के साथ तब वह खूब घूमी थी।
सोमला भी सुंदर हट्टा-कट्टा लड़का था। सोमला द्वारा ब्याह के लिए एक हजार रुपये नकद, दो बैल और आधा किलो चांदी के गहने देने पर ही कालिया थांवरी का ब्याह उससे करने को राजी हुआ था। सोमला ने किसी तरह उसका इंतजाम कर भी दिया लेकिन एक साल में कालिया ने अवैध शराब बनाने के जुर्म में अपने तीन मुकदमों में वह सारा धन पुलिस, वकील और अदालत के बाबुओं की बंदर-बांट में बर्बाद कर दिया था। गहनों के बिना भी थांवरी सोमला के साथ खुश थी। लेकिन सोमला से ब्याह के डेढ़ साल बाद ही उसके किशोर प्रेम-परिणय पर तब पहला वज्रपात पड़ा जब उसे लेने आए सोमला को कालिया ने महुए की शराब में धुत हो कर गालियां दी और उसे पीट कर निकाल दिया। उसे बोल दिया कि रुपये पन्द्रह सौ और हो तो थांवरी को लेने आना।
पन्द्रह-बीस दिन बाद कालिया पडौसी-गांव सुरथना के साठ-पार बुड्ढे मंगला के साथ खुसर-पुसर करते हुए आया। दोनों ने देर रात तक टापरे में बैठ कर दारू पी। सोई हुई थांवरी को मंगला ने ललचाई नजर से देखा। परखा। दूसरे दिन कालिया ने दो हजार रुपये रोकड़ और एक बैल के बदले में थांवरी का हाथ मंगला को थमा दिया।
सोमला ने पंचों को इकट्ठा किया। लेकिन भांजगेड़े (पंचायती) में कालिया से कुल दो़ हजार ही वसूल कर सका। हां, कालिया को तीन सौ रुपये पंचों को दारू और तीन मुर्गों की हलाली में जरूर खर्च करने पड़े थे।सोमला भी कब तक अकेला रहता। अगले मेले में वह डेढ़ हजार खर्च कर काली को नाते ले आया।
मंगला के साथ बिताए बारह साल थांवरी के यौवन और मन को तोड़ने के लिए पर्याप्त थे। मंगला प्रायः शराब पी कर उसे पीटता। वह जंगल में सागवान की इमारती लकड़ी और महुए की अवैध शराब की तस्करी से जुड़ा था। मंगला के ही इशारे पर उसे अनेक बार वहां के वनपाल और पुलिस चौकी के हैड साहब की हवश का शिकार होना पड़ा था। उस दौरान बच्चे तो उसके चार हुए – तीन लड़के अैर एक लड़की। लेकिन उसे हर बार यही लगा कि वह अपनी निर्जीव सी देह में किसी का पाप ढोए बस जी रही है।
वह जानती थी कि एक भी बच्चा मंगला का नहीं है। शायद उसकी ममता भी मर गई थी। यही कारण था कि उसे विशेष दुख नहीं हुआ जब उसके दो लड़के मामूली बीमारी से और एक नदी में डूब जाने से अकाल मौत के शिकार हो गए थे। शेष जीवित लड़की सुकी को वह अवश्य प्यार करती थी। सुकी ही तो थी जो उसका ख्याल रखती थी।
एक शाम सुकी के साथ जब वह जंगल से लकड़ी बीन कर घर लौटी तो मंगला टापरे के बाहर लुढ़का मरा पड़ा था। शराब में वह सब कुछ गंवा चुका था। और तो और जब थांवरी को पता चला कि मरने से चार दिन पहले ही मंगला ने सात बीघे का अपना खेत भी बेच दिया था। तो उसने अपना सिर पीट लिया। थांवरी पर यह दूसरा वज्रपात था।
ऐसी असहाय स्थिति में थांवरी का हाथ इस बार थामा वेस्ता ने। वह प्रौढ़ होते हुए भी सुडौल, मेहनती और नेक दिल था। कोई ऐब भी नहीं था उसमें। उसकी पहली औरत को सांप काट गया था और वह उसकी चार साल की लड़की बुदी को छोड़ कर चल बसी थी। अतः वह भी एक अच्छी औरत की तलाश में था जो बुदी को प्यार से पाल सके। गत ग्यारह-बारह साल से थांवरी के व्यक्तित्व का काया पलट सा हो गया था। वह वेस्ता के साथ उसके हर सुख-दुख में जीवनसंगिनी बन कर बहुत खुश थी।सुकी और बुदी का विवाह कर दिया था।
इस बार अकाल पड़ गया था। वेस्ता को अहमदाबाद मजदूरी पर गए तीन माह हो गए थे। अब वह आता ही होगा। आज थांवरी का एकाकीपन उसे कुछ ज्यादा ही सता रहा था। उसकी दृष्टि अभी भी बादलों में आंखमिचौनी करते चन्द्रमा पर टिकी थी। उसके जीवन का चन्द्रमा मंगला के साथ बिताए करीब एक युग तक घोर दुर्भाग्य के ग्रहण से ग्रसित था। उन दिनों उसे अनेक राहु-केतुओं ने जो ग्रसा था। लेकिन वेस्ता ने उसे भरपूर सुरक्षा, प्रेम और सुख दिया था। किन्तु बदले में वह वेस्ता को कोई बच्चा भी नहीं दे पाई। शायद उसकी प्रजनन शक्ति ही नष्ट हो चुकी थी। यह वेदना उसे प्रायः लीलती थी।वह गांव की अन्य आदिवासी महिलाओं के साथ जंगल में सूखी जलाऊ लकड़ियां तोड़ कर उसकी ढेरी सिर पर उठाए अपने गांव से कोई तीन मील दूर स्थित कुशलगढ़ कस्बे में जाती और पांच-सात रुपये में उसे बेच कर अपना पेट पालती।
‘सोर (चोर) रे सोर….. मारे रे, मारे रे, धावजो रे धावजो।’ दूर दीत्ता पटेल के टापरे से दीत्ता का हाका सुन थांवरी अचानक घबरा कर उठी। वह समझ गई कि लुटेरे आ गए। अकेली औरत जात कर भी क्या सकती थी। कृष्ण पक्ष की तेरहवीं का निष्प्रभ चन्द्रमा अपने तारों के सैन्यबल के साथ अंधकार की गहनता को चीरने में असहाय था। धूमिल प्रकाश में थांवरी ने आंखें फाड़ कर देखा कि दीत्ता के झौपड़े से निकल कर पांच-छह मानव आकृतियां भाग रही हैं। पीछे छोड़ गई थी दीत्ता पटेल और उसकी औरत हूकली की चीखें और कराहट।
हूकली की चांदी की हांसली और पैरों के कड़ों को लूटने में तो लुटेरों ने उसके गले और पैरों पर काफी चोटें मार दी थी। कुछ देर बाद थांवरी हिम्मत करके दीत्ता पटेल के घर पहुंची। गांव के काफी लोग भी वहां पहुंच चुके थे। उसमें चार जनों का एक खोजी दल लुटेरों के पीछे भी जा चुका था। कोई दो किलो चांदी के गहने, एक सोने का बोर और बाहर सौ रुपये नकद लूट ले गए थे लुटेरे।यही कुछ खाता-पीता घर था गांव में। थांवरी ने हुकली के चोटों पर कुछ दारू डाल कर हल्दी का लेप कर मरहम पट्टी की। लेकिन हुकली अपनी चोटों के दर्द से अधिक अपनी हांसली और कड़ों के खोने की पीड़ावश विलाप कर रही थी।
गुजरात और मध्यप्रदेश की सीमाओं को छूता हुआ राजस्थान का दक्षिणतम अंचल बांसवाड़ा जिले का कुशलगढ़ कस्बा है, जहां के ग्रामीण क्षेत्र में पचानवें प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। फसल की रक्षा के लिये ये लोग अपने खेतों में ही टापरा बना कर रहते हैं। बस्ती बनाकर पास पास नहीं रहते। लेकिन कभी-कभी यही बात उनकी खुद की जान-माल की असुरक्षा का मुख्य कारण बन जाती है। मध्यप्रदेश के कुछ लुटेरे जाति के आदिवासी प्रायः राजस्थान की सीमा में चोरी या डाका डालने आते हैं। किसी टापरे में चोरी या लूट मचाने का शोर सुन कर आधा मील दूर से कोई पड़ेसी दौड़ कर आता है, तब तक चोर-लुटेरे भाग चुके होते हैं। अतः स्त्री-पुरुष प्रायः सोते समय अपने सिरहाने कुल्हाड़ी या कोई हथियार रखकर सोया करते हैं।
उस रात थांवरी दीत्ता के घर से लौट कर गर्मी होते हुए भी भयवश अपने टापरे के अन्दर ही सोई। यद्यपि उसके टापरे के किसी भी भाग को भेद कर अन्दर घुस आना किसी चोर-लुटेरे के लिए कठिन काम नहीं था तथापि मन की तसल्ली हरेक की अपनी होती है। पर नींद कहां थी उसकी आंखों में। उसके पास गहनों के नाम पर केवल तीन सौ ग्राम चांदी की हांसली मात्र थी। लेकिन उसे वह बेहद चाहती थी। उसे वह वेस्ता की मौजूदगी में ही रिझाने के लिए पहनती थी, अन्यथा उसे चूल्हे के नीचे जमीन में गाड़ कर ही रखती थी। वेस्ता ने वह हांसली नाते के समय उसे भेंट की थी। उसे याद आया कि नाते के एक साल बाद मेले में उसने वह हांसली पहन कर वेस्ता के साथ जीवन की एक मात्र फोटो खिंचवाई थी। फोटो देख कर वह मारे खुशी के काफी देर तक उछलती रही थी और कुछ क्षणों मे लिए बेशर्म हो कर वेस्ता से लिपट भी गई थी। उसे ऐसा लगा था मानो उसके मन की गहराई में वर्षों से अवरूद्ध खुशियों का कोई झरना यकायक फूट पड़ा हो।
अपने गले में चमचमाती हांसली की फोटो तो उसे अपने चेहरे से भी अधिक सुन्दर लगी थी। ‘इस बार वेस्ता के आने पर मैं हांसली को सुनार से जरूर साफ कराऊंगी। कुछ काली जो पड़ गई है’ उसने मन ही मन सोचा। उस निश्छल जीव को क्या पता कि चांदी में कतीर मिला कर कस्बे के सुनार उन्हें कितना ठगते हैं।
आज थांवरी को कुशलगढ़ में अपनी लकड़ी की ढेरी के पांच रुपये मिले थे। लोहार को जंगल का कुछ गोंद देते हुए उसने अपनी कुल्हाड़ी की धार विशेष रूप से तेज कराई थी। कीकर की लकड़ी का नया मजबूत हत्था लगवाया उसने। दीत्ता के यहां पड़े डाके में हूकली के गहने लुट जाने से उसे अपनी हांसली की बहुत चिंता हो गई थी। कुछ दिनों से वह कुल्हाड़ी की धार लकड़ी काटने में खराब नहीं कर रही थी। सूखी पतली लकड़ियां हाथ या पत्थर से तोड़ कर गट्ठर बना लेती थी।
वह जानती थी कि लुटेरे हर घर की हैसियत का ध्यान रखते हैं और उसके टापरे में कुछ विशेष मिलने वाला था नहीं। फिर भी वह मन में किसी अज्ञात विपत्ति की आशंका पालने लग गई थी। लेकिन वेस्ता के प्यार ने उसमें एक नया आत्मविश्वास और जीने की अद्भुत संघर्ष-क्षमता पैदा कर दी थी। उसने मन-ही-मन दृढ़ निश्चय कर लिया था कि यदि उसके टापरे में लुटेरे आ गए तो वह अपनी कुल्हाड़ी की तेज धार से एक दो का तो काम तमाम कर ही देगी। कुल्हाड़ी अपने सिरहाने रखकर टापरे के अन्दर ही वह सोने लगी थी।
वेस्ता हरियाली अमावस तक आने को कह गया था। अभी तो चार दिन बाकी हैं हरियाली अमावस को। आज थांवरी ने चूल्हे के पास जमीन खोद कर अपनी चांदी की हांसली संभाली थी और कुछ क्षणों के लिए वह फिर अतीत में खो गई थी। तभी अचानक उसके माथे पर चिंता की रेखाएं उभर आई। आज ही सुबह हुकली और दीत्ता ने उसे बतलाया कि दो दिन पहले पड़ौसी गांव लुहारिया में लुटेरे एक की हत्या कर तीन घरों को लूट ले गए थे। पुलिस भी लुटेरों से मिली हुई है। दीत्ता के घर पड़ी डकैती की भी मामूली चोरी के रूप में पुलिस ने फटाफट रपट लगा कर अदम पता माल मुलजिम मामला रफा-दफा कर दिया था।
हल्की बूंदा-बांदी के साथ तेज हवा चल रही थी। अंधेरी रात में बिजली की कौंध और बादलों की गड़गड़ाहट अकाल-पीड़ित आदिवासियों को एक ओर अच्छी फसल के लिए आशान्वित कर रही थी वहीं लूटेरों का भय भी उनके मन में बसा हुआ था।
थांवरी को थकान- वश नींद आ गई थी। आधी रात के बाद उसने अचानक अपने टापरे में फाटक नुमा दरवाजे के खुलने और किसी के पदचाप की आवाज सुनी।
एक क्षण के लिए उसे लगा जैसे अब एक लुटेरा उसका गला दबा देगा और दूसरा उसकी कुल जमा पूंजी और वेस्ता के प्यार की निशानी हांसली लूट ले जाएगा। मंगला के साथ जीते हुए तो वह कई बार मरी थी। उन दिनों उसने नदी में डूब कर अपनी अपवित्र देह को छोड़ना भी चाहा था, लेकिन सूकी के मोह ने उसे मरने नहीं दिया था। अब जब कि वेस्ता के प्यार ने उसमें फिर से जीने की ललक पैदा कर दी थी, वह इस तरह लुटना मरना नहीं चाहती थी।
पलक झपकते ही उसने बिजली की-सी फुर्ती से अपने सिरहाने संजोई कुल्हाड़ी को उठा कर अंदाज से ही उस आदमी पर एक भरपूर वार दे मारा। वार उस आदमी के सिर पर इतना तेजी से पड़ा मानो थांवरी ने किसी मोटी गीली लकड़ी की गांठ पर वार किया हो। वह चीख भी नहीं सका और ढेर हो गया।
टापरे में भयंकर अंधेरा था। थांवरी अब घबराई। कुछ क्षण स्तब्ध खड़ी रही। उसने सोचा कि इस लुटेरे के दूसरे साथी उसे जीवित नहीं छोड़ेंगे। जब काफी देर बाद वहां से किसी की कोई आवाज या हरकत नहीं हुई तो वह सहमी-सहमी टापरे के बाहर आई। बाहर दूर-दूर तक किसी आदमी की मौजूदगी के आसार नहीं लग रहे थे।
ते क्या यह लुटेरा अकेला ही आया है ? हो सकता है पड़ौसी गांव का कोई मामूली चोर ही हो। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह लुटेरा आगे टोह लेने आ गया हो और उसके साथी अब पहुंचने वाले हों। थांवरी के दिमाग में तेजी से अनेक विचार कौंधने लगे। उसने दीत्ता को हाका किया और घबराई हुई वह टापरे के अन्दर आ गई। लेकिन उसका एक पैर मिट्टी व गोबर से लीपे हुए आंगन में बिखरे गाढ़े द्रव पदार्थ पर छप से गिरा। घोर अंधेरे में भी वह यह महसूस कर कांप गई कि उसका पैर अंदर गिरे आदमी के खून से गीला हुआ था। यह सोच कर उसकी रीढ़ में सिरहन सी दौड़ गई कि कहीं यह आदमी मर न गया हो। कत्ल, पुलिस, अदालत, फांसी….. नहीं….नहीं… मैं जीना चाहती हूं। उसने मन-ही-मन कहा और कांपते हुए अपने इष्ट देव भैरू बाबा से मिन्नत मांगी।
दियासिलाई के प्रकाश में उसने जैसे ही रक्तरंजित लाश देखी, वह भयंकर चीख के साथ बेहोश हो गई।वह कोई लुटेरा या चोर नहीं अपितु उसका प्यारा पति वेस्ता ही था जो खून के तालाब में निष्प्राण पड़ा था। आधी रात में इस तरह चुपचाप आ कर शायद वह थांवरी को आश्चर्यजन्य खुशी देना चाहता था। लेकिन….
थांवरी के दिल पर यह तीसरा वज्रपात था।

 

- मुरलीधर वैष्णव

जन्म तिथि: ०९ फरवरी, जोधपुर

शिक्षा : बी.ए., एलएल.बी.

राज्य सेवा: करीब ३४ साल का राज.न्यायिक वं उच्चतर न्यायिक सेवा अनुभव रजिस्ट्रार प्रशासन राज.उच्चन्यायालय,जोधपुर व सुपर टाइम स्केल
जिला न्यायाधीष पद से २००६ में सेवा निव्रत। ५ वर्ष के लिए अघ्यक्ष उपभोक्ता संरक्षण मंच जोधपुर पद पर पुर्ननियुक्ति।

साहित्य- स्रजन: कवि-कथाकार

प्रकाशन : ’पीड़ा के स्वर’कथासंग्रह अक्षय-तूणीर लघुकथा संग्रह व ‘हेलौ-बसंत’काव्य-संग्रह
राज.पत्रिका दैनिक भास्कर, हंस, कथादेश, सरिता, मुक्ता, मधुमति आदि अनेक राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में सतत रूप से साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार की सैंकड़ों रचनाएं प्रकाशित।
बाल साहित्य आदि प्रकाषन-दो बाल कथा संग्रह ’पर्यावरण चेतना की बालकथाएं’ ,’चरित्र विकास की बाल कहानियां ’ ,एक बालगीत संग्रह व एक बालकथा संग्रह प्रकाषनाधीन, बाल वाटिका का संरक्षक।

राजस्थानी भाषा में भी कविताएं ’जागती जोत’ में प्रकाशित

अंग्रेजी में विभिन्न कानूनी बिंदुओं पर अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका सीटी.जे. (कन्जूमर एंड ट्रेड प्रेक्टिस लॉ) में अनेक आलेख

प्रदत्त सम्मानः
१ . राज.पत्रिका सृजनात्मक साहित्यपुरस्कार २००२
२ .राज.साहित्यअकादमीकाविषिश्टसाहित्यकारसम्मान २०१३
३ . वीरदुर्गादाससाहित्य सम्मान मेहरानगढ ट्रस्ट जोधपुर २००८
४ . सर्जनात्मक संतुश्टि संस्थान जोधपुर सर्वश्रेश्ठ लघुकथासम्मान २०१२
५ .रेस्पेक्ट इंडिया २००८ सम्मान
६ .उत्सव मंच,अजमेर २०१२ सम्मान
७ .सुमित्रानंदन पंत बाल साहित्य सम्मान २०११

अन्य सामाजिक कार्य : संरक्षक ‘जाग्रति’ आरटीआइ एनजीओ जोधपुर गरीब प्रतिभाशाली बच्चों को आर्थिक मदद उदयपुर, प्रतापगढ़, भीलवाड़ा, कुशलगढ़, बांसवाड़ा एवं जोधपुर में अब तक करीब ३००० से अधिक वृक्षारोपण एवं उनका पोषण ,निःशुल्क कानूनी सेवा के दर्जनों केम्प्स में विधिक शिक्षा प्रसार
जोधपुर संभाग में उपभोक्ता कानूनी शिक्षा प्रसार एवं जाग्रति हेतु उल्लेखनीय कार्य

सम्प्रति पता आदि: विधिक सलाहकार एवं स्वतंत्रलेखन ’ , रामेष्वरनगर ,बासनी , प्रथम फेस, जोधपुर , जोधपुर (राज.)

2 thoughts on “तीसरा वज्रपात

  1. राेचक व मनाेरंजक कहानी । विदेश की धरती से हिंदी पत्रिका का प्रकाशन अदभूत कहने याेग्य है । लेखक व संपादक काे बधाई । पत्रिका की एक प्रति भेजने का कष्ट करें।
    Dr. Tarique Aslam Tasneem
    Plot -6,Sector-2, Haroon Hagar
    Phulwari Sharif , Patna-801505 INDIA

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