बालकहानी
बिल्लू की दादी रोज मंदिर जाया करती थीं। एक दिन वह भी उनके साथ गया। वहाँ रंगबिरंगे फूल पंक्ति में खड़े मुस्करा रहे थे । मानों वे भगवान के भगतों का स्वागत कर रहे हों। उन पर उड़ती,बैठी तितलियां देख तो वह हक्का-बक्का रह गया।
उत्तेजित हो वह चिल्लाया-“दादी—दादी देखो तितली —कितनी सुंदर! मैं तो इतना सुंदर हूँ भी नहीं। इन्हें किसने बनाया ?”
“सबको बनाने वाला तो एक ही है भगवान। ’’
“लगता है वह मुझसे भी अच्छी चित्रकारी जानता है।’’
“हाँ चित्रकार तो है ही। ये रंगबिरंगे पेड़-पौधे-फूल सब उसकी ही तो कारीगरी है ’’।
“ओह! तभी उसने तितली के पंखों में इतने सुंदर रंग भरे हैं। मैं भी उसकी तरह सुंदर तितली बनाऊँगा।’’
“अच्छा –अच्छा बना लीजों पर अभी तो अंदर चल। आरती का समय हो गया है।’’
बिल्लू बेमन से दादी के साथ चल दिया।
अगले दिन स्कूल से आते ही वह तितलियों के पास दौड़ा –दौड़ा चला आया। एक काली गुलाबी तितली उसे टुकुर टुकुर देख रही थी। बिल्लू ने कुछ दूरी से ही कहा –“तितली मुझे देख कर भागना नहीं । मैं तुम्हारा कुछ बिगाड़ूँगा नहीं । बस मुझे अपना एक चित्र बनाने दो।” तितली उसकी बात मान गई।
चित्र बनाकर बिल्लू ने उसका धन्यवाद किया और बोला – “प्यारी तितली तुम कहाँ से आई हो?तुम्हारे मम्मी-पापा कहाँ है?”
“मैं तो फूल-फूल उड़ती रहती हूँ। उनसे मेरा जन्म से ही नाता है । होश आते ही सबसे पहले फूल को ही देखा।”
“और तुम्हारे मम्मी-पापा ?”
“पापा का तो पता नहीं पर मेरी माँ पौधे पर अंडा देकर न जाने कहाँ उड़ गई।’’
“उसके बाद वह मिलने नहीं आई क्या?”
“नहीं।’’
“फिर तुम्हारी देखभाल किसने की?”
“मैं तो अपने आप ही बड़ी हो गई। अंडे से बाहर निकली तो बड़ी लिजलिजी सी थी । पौधों की पत्तियाँ खाकर कुछ ताकतवर बनी। तब भी डर लगा रहता था कोई मुझे खा न जाये। ’’
“अपनी माँ को आवाज देकर तो देखतीं— सुनकर तुम्हारी मदद को जरूर आती। मैं जब भी किसी मुसीबत में होता हूँ तो बुलाने पर मेरे माँ दौड़कर आती है। ’’
“मेरी माँ कभी नहीं आती।अपनी रक्षा अपने आप ही करनी पड़ती है। इसी कारण मैंने मुंह से बारीक रेशम का सा धागा निकाला और अपने आसपास एक खोल सा बुन लिया।’’
“अरे —रे –तुम्हारा उसमें दम नहीं घुटा।’’
“दम घुटा इसीलिए तो मैंने एक दिन इतना ज़ोर—इतना ज़ोर लगाया कि खोल में एक सुराख हो गया। बस फिर तो मुझमें हिम्मत आ गई और पूरी ताकत लगा कर धीरे धीरे बाहर आने लगी। उस दिन तो कमाल हो गया,धमाके से खोल के दो टुकड़े हो गए। मैंने अपने मुड़े-दबे पंख फड़फड़ाए और हवा में उड़ती पूरे बाग की सैर करने लगी।’’
“एक साथ तुम इतना उड़ीं। थककर गिर जाती तो—।मेरी दादी बताती हैं —मैंने धीरे-धीरे चलना सीखा। थोड़ा चलता गिर पड़ता –फिर चलता फिर गिर पड़ता”।
“मेरे पंखों में तो गज़ब की ताकत आ गई थी। सोच-सोच कर मुझे तो खुद हैरानी होती है। वह तो मुझे भूख लग आई वरना पहाड़ नदी की भी सैर कर आती । खोल से बाहर निकलते पर मैं सुंदर सी तितली बनकर एक नई दुनिया में आ गई थी। उसे मैं जल्दी से जल्दी देखना चाहती थी।’’
“भूख लगने पर तुमने क्या खाया?इतनी नन्ही सी तो हो। रोटी चावल तो खा नहीं सकती!”
“रोटी चावल –हा—हा—हा। जो तुम खाते हो वह मैं नहीं खा सकती और जो मैं खाती हूँ वह तुम नहीं खा सकते।’’
“बड़ी अजीब बात है। फिर तुमने क्या खाया?”
“खाना क्या— भूख लगी तो गुलाब की गोद में जा बैठी। मैंने उसके कान में प्यार भरा गीत गुनगुनाया,उसे सहलाया और इसके बदले उसने अपना मीठा पराग पीने की पूरी छूट दे दी।’’
“ही-ही-ही–तुम्हारा तो न मुंह है और न जीभ । रस कैसे चूसा?”
“ये मेरी लंबी सूढ़ देख रहे हो। देखो हिलाकर दिखाती हूँ।’’
“अरे वाह क्या आगे-पीछे तुम्हारी सूढ़ हिल रही है। अभी तक तो हाथी की सूढ़ ही देखी थी। तुम्हारी तो निराली बातें है।’’
“अब निराली हूँ तो निराली बातें ही तो बताऊँगी। सुनकर ताज्जुब करोगे कि यही सूड़ मेरी जीभ है। इसी से स्वाद ले लेकर फूलों का पराग जी भरकर चूसती हूँ।’’
“मान गया तुम्हारा निरालापन! मेरी निराली, मुझे हफ्ते में एक दिन मिलता है तुम्हारे पास आने का मगर तुमको तो मेरे लिए फुर्सत ही नहीं। एक फूल से दूसरे फूल पर कुदकती रहती हो। मेरे लिए भी थोड़ा समय निकाल लिया करो।’’
“बिल्लू, मेरा फूल-फूल पर जाना जरूरी है। मैं एक फूल का पराग दूसरे फूल तक ले जाती हूँ इससे नए नए फूल बनते हैं और फूलों से ही फल और बीज मिलते हैं।’’
“तुम्हारे लिए टोकरी भर फूल लाकर तो मैं अपने घर मैं भी रख सकता हूँ। निराली, मेरे बात मानो —आज मेरे साथ चलो। वरना मैं तुम्हें पकड़ कर ले चलूँगा।’’
“बिल्लू मुझे भूलकर भी पकड़ने की कोशिश न करना। फूल पर ही मैं मंडराती अच्छी लगती हूँ। मुझे बुलाना है तो पहले घर के बाहर फूल लगाओ घर के अंदर नहीं।’’
बिल्लू के पापा ने घर के बाहर फूलों की क्यारियाँ-लगवा दीं । गेंदा,सदाबहार ,चाँदनी की खुशबू से गली महकने लगी। निराली की सहेलियाँ लिल्ली,पिल्ली,निल्ली ने उधर आकर आँख-मिचौनी खेलना शुरू कर दिया। उन्हें देख आसपास के बच्चे वहाँ आ जाते और मुदित मन से तालियाँ बजाते।
बिल्लू क्यारियों के पास बैठा अकसर एक किताब पढ़ा करता। जिसका नाम था तितलियों की सुरक्षा। उसने एक तख्ती भी लटका दी थी जिस पर लिखा था-तितली पकड़ना सख्त मना है। प्यार की वर्षा करते हुए कोई तितली अपने इस रक्षक के कंधे पर आन बैठती तो कोई उसकी किताब पर । अब तो पड़ौसियों ने भी अपने घर के सामने फूल-पौधे लगाने शुरू कर दिये।झुंड के झुंड तितलियों के उनपर मटरगश्ती करते ,फूलों का पराग चूसते नजर आते। कुछ दिनों में बिल्लू की गली का नाम पड़ गया –तितलियों का मोहल्ला।
- सुधा भार्गव
प्रकाशित पुस्तकें: रोशनी की तलाश में –काव्य संग्रहलघुकथा संग्रह -वेदना संवेदना
बालकहानी पुस्तकें : १ अंगूठा चूस २ अहंकारी राजा ३ जितनी चादर उतने पैर ४ मन की रानी छतरी में पानी ५ चाँद सा महल सम्मानित कृति–रोशनी की तलाश में(कविता संग्रह )
सम्मान : डा .कमला रत्नम सम्मान , राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मानपुरस्कार –राष्ट्र निर्माता पुरस्कार (प. बंगाल -१९९६)
वर्तमान लेखन का स्वरूप : बाल साहित्य ,लोककथाएँ,लघुकथाएँमैं एक ब्लॉगर भी हूँ।
ब्लॉग: तूलिकासदन
संपर्क: बैंगलोर , भारत
सुधा जी बहुत सुन्दर मनभावन कहानी लिखी है बच्चों में तितलियों के प्रति प्यार जागृत करती है और पेड़ पौधे लागाने का सुन्दर सन्देश भी देती है | हार्दिक बधाई |