चूल्हा

हाँ, मैं चूल्हा

कुछ यूँ ही नहीं जला था

जलाया गया था मुझको

कुछ गोयठे, लकड़ियाँ और केरोसिन डालकर

बड़ी तहजीब से

चिंगारी डाली गई थी मुझमें

सुलगाया गया था मुझको।

 

धन्य हुआ था मैं भी जल कर

मेरी आँच में

रोटियाँ सेंकी गयीं थीं

पकवान पकाये गये थे, लज़ीज़ बनाये गये थे

और मैं भी पूरी रंगत लिये

अपनी प्रकृति और अनुशासन के साथ

बिना किसी जद्दो-जहद के

शिद्दत से जलता रहा था।

 

मेरा प्रयोजन भी घर में यही था

मैं खुश था कि तापते थे सभी मेरी आग को

भाती थी उन्हें मेरी लहक सर्दियों में

मैं जलता रहा था सुकून से मगर

बचा लेता थोड़ी ऊष्मा अगले दिनों के लिए

और एक उनींदी अलस में थककर

सो जाया करता प्रतिदिन

राख का मोटा लिहाफ ओढ़कर।

 

लेकिन अब कोई नहीं बैठता मेरे पास

मौसम बदल गया था

मैंने भी दबा कर रख लिया था चिंगारियों को

मन के किसी गहरे अतल में

हवाओं से छुपाकर, बतासों से बचाकर

डर था कि हवा की संगति

हवा न दे दे मेरी चिंगारी को।

 

पर वही हुआ था एक दिन

जिसका हमेशा डर था

हवा आँधियाँ ले आयी थी अपने साथ

भड़का गई थी सोयी चिंगारियों को

दहक उठा था पूरा घर

ज्वाला बन गई थी चिंगारी यकायक

बाहर जलने को भी बहुत कुछ था

पूरी तबीयत से जलता रहा

हवायें मदद करती रहीं

तमाशा चलता रहा, लोग हँसते रहे।

 

और इन सब के बीच एक बात थी

जो मसोसती जा रही थी मुझे

अन्दर ही अन्दर खाती जा रही थी

कि धधकती लौ की ये संतति चिंगारियाँ

लहरों की फुनगियों पर चढ़-चढ़ कर

फिर-फिर कर देख रही हैं यह सब।

 

 

- दुर्गेश कुमार चौधरी

सम्पादक ,  हिंदी साहित्यिक पत्रिका ‘निनाद’

कवि, चिन्तक व समाजिक कार्यकर्ता

 

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